डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
प्राचीन समय से धरती पर मौजूद फर्न एक तरह से उपेक्षित ही रहा है। कुछ फर्न जहरीले भी होते हैं। उत्तराखंड में स्थानीय बोली में ल्यूंणा नाम से प्रचलति फर्न की खाने के लिहाज से अच्छी मांग है। अंजू कहती हैं कि फर्न की बहुत सी किस्में पत्थरों पर और लकड़ियों पर भी उग आती हैं। फर्नेटम में ऐसे पौधों को पत्थर और लकड़ी के साथ ही संरक्षित किया गया है। इसकी कुछ प्रजातियों पर विलुप्त होने का भी खतरा है। फर्नेटम में मौजूद एडिएनटम वेनुस्टम नाम के फर्न को हंसराज भी कहा जाता है। हिमालय में पाया जाने वाला ये पौधा पहाड़ों की ढलान पर पत्थरों के बीच उगता है। इसका इस्तेमाल सर्दी. जुकाम के साथ कई अन्य बीमारियों में किया जाता है।
उत्तराखंड वन विभाग में वन संरक्षक अनुसंधान कहते हैं कि फर्न की तमाम किस्मों को एक साथ एक जगह पर लाने से इन्हें संरक्षित किया जा सकेगा। इसके साथ ही यदि कोई शोधार्थी फर्न पर अध्ययन करना चाहें तो उनके लिए भी ये बेहद सुविधाजनक हो जाएगा। कई किस्में एक साथ मौजूद होने से शोधार्थियों के लिए फर्न के बारे में समझना और जानकारियां जुटाना आसान रहेगा। साथ ही पर्यटन के लिहाज से भी फर्नेटम लोगों का ध्यान आकर्षित करेगा।फर्न के पौधे वर्षा ऋतु के प्रिय हैं। बारिश के दिनों मेंए जब नमी ज्यादा होती है, वे खुद.ब.खुद पत्थरों के बीच से झांकते हुए या इधर.उधर अपनी सर्पीली बाहें पसार दिखाई देने लगते हैं। इन पर अधिक अध्ययन की जरूरत समझी जाती है ताकि जैव.विविधता में इनके महत्व को बेहतर तरीके से समझा जा सके। उत्तराखंड के पारिस्थितकीय तंत्र में तो इनकी खासी अहमियत है।
फर्न लगभग ढाई सौ लाख वर्ष पहले पृथ्वी पर वनस्पति संपदा का प्रमुख और प्रभावशाली हिस्सा रहा। इसकी 12 हज़ार से अधिक प्रजातियां हैं। जिसमें से करीब एक हजार हमारे देश में हैं। पांडे और पांडे 2002 ने अपनी शोध रिपोर्ट में लिखा कि फर्न और उससे जुड़ी 350 किस्में अकेले कुमाऊं में पायी जाती हैं। दीक्षित और कुमार 2001 ने अपने शोध में पाया कि फर्न की 18 प्रजातियां ऐसी हैं जो सिर्फ उत्तराखंड में ही पायी जाती हैं। ये सभी शोषण, अपने प्राकृतिक वास खोने और मौसमी वजहों से लुप्त होने की कगार पर आ पहुंची हैं।
उत्तराखंड वन विभाग की रिसर्च विंग ने वर्ष 2017 में फर्न की बिखरी हुई प्रजातियों को एक जगह पर लाने के लिए विशेष प्रोजेक्ट शुरू किया। रानीखेत में कालीगढ़ रिजर्व ब्लॉक में करीब एक हेक्टेअर क्षेत्र में फर्न की तमाम किस्मों को संरक्षित किया जा रहा है। इस प्रोजेक्ट को वर्ष 2022 तक पूरा किया जाना है। फर्न की 18 प्रजातियां ऐसी हैं जो सिर्फ उत्तराखंड में ही पायी जाती हैं। ये सभी शोषण, अपने प्राकृतिक वास खोने और मौसमी वजहों से लुप्त होने की कगार पर आ पहुंची हैं। पारिस्थितिकी के संरक्षण में अहम भूमिका निभाने वाली घास प्रजातियों को महफूज रखने की दिशा में उत्तराखंड वन महकमे ने पहली बार बड़ी पहल की है। इसके तहत राज्य में मिलने वाली घास की 185 प्रजातियों का संरक्षण किया जाना हैए ताकि ये भविष्य के लिए सुरक्षित रह सकें। इस कड़ी में महकमे की अनुसंधान शाखा ने रानीखेत के द्वारसौं पौधालय में प्रथम चरण में फर्न की 25 प्रजातियों का रोपण किया है, जो वहां ठीक से फलीभूत हुई हैं।
वन संरक्षक अनुसंधान वृत्त बताते कि इनमें उच्च हिमालय से लेकर तराई के मैदानी क्षेत्र तक पाई जाने वाली घास प्रजातियां शामिल हैं। धीरे.धीरे इस मुहिम को प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी फैलाया जाएगा। जैव विविधता के लिए मशहूर 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में वन महकमा पेड़.पौधों के साथ ही झाड़ी प्रजातियों के संरक्षण को तो कदम उठाता आया है, मगर पहली मर्तबा उसका ध्यान फर्न प्रजातियों के संरक्षण की तरफ गया। वन संरक्षक अनुसंधान वृत्त के अनुसार फर्न को अभी तक उपेक्षित समझा गया थाए जबकि पारिस्थितिकी के संरक्षण में इसकी सबसे अहम भूमिका है। फर्न का संबंध मनुष्य के संस्कारों से लेकर पर्यावरण के संरक्षण एवं संतुलन के साथ ही भूमि व मिट्टी को क्षरण से बचाने और भूमि की उर्वराशक्ति बढ़ाने तक है। यहां पाई जाने वाली फर्न की सभी प्रजातियां सुरक्षित रहेंए ताकि भविष्य में ये किसी क्षेत्र से विलुप्त भी हो गई तो इन्हें फिर से वहां लौटाया जा सके। पर्यावरण संतुलन के लिए फर्न भी जरूरी है। एक शोध में सामने आया कि फर्न जंगलों से गायब हो रहा है जबकि मिट्टी के लिए फायदेमंद है। इसके दवा, सजावटी सामान में भी उपयोग होता है।