डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
सांस्कृतिक नगरी के नाम से विख्यात अल्मोड़ा शहर को यदि पटाल का शहर कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उत्तराखंड प्रदेश का पर्वतीय क्षेत्र शिल्प कला के लिए काफी प्रसिद्ध है। करीब बारह सौ साल पहले प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी अल्मोड़ा में एक ऐसे ही शिल्प ने जन्म लिया जिसे हम आज पटाल संस्कृति के नाम से जानते हैं। मुख्य बाजार हो या मोहल्ले मकान की ढालू छत का निर्माण पटालों से किया जाता था। आंगन में पटाल, प्रवेश मार्ग में पटालए मकान की खिड़कियों व दरवाजों के ऊपर पटाल, कमोबेश हर जगह पटाल अपनी रौनक बिखेरते थे। मकान और पैदल मार्ग ही नहीं बल्कि प्राचीन मंदिर भी इन पटालों से अछूते नहीं रहे। इस दौर अल्मोड़ा नगर का केवल डेढ़ किमी लंबा बाजार पटालों से ऐसा पटा कि अल्मोड़ा का बाजार ही पटाल बाजार के नाम से प्रसिद्ध हो गया। सदियों पुरानी यह पटाल बाजार ब्रिटिश हुकूमत की भी गवाह रही। चंद राजाओं ने पटालों का काफी मात्रा में प्रयोग किया और इस संस्कृति को आगे बढ़ाने का काम किया। जिस कारण पुराने दौर में भी पटाल यहां के जनजीवन का अभिन्न अंग बन गए थे। मकान, पैदल मार्ग, मंदिर, आंगन ही नहीं बल्कि उस दौर में प्राकृतिक जल स्रोतों और नौलों के निर्माण में भी पटालों का ही प्रयोग किया जाता था। क्योंकि भूमि में पानी के रिचार्ज के लिए इनकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती थी। धीरे धीरे भले ही समय बदलता चला गया तो आधुनिकता के दौर में पटालों का स्थान ईंट सीमेंट, रेता, बजरी और सरिया ने ले लिया हो। लेकिन अल्मोड़ा में पटाल संस्कृति की दीदार आज भी किया जा सकता है।
पटाल संस्कृति की महत्ता को इसी से समझा जा सकता है कि अगर जहन में पटालों वाले किसी शहर का नाम आए तो वह अल्मोड़ा के अलावा और कोई नहीं हो सकता। मध्य हिमालय के काषाण पर्वत की पीठ पर बसा प्राचीन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नगर अल्मोड़ा अपनी खूबियों के लिए देश ही नहीं बल्कि विदेशों में खासा मशहूर है। इस शहर की विशिष्टताओं में एक है यहां की पटाल संस्कृति। ऐसा माना जाता है कि कुमाऊं अंचल में इस कला का आगाज कत्यूरघाटी से हुआ था। लेकिन अल्मोड़ा शहर ने इस कला को इस तरह स्वीकार किया कि यह शहर पटालों के नाम से मशहूर हो गया था। अल्मोड़ा जिला पटालों का अकूत भंडार था। यहां करीब आधा दर्जन से अधिक स्थानों पर काफी आसानी से बेहतर पटाल उपलब्ध हो जाती थी। जिले के बल्ढोंटी, पेटशाल, सल्ट, द्वाराहाट, गंगोली, क्वारब जैसे अन्य अनेक स्थानों पर जंगलों में काफी मात्रा में पटाल पाई जाती थी। जहां इन्हें खास तकनीक के माध्यम से लंबी और चौड़ी स्लेटों के रूप में निकाला जाता था। जिनकी लंबाई और चौड़ाई काफी हुआ करती थी। मोटाई में यह करीब एक से तीन इंच के हुआ करते थे। इन क्षेत्रों से लोग आसानी से पटाल प्राप्त करते थे और फिर इन्हीं से हर प्रकार का निर्माण कार्य पूरा किया जाता था।
आज से करीब बारह सौ साल पहले पटाल संस्कृति के अस्तित्व में आने के बाद पर्वतीय क्षेत्रों के पटाल शिल्पियों को यहां रोजगार का बेहतर माध्यम मिला। सदियों तक यहां पटाल शिल्पियों ने अपने हुनर को इन पटालों में तराशा और यहीं कार्य उनकी कई पुश्तों के लिए रोजी रोटी का माध्यम बन गया। आज भले की पटाल शिल्पियों को आधुनिक तकनीक से अपने इस रोजगार से हाथ धोना पड़ा हो लेकिन एक दौर वह भी था कि पटाल शिल्पियों के सामने कोई और टिकता नहीं था। लेकिन बाद में खनिज परिहार नियमावली एवं अधिनियम 2007, भारतीय वन अधिनियम 1927, वन संरक्षण अधिनियम 1980, माइंस एवं मिनरल्स रेगुलेशन जैसे अधिनियम आड़े आए तो खानों से पटालों का दोहन मुश्किल होता चला गया। जिससे इस संस्कृति में एक जगह ठहराव सा भी आ गया। निर्माण कार्य की आज भले ही क्यों ना नित नई तकनीक सामने आ रही हों। लेकिन पटाल की खूबियों का आज भी कोई जवाब नहीं है। जानकारों की मानें तो पहाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों में लकड़ी और पत्थर के मकान काफी उपयुक्त हैं, जिनमें पटाल का खास महत्व रहा है। जबकि इसके अलावा पटाल टिकाऊ और मजबूत होने के साथ ही हर मौसम में अनुकूल तासीर देने वाले भी होते हैं। जिस कारण वह स्वास्थ्य के लिए भी लाभप्रद मानें गए हैं। टूटफूट होने पर पटालों को आसानी से बदला जा सकता है। इसके साथ ही पटाल जल संरक्षण के लिए भी अनुकूल होते हैं। पटालों के जोड़ों से बरसात का पानी पहले धरती में समाता है, जिससे जमीन में पानी रिचार्ज होता है। पटाल की सबसे बड़ी खूबी यह भी है कि भूकंप जैसी आपदा में पटाल भवनों को मजबूती भी प्रदान करती है।
पहाड़ की अनूठी पटाल संस्कृति इतनी बेजोड़ है कि आज भी शहर के कई मोहल्लों में पटाल से बने ढाई सौ साल पुराने भवन कई संयुक्त परिवारों का आशियाना बने हुए हैं। आज भले ही नगर का अधिकांश इलाका कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होता जा रहा हो लेकिन पटान से बने भवनों का दबदबा आज भी नगर में कायम है। नगर के चीनाखान, मल्ला जोशी खोला, तल्ला जोशी खोला, पांडेखोला, दुगालखोला, तल्ला मल्ला दन्या, डुबकिया, चौंसार, कर्नाटकखोला, गुरुरानीखोला, बख्शीखोला आदि मोहल्लों में पुरानी शैली के पटाल के भवन इस संस्कृति को संजो कर रखने में अपनी अहम भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। पुरातत्व इकाई, अल्मोड़ा ने बताया कि पर्वतीय क्षेत्रों में पटाल संस्कृति स्वयं में अद्वितीय रही है। यह संस्कृति सांस्कृतिक और प्राचीन होने से ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि रहन सहन, सुरक्षा और जल संरक्षण की दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण है। अल्मोड़ा की पटाल संस्कृति आज भी यहां की पहचान है। मगर विडंबना कि 9वीं.10वीं सदी के बीच बने सर्वप्रमुख मंदिरों व कुछेक भवनों में अद्भुत कला की बानगी तो मिलती है, लेकिन ब्रितानी दौर का गवाह एतिहासिक पटाल मार्केट अनियोजित विकास व अवैज्ञानिक सोच से खुद इतिहास बन गया है।
बरसों पुरानी सांस्कृतिक धरोहर की जगह ले चुका कोटा स्टोन पर्यटकों व नागरिकों को गुम हुई पटाल संस्कृति की याद दिलाता है। ऐसे में इसके संरक्षण के लिए प्रयास करने की जरूरत महसूस की जाती रही है। इस संस्कृति को बचाने के लिए जो भी प्रयास संभव हो सकेंगे किए जाएंगे। इसके लिए लोगों को भी जागरूक किया जाएगा। कुमाऊं मंडल में सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में पल्टन बाजार से मिलन चौक तक करीब एक किमी लंबा पटाल बाजार है। नगर की स्थापना के समय से ही इस बाजार में स्थानीय खानों के निकलने वाले पत्थर की पटालें बिछाई गई थीं। इस मार्ग पर वाहन नहीं चलते हैं।पूर्व में कई स्थानों पर यह पटालें टूटकर खराब हो गई थीं। पालिका परिषद ने लगभग डेढ़ दशक पहले बाजार में स्थानीय पटालों को हटाकर कोटा स्टोन बिछा दिया था।बाजार में कोटा स्टोन में कई बार लोग फिसलकर चोटिल भी हो चुके हैं। पालिका परिषद ने कोटा स्टोन की पटाल को हालांकि खुरदरा जरूर किया है, लेकिन अब कई स्थानों पर कोटा स्टोन की पटालें भी टूट गई हैं। लंबे समय से लोग मुख्य बाजार में कोटा स्टोन के स्थान पर स्थानीय पत्थरों की पटाल भी बिछाने की मांग करते आ रहे हैं। 2013 को भारत रत्न पंण् गोविंद बल्लभ पंत जयंती कार्यक्रम में खूंट पहुंचे तत्कालीन मुख्यमंत्री ने स्थानीय पटालें बिछाने की घोषणा की थी, परंतु अब तक स्थानीय पटालें मुख्य बाजार में नहीं बिछाई जा सकी हैं। ऐसी एतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करने की जरूरत है। आज के दौर में पटाल आधारित शिल्पकला कठिन भी हो चुकी है। यही वजह है जो भवन अथवा घरों में पटालों की छत है, उनका जीर्णोद्धार नामुमकिन है। यही वजह है पहाड़ में पटाल संस्कृति विलुप्त होती जा रही है। पुरानी धरोहर का संरक्षण बेहद जरूरी है ताकि आने वाली पीढ़ी को एतिहासिक चीजों से रूबरू कराया जा सके। पटाल भी उतने ही महत्वपूर्ण जितने मंदिर। मगर अफसोस पृथक उत्तराखंड में एतिहासिक सांस्कृतिक धरोहर विकास की भेंट चढ़ गई पहाड़ में जहां कभी भी एतिहासिक धार्मिक स्थल, भवन आदि पटाल लगे हैं, उन्हें संजोकर रखना सभी का दायित्व है।