डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
जापानी फल को अंग्रेजी में पर्सीमॉन कहते हैं और इसका वानस्पतिक नाम डायोसपायरोस काकी है। इसकी दुनियाभर में करीब 400 प्रजातियां उपलब्ध हैं। हालांकि इसकी दो प्रजातियां हचिया और फूयू बेहद लोकप्रिय हैं। वर्ष 2006 में प्रकाशित सुसाना लाइल की किताब फ्रूट्स एंड नट्स के मुताबिक इसकी उत्पत्ति पूर्वी एशिया विशेष तौर पर दक्षिण चीन में हुई थी।
वर्ष 1780 में नोवा एक्टा रेजिया सोसाईटेटिस साइंटियारम उपसैलिएन्सिस नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, जापानी फल चीन में 2000 से भी अधिक वर्षों से उगाया जा रहा है। यह जपान का स्थानीय समशीतोष्ण, हिमाचल का विदेशी फल है। यह गहरे नारंगी और लाल रंग का होता है। इसे शीरीन खुरमा भी कहते हैं। पक जाने पर यह नरम हो जाता है और खाने में मीठा और लजीज लगने लगता है। इस फल की अत्याधिक खेती चीन में की जाती है, इसलिए मूलतया, इसे चीन का फल कहते है। भारत में 20वीं शताब्दी पहले यूरोपीयवासियों ने इस फल को उगाया था। इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, उत्तराखंड और नीलगिरी पहाड़ियों में भी पाया जाता है। इस फल में विटामिन ए और विटामिन सी अधिक मात्रा में पाया जाता पेर्सिम्मों में मैंगनीज की भरपूर मात्रा होती है, जो श्लेष्मा झिल्ली और त्वचा को स्वस्थ रखने में सहायक है। यह फेफड़े व मुंह के कैंसर जैसे रोगों के लिए प्रभावी उपचार है। पेर्सिम्मों फाइबर, बी.कॉम्प्लेक्स विटामिन्स, कॉपर और फास्फोरस की प्राप्ति का उत्तम साधन है।इसमें कैलोरी और वसा की मात्रा कम होती है और इस छोटे से फल में एंटी ऑक्सिडेंट जैसे गुण भी शामिल होते हैं। हालांकि, पेर्सिम्मों में बहुत अधिक सकारात्मक गुण होते हैं, औषधीय गुणों को भी समाहित करता है। इसमें प्रचुर मात्रा में मैंगनीज, विटामिन ए, सी, बी6 और फाइबर पाया जाता है जो मनुष्यों को कई बीमारियों से दूर रख सकता है। जापानी फल का नियमित सेवन मोटापे को दूर भागने में भी कारगर है। जापानी फल में पाए जाने वाले एंटीऑक्सिडेंट शरीर में कैन्सर पैदा करने वाले तत्वों को खत्म करता है। जापानी फल के औषधीय गुणों की पुष्टि कई वैज्ञानिक अध्ययनों से भी होता है। वर्ष 2013 में फूड केमिस्ट्री नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार जापानी फल में कवकरोधी तत्व पाए गए हैं और रासायनिक कवकरोधी के बदले इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। वर्ष 2010 में ओंकोलोजी रिपोर्ट्स नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन बताते हैं कि जापानी फल घातक ल्यूकीमिया के उपचार में कारगर है।
जर्नल ऑफ चायनीज मेडिसिनल मटीरीयल्स में वर्ष 2007 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार जापानी फल के पत्तों में फ्लवोंस नामक एक रासायनिक यौगिक पाया जाता है जो कैन्सर के ट्यूमर के कारण मांसपेशियों को नष्ट होने से बचाता है। वहीं फायटोथेरपी रिसर्च नामक जर्नल के वर्ष 2010 अंक में प्रकाशित एक शोध बताता है कि जापानी फल बढ़े हुए कोलेस्ट्रोल को कम करने में कारगर है। तकनीक के अभाव के कारण भारत में इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन आज भी चुनौती है। फल दिखने में जितना सुंदर खाने में उतना ही स्वादिष्ट। इससे से कहीं अधिक सेहत के लिए रामबाण भी। जापानियों की पहली पसंद में शुमार परसीमन फल को दून की आबोहवा खूब भा रही है। जम्मू.कश्मीर और हिमाचल में जापानी फल परसीमन का उत्पादन होता है, लेकिन उत्तराखंड में यह केवल प्रयोग के तौर पर राजकीय उद्यान चौबटिया तक ही सिमटा है। लेकिन, कुछ लोगों ने शौकिया तौर पर इसे आजमाना शुरू किया है। ऐसे ही शख्स हैं देहरादून के निवासी बताते हैं हिमाचल में उद्यान विभाग वर्ष 2008 में हिमाचल से परसीमन के दो पौधे यहां लाकर लगाए गए। हिमाचल का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि वहां की प्रमुख नगदी फसलों में परसीमन पांचवें नंबर है। जम्मू.कश्मीर में भी इसका ठीक.ठाक उत्पादन होता है।
उत्तराखंड के चौबटिया में थोड़ा बहुत उत्पादन होता है। कुमाऊं के भवाली, रानीबाग, भीमताल, रामगढ़, नथुवाखान में यह फल बड़ी मात्रा में पाया जाता है। इसमें ग्लूकोज, प्रोटीन, टैनिन, फाइबर, कार्बोहाइड्रेड, शूगर, फैट, विटामीन ए, सी, ई, कैल्सियम और आयरन के साथ मैग्नीसियम भी पाया जाता है। यह फसल किसानों की आर्थिकी को मजबूत कर सकती है, लेकिन इससे पहले इसके लिए मार्केट बनानी होगी। आमतौर पर बाजार में यह 80 से 90 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकता है। दून समेत उत्तराखंड में इसके उत्पादन की अच्छी संभावनाएं हैं। इस फोकस किया जाए तो यह किसानों की झोलियां भरने में सक्षम है। इकोलॉजिकल और इकॉनामिकल वेल्यू है। इनके पेड़ स्थानीय पारिस्थितिकीय तंत्र को सुरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं, जबकि फल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।