डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला दून विश्वविद्यालय देहरादून, उत्तराखंड
जौनसार-बाबर देहरादून जिले की चकराता एवं त्यूनी तहसील से संबद्ध प्राकृतिक सीमाओं से घिरा हुआ एक छोटा भौगोलिक क्षेत्र है। क्षेत्र का नाम जौनसार-बाबर होने के पीछे क्षेत्रवासी बतलाते हैं कि गढ़वाल से जमना (यमुना नदी) पार होने के कारण यह क्षेत्र जमना पार कहलाया जाने लगा, जो कालान्तर में जौनसार हो गया।
सुदूर उत्तर दिशा में पावर नदी के कारण यह क्षेत्र बावर कहलाया।जौनसार-बावर के स्थानीय ग्रामीणों को दशकों से मिलती आ रही हक-हकूक की माफी लकड़ी पर अब संकट के बादल छाने लगे हैं। चकराता वन प्रभाग की ओर से जंगलों में सूखे व जड़पट पेड़ों का छपान कार्य वन विकास निगम को करने से ग्रामीणों को माफी की लकड़ी नहीं मिल पा रही। स्थानीय जनता ने अपने अधिकारों को बचाने के लिए अब आवाज उठानी शुरू कर दी है।
सदियों से जंगलों की सुरक्षा करते आ रहे स्थानीय ग्रामीण जनता को अब मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है। जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर की ग्रामीण जनता के हक-हकूक की। ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने जौनसार-बावर परगने के जंगलों को अपने अधिकार क्षेत्र में लिया था।
अंग्रेजों के इस निर्णय का स्थानीय ग्रामीणों ने पुरजोर तरीके से विरोध किया। उस वक्त उदपाल्टा के रूप सिंह राय समेत कुछ अन्य ग्रामीणों ने आगरा जाकर ब्रिटिश सरकार के गवर्नर के सामने अपना विरोध दर्ज कराया था।
स्थानीय ग्रामीणों ने ब्रिटिश हुकूमत को बताया कि क्षेत्र में जंगलों की सुरक्षा उनके पूर्वज पीढि़यों से करते चले आ रहे हैं। ऐसे में ग्रामीणों को उनके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। स्थानीय जनता के इस दावे को ब्रिटिश सरकार ने भी माना और वर्ष 1872 में ब्रिटिश सरकार ने ग्रामीणों के साथ समझौता कर पन्नालाल सेटलमेंट व्यवस्था लागू की। जिसके तहत जौनसार-बावर के स्थानीय ग्रामीणों को जंगलों से हक-हकूक के रूप में घर-मकान बनाने को प्रतिवर्ष पन्नालाल सेटलमेंट व्यवस्था के तहत माफी की लकड़ी दी जाने लगी।
ब्रिटिशकाल में लागू व्यवस्था के तहत ग्रामीणों को 90 के दशक तक जंगलों से देवदार, कैल, चीड़, बांझ, रई, मुरंडा आदि प्रजाति के हरे वृक्ष माफी की लकड़ी के रूप में
मिलते रहे। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में वन विभाग ने स्थानीय ग्रामीणों को हरे वृक्षों की जगह सूखे व जड़पट वृक्ष माफी लकड़ी के रूप में जंगलों से छपान कर देने की व्यवस्था की।
वर्ष 1987 में जौनसार के पटियूड़ निवासी फतेह सिंह चौहान ने चकराता वन प्रभाग से माफी लकड़ी को देहरादून में मकान बनाने को निकासी दिए जाने की मांग की थी, लेकिन वन विभाग ने क्षेत्र से बाहर माफी लकड़ी ले जाने को निकासी देने से साफ मना कर दिया, जिससे ग्रामीणों के अधिकार का मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचा। वर्ष 1988 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में वन विभाग को स्थानीय ग्रामीणों को दी जाने वाली माफी पेड़ की लकड़ी को घर-मकान बनाने के लिए देहरादून ले जाने का आदेश जारी किया। हाईकोर्ट ने घर-मकान बनाने के अलावा माफी की लकड़ी को बाहर बेचने पर पाबंदी लगा दी। हाईकोर्ट के आदेश से फतेह सिंह चौहान को माफी की लकड़ी गांव से देहरादून में मकान निर्माण को ले जाने के लिए वन विभाग से सशर्त मिली।
बावजूद इसके स्थानीय ग्रामीणों को अब माफी की लकड़ी के लिए जंगलों में भटकना पड़ रहा है। सामाजिक कार्यकत्र्ता ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों से वन विभाग जंगलों में सूखे व जड़पट वृक्षों का नियमित छपान कार्य वन विकास निगम को लाट के रूप में कर रहा है। जिस कारण स्थानीय ग्रामीणों को जंगलों से मिलने वाली हक-हकूक की माफी लकड़ी के छपान को सूखे व जड़पट पेड़ नहीं मिल पा रहे हैं। वन निगम के जंगलों में छपान कार्य के चलते स्थानीय ग्रामीणों के मौलिक अधिकार व हक-हकूक प्रभावित हो रहे हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले समय में ग्रामीणों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा।
वन विभाग की दोहरी नीति से नाराज सामाजिक कार्यकत्र्ता ने कुछ स्थानीय ग्रामीणों के साथ मिलकर अपने अधिकारों को बचाने के लिए उत्तराखंड जनजाति आयोग व सरकार से मामले की शिकायत कर न्याय की गुहार लगाई है हालाँकि वनों का सर्वे, पर्यावरण के नजरिए से उपयोगी वृक्षों का संरक्षण एवं विकास ,लोगों एवं वन्य जीवों के वनाधारित भोजन तथा वन्य जीवों व पानी के प्राकृतिक स्रोतों का संरक्षण, वनों को अति दोहन, चोरी और आगजनी से बचाना ब्रिटिश सरकार की वन नीति का हिस्सा थे। पर यह वन नीति एकतरफा थी। इसके जरिए यहाँ के वनों पर स्थानीय निवासियों के नैसर्गिक अधिकार छीन लिए गए थे। वहीं जंगलों में उच्च एवं कुलीन वर्ग के शिकार करने में कोई पाबंदी नहीं थी।