डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देवभूमि उत्तराखंड, ऋषि मुनियों की तपस्थली, आराध्य देवताओं का घर या फिर महान विचारकों के लिए आध्यात्म का स्थान। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा शख्स हो, जिसने उत्तराखंड के बारे में बड़ी बातें ना बताई हों। किसी बड़ी हस्ती के लिए ये धरा ध्यान और योग की भूमि है, किसी के लिए ये वीरों की भूमि है, किसी के लिए ये देवों की धरती है, तो किसी के लिए आध्यात्मिक सुख पाने का जरिया है। इस धरा पर आने से स्वामी विवेकानंद खुद को रोक नहीं पाए थे। ये बात 117 साल पुरानी है। 117 साल पहले 18 जनवरी के दिन युगनायक स्वामी विवेकानंद ने उत्तराखंड के चंपावत की धरती को प्रणाम किया था और यहां कदम रखा था।प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवसके दिन स्वामी विवेकानंद का जन्म दिन होता है।
स्वामीजी का जन्म कोलकाता में 12 जनवरी 1863 को हुआ था। इनका मूल नाम नरेंद्रनाथ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। पिता कोलकाता हाईकोर्ट में अटार्नी ऑफ लॉ थे।स्वामी जी कोलकाता के कॉलेज से बीण्एण् और लॉ की डिग्री हासिल की थी, लेकिन उनका मन अध्यात्म की ओर ज्यादा था। नरेंद्र नाथ को विवेकानंद नाम उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने दिया था। कहा जाता है कि स्वामीजी की याददाश्त बहुत तेज थी। वे बहुत ही जल्दी पूरी किताब पढ़ लेते थे और किताब की हर बात उन्हें याद रहती थी। भारत को दुनिया में आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रस्तुत करने वाले व युवाओं को सृष्टि के कल्याण के लिए जागो, उठो और कर्म करो का मूल मंत्र देने वाले युगदृष्टा स्वामी विवेकानंद को आध्यात्मिक ज्ञान नैनीताल जनपद के काकड़ीघाट में प्राप्त हुआ था। विवेकानंद की देवभूमि यात्रा यहीं से प्रारंभ हुई थी। यहां स्वामी जी के अवचेतन शरीर में सिहरन हुई। वह पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान लगा कर बैठ गए। बाद में उन्होंने इसका जिक्र करते हुए कहा था कि उनको काकड़ीघाट में पूरे ब्रह्माण्ड के एक अणु में दर्शन हुए। यही वह ज्ञान था जिसे उन्होंने 11 सितंबर 1893 को शिकागो में पूरी दुनिया के समक्ष रखकर देश का मान बढ़ाया।
स्वामी विवेकानंद और देवभूमि का गहरा संबंध रहा है। वह तीन बार देवभूमि आए। कहा जाता है की स्वामी जी ने बेलूर मठ से हिमालय की कठिन यात्रा के लिए निकलते समय मठ के साथियों से कहा था की वह स्पर्श मात्र से लोगों को रुपान्तरित कर देने की क्षमता प्राप्त किए बिना वापस नहीं लौटेंगे। उन्होंने कहा था, इस बार जब यहां लौटूंगा तब मैं समाज के उपर एक बम की तरह फट पड़ूगा और समाज स्वान की तरह मेरे पीछे चलेगा। वह अपनी पहली आध्यात्मिक यात्रा पर 1890 में साधु नरेंद्र के रूप में गुरु भाई अखंडानंद के साथ नैनीताल पहुंचे। यहाँ वह तत्कालीन खेत्री के महाराज प्रसन्न भट्टाचार्य के आतिथ्य में उनके घर पर छह दिन रहे थे। यहाँ से उन्होंने पैदल ही अल्मोड़ा के लिए यात्रा प्रारंभ की। तीसरे दिन दोनो लोग रात्रि विश्राम के लिए काकड़ीघाट पहुंचे।
काकड़ीघाट में वह एक झरने के किनारे पानी की चक्की पन चक्की.पहाड़ी घट के समीप ठहरे। यहाँ कोसी कौशिकी और सरोता नदी की संगम.स्थली पर उभरे एक त्रिभुजाकार भूखण्ड के बीच में खड़े विशाल पीपल के वृक्ष के साथ समस्त वातावरण दिव्य आनन्द से भरा हुआ था। स्वामीजी वहाँ रुककर खड़े हो गये और स्वामी अखंडानन्द से कहा, भाई, देखते हो यह स्थान तो ध्यान करने के लिये अत्यन्त उपयुक्त है! सुबह स्नान के उपरांत वह निकट ही स्थित विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान करने बैठ गये। जान लिया कि समष्टि और व्यष्टि विश्व ब्रह्माण्ड व अणु ब्रह्माण्ड दोनों एक ही नियम से परिचालित होते हैं। स्वामी अखण्डानंद के पास रखी हुई एक नोट बुक में स्वामीजी ने उस दिन की अनुभूति की बात बांग्ला भाषा में लिख लीं। आमार जीवनेर एकटा मस्त समस्या आमि महाधामे फेले दिये गेलुम! स्वामीजी का उपरोक्त उद्गार का वर्णन हिन्दी में अल्मोड़ा का आकर्षण नामक महामण्डल पुस्तिका के पृष्ठ संख्या 5 पर इस प्रकार दिया हुआ है। आज मेरे जीवन की एक बहुत गूढ़ समस्या का समाधान इस महा धाम में प्राप्त हो गया है। उन्होंने लिखा, जिस प्रकार व्यष्टि जीवात्मा एक चेतन शरीर द्वारा आवृत्त है, उसी प्रकार विश्वात्मा भी चेतनामयी प्रकृति या दृश्य जगत में स्थित है। शिवा काली शिव का आलिंगन कर रही है। यह कोई कल्पना नहीं है। इसी एक प्रकृति के द्वारा दूसरे आत्मा का आलिंगन मानो शब्द और अर्थ के सम्बंध की भांति है। वे दोनों अभिन्न हैं और केवल मानसिक विश्लेषण के द्वारा ही उन्हें पृथक किया जा सकता है। शब्द के बिना विचार करना असम्भव है। अतः सृष्टि के आदि में शब्द.ब्रह्म था। उन्होने आगे कहा, विश्वात्मा का यह युगल रूप अनादि है। अतः हम लोग जो कुछ देखते हैं या अनुभव करते हैं। सभी की संरचना साकार और निराकार के सम्मिलन से हुई है।
कोरोना की वजह से आजकल लोगों की जिंदगी में निगेटिविटी आ गई है। भारत में ऐसी कई जगह हैं जहां पर जाने से ही पॉजटिव एनर्जी महसूस होती है। ऐसी ही एक जगह उत्तराखंड में है जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां पर स्वामी विवेकानंद को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। स्वामी विवेकानंद ने देश ही नही विदेशों में भी अपने ज्ञान की अविरल धारा बहाई थी। कहा जाता है कि काकडीघाट स्थित कर्कटेश्वर महादेव मंदिर के प्रांगण में पीपल के पेड़ के नीचे उनको दिव्य ज्ञान मिला था। बताया जाता है कि सन 1890 में हिमालय भ्रमण के लिए निकले स्वामी विवेकानंद को कोसी और शिरोता शिप्रा नदियों की संगम स्थली भा गई। यहां पर वह ऐसे ध्यान में खोए कि आगे चलकर उन्होंने पूरी दुनिया को राह दिखाई। अपनी इस अनुभूति को स्वामी जी ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो में पूरी दुनिया के सामने रखकर भारत का गौरव बढ़ाया था। स्वामी जी की तपोस्थली रही ये जगह आज भी लोगों को अपनी ओर खींच रहा है। हालांकि स्वामी विवेकानंद से जुड़े इस महत्वपूर्ण स्थल को विकसित करने के लिए आज तक प्रयास नहीं हो सके हैं। जिससे ये स्थल एक तरह से गुमनामी में रह गया है। देश विदेश से लोग यहां पर स्वामी विवेकानंद की ही तरह ज्ञान की अनुभूति को महसूस करने के लिए दूर.दूर से यहां पर आते हैं। पीपल के जिस पेड़ के नीचे स्वामी जी को ज्ञान मिला था वो अब नहीं है, उसकी जगह पर नया पीपल का पेड़ लगाया गया है। यहां पर आने वाले श्रद्धालु इस स्थान पर बहुत ही शांति और ऊर्जा महसूस करते हैं।
देवभूमि उत्तराखंड में ऐसी बहुत सी जगह हैं जहां पर कई महापुरुषों को ज्ञान की प्राप्ति हुई, आज के वक्त में जरूरत उन जगहों को सहेजने की है। युगपुरुष स्वामी विवेकानंद का उत्तराखंड से गहरा नाता रहा है। प्रकृति की शांत वादियां और हिमालय की आध्यापत्मिक शक्ति उन्हें कुमाऊं उन्हेंर कुमाऊं खींच लाई थी। स्वा मी उनका मत था कि हिमालय की ओर बढ़ता मानव मन स्वतरू ही आध्यात्म में डूब जाता है। यही वजह रही कि वे चाहते थे हिमालय की शांति व निर्जनता में एक ऐसा मठ स्थायपित हो जहां अद्वैत की शिक्षा व साधना दोनों हो सके। भारतीयता के प्रतीक और भारतीय ज्ञान परंपरा के सबसे बड़े ब्रांड एंबेसडर रहे स्वामी विवेकानंद ने न केवल दुनिया में भारतीय वैदिक दर्शन को पहचान दिलाई, बल्कि उन्होंने संसार को भारत की आध्यात्मिक शक्ति का एहसास भी कराया। युवाओं के प्रेरणा स्रोत स्वामी विवेकानंद जी का भारत के प्रति अनूठा विजन था। वह विजन अब साकार होने जा रहा है।