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चंद राजाओं की धरोहर संभालने में नाकाम

20/11/20
in उत्तराखंड, चम्पावत
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
यह तो सर्वविदित है कि जल की मनुष्य की उत्पत्ति के समय से ही अपरिहार्य आवश्यकता रही है। क्योंकि जल का महत्व मानव जीवन के लिए वायु के समान ही है, भोजन से भी अधिक अनिवार्य आवश्यकता जल की है। उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत नगर में स्थित बालेश्वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित एक प्राचीन मंदिर समूह है, जिसका निर्माण १०-१२ ईसवीं शताब्दी में चन्द शासकों ने करवाया था। इस मंदिर की वास्तुकला काफी सुंदर है। मन्दिर समूह चम्पावत नगर के बस स्टेशन से लगभग १०० मीटर की दूरी पर स्थित है। मुख्य मन्दिर बालेश्वर महादेव शिव को समर्पित है। लगभग २०० वर्ग मीटर फैले मन्दिर परिसर में मुख्य मन्दिर के अतिरिक्त २ मन्दिर और स्थित हैं, जो रत्नेश्वर तथा चम्पावती दुर्गा को समर्पित हैं।
मन्दिरों के समीप ही एक नौले का भी निर्माण किया गया है। बालेश्वर मंदिर परिसर उत्तराखण्ड के राष्ट्रीय संरक्षित स्मारकों में से एक है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण देहरादून मण्डल द्वारा इसकी देख.रेख के लिए कर्मचारी नियुक्त किये गये हैं। पुरातत्व विभाग की देख.रेख में बालेश्वर मंदिर परिसर की स्वच्छता एवं प्रसिद्ध बालेश्वर नौले के निर्मल जल को संरक्षित किया गया है।
बालेश्वर मंदिर अपनी खूबसूरती के साथ अलग पहचान बनाए हुए हैं और मंदिर कि खूबसूरती लोगों को अपनी ओर खींचती है और सोचने को मजबूर कर देती है। मंदिर के हर हिस्से में एक अनेक प्रकार की कलाकृति देखने को मिलती है। पहले मंदिर परिसर में अनेक प्रकार की मूर्तियां थी, लेकिन वर्तमान समय में मूर्ति को अलग कर दिया गया है। बालेश्वर मंदिर को राष्ट्रीय विरासत स्मारक। घोषित किया गया है और 1952 से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में है। ऐतिहासिक जलकुण्ड के पीछे बने घरों का गन्दा पानी अब नौले के पीछे की दीवार से रिसकर सीधे नौले के अंदर आने लगा है। वहीं यह बालेश्वर नौला कभी चंद राजाओं कि पूजा का अहम हिस्सा भी रहा है। जिस का इस्तेमाल राजा पूजा अर्चना के लिए करते थे। वहीं क्षेत्र की जनता की प्यास भी बुझाने का काम करता था।
देश में ऐतिहासिक स्थलों का हाल कितना बुरा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चंपावत शहर में भी सरकारें इन धरोहरों को संभाल नहीं पा रही है। दुनिया भर के देश जहां अपनी विरासत को सहेजनें में जुटे हैं, वहीं भारत में पुरातात्विक महत्व की चीजें बिखरी पड़ीं है। दरअसल नौले उत्तराखंड की ग्राम संस्कृति तथा लोकसंस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। लेकिन हममें से बहुत से लोग ऐसे हैं जो नौलों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते खासकर नई पीढ़ी के युवावर्ग को इनके बारे में कम ही जानकारी है। जल वितरण की नई व्यवस्था के कारण इन नौलों का प्रचलन अब भले ही बंद हो गया है किन्तु विडम्बना यह है कि उत्तराखंड के परंपरागत सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर स्वरूप अधिकांश ये नौले समुचित रख। रखाव न होने के कारण जलविहीन हो गए हैं और इन नौलों के माध्यम से आविर्भूत पुरातात्त्विक और सांस्कृतिक वैभव भी हमारी लापरवाही के कारण नष्ट होने के कगार पर है। पुरातत्व विभाग की उदासीनता के कारण भी नौलों की पुरातन जल संस्कृति आज बदहाली की स्थिति में है। ऐतिहासिक धरोहर स्वरूप इन नौलों की रक्षा करना और इन्हें संरक्षण देना क्षेत्रीय जनता और सरकार दोनों का साझा दायित्व है।
दरअसलए नौलों और गधेरों के जलस्रोतों के साथ हमारे उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति और लोक साहित्य के गहरे सांस्कृतिक स्रोत भी जुड़े हुए हैं। वर्त्तमान हालात में नौलों और जलधारों के सूखने का मतलब है एक जीवंत पर्वतीय जल संस्कृति का लुप्त हो जाना। इसलिए जल की समस्या महज एक उपभोक्तावादी समस्या नहीं बल्कि जल, जमीन और जंगलों के संरक्षण से जुड़ी एक पर्यावरणवादी समस्या भी है। हम यदि अपनी देवभूमि को हरित क्रांति से जोड़ना चाहते हैं तो हमें अपने पुराने नौलों, धारों, खालों, तालों आदि जलसंचयन के संसाधनों को पुनर्जीवित करना होगा। पारंपरिक जल। स्रोत यथा नोले, धारे, चाल, खाल बचाने की मुहिम जलसंचेतना की दिशा में अच्छी पहल हैण् बालेश्वर नौला में खास खूबी यह कि इसका पानी दूसरे नौलों की तरह अब तक कभी कम नहीं हुआ। जबर्दस्त तपिश और भीषण गर्मी से भी इसका जल स्तर कम नहीं हुआ। इसमें अब भी भरपूर पानी है। करीब चार फीट गहराई वाले इस नौले में जल संवर्द्धन को तमाम उपाय उठाए गए हैं।
नौले को गंदगी से बचाने के लिए खास उपाय किए गए हैं। लबालब भरे इस नौले से पानी निकालने के लिए एक विशेष बाल्टी है। इसी बाल्टी के जरिए दूसरे बर्तनों में पानी भरा जाता है। जल वितरण से पहले रोज नौले के जल से बालेश्वर में जलाभिषेक किया जाता है। बालेश्वर के इस नौले का पानी एकदम शुद्ध है। गंदगी से बचाने के लिए स्थानीय लोगों ने नौले में न केवल दरवाजा लगाया है, बल्कि दरवाजे में नियमित रूप से ताला भी लगाया जाता है। वर्ष 1975 का कुमाऊ गढ़वाल जल संचय संग्रह वितरण अधिनियम है, जो कहता है कि आप किसी भी जल स्त्रोत के 100 मिटर के अंदर कोई झाड़ी, पौधा, पेड़ नहीं काटेंगे। यानि आप ऐसी कोई कार्यवायी नहीं करेगे जिससे उस स्त्रोत को नुक्सान पहुंचता हो। जबकि कुमाऊ क्षेत्रा में ऐसा कोई नौला तलाशना आसान नहीं होगाए जिसका अतिक्रमण नहीं हुआ हो। इस पूरी प्रक्रिया में सरकार की भूमिका नेतृत्व की नहीं बल्कि एक सहयोगी की होनी चाहिए।

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