शंकर सिंह भाटिया
उत्तराखंड आंदोलन के साथ लोग किस कदर भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे, इसका एक उदाहरण बीएल सकलानी थे। वे आंदोलन की हर एक गतिविधि में शामिल होते थे और आंदोलन से संबंधित हर एक लेख, कतरन, फोटो का संकलन भी करते जा रहे थे। राजपुर स्थित उनके आवास में उनका यह संकलन कब एक विषद संग्रहालय बन गया उन्हें भी इसका आभास काफी देर बाद हुआ। जब उन्हें इसका आभास हुआ तो उत्तराखंड राज्य का उदय हो चुका था। उन्होंने सोचा अब तो अपना राज्य बन गया है, इस संग्रहालय को वह सुरक्षित हाथों में सौंपकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएंगे, लेकिन वह गलत सोच रहे थे, बीस साल बाद भी जब सरकारों ने उनकी वाजिब मांग पर कान नहीं दिया तो उन्होंने दो दिन पहले आत्मघाती कदम उठाने की ठान ली। उन्होंने देहरादून कचहरी स्थित शहीद स्थल के कक्ष में खुद को बंद कर आत्महत्या करने की कोशिश की। किसी तरह पुलिस उन्हें ऐसा करने से रोकने में सफल रही।
बीएल सकलानी की मांगें क्या थी? उनकी पहली मांग थी-उनके संग्रहालय को सरकार हस्तगत करे और दूसरी-उत्तराखंड आंदोलन को राज्य के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। क्या उनकी दो मांगों में से कोई भी गलत थी? निजी स्वार्थ तथा व्यक्तिगत लाभ लेने के लिए की गई थी? निश्चित तौर पर उनके जैसा संकलन किसी सरकारी संस्थान द्वारा संकलित करना संभव ही नहीं था। उन्होंने इतनी मेहनत से इसे संकलित कर एक अद्वितीय संग्रह जोड़ा था। जिसको सुरक्षित रख पाना अब उनके बस में नहीं था। दिन प्रतिदिन अखबारों की कटिंग, करतनें, फोटो और अन्य सामग्री क्षरित होती जा रही थी। उन्होंने जिस मेहनत से इसे संकलित किया था, उन करतनों का एक-एक क्षरण उनकी आत्मा को कचोट रहा था। जब उत्तराखंड की किसी भी सरकार ने उनकी नहीं सुनी तो इन बीस सालों में निराश होकर उन्होंने आत्मदाह जैसे आत्मघाती कदम तक जाने की सोच ली। उनकी अंतरात्मा की चोट इतनी गहरी थी कि इस घटनाक्रम के दो दिन के अंदर उन्होंने इस दुनिया को ही अलविदा कह दिया।
जरा सोचिये उत्तराखंड आंदोलन के वह दृश्य जब लोग राज्य प्राप्ति के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार थे। इन बीस सालों में राज्य की लड़ाई सिद्दत से लड़ने वाले लोगों का क्या हश्र हुआ है? जिसने जन्म लिया है, सभी को एक दिन जाना है, लेकिन उत्तराखंड की लड़ाई लड़ने वाले आंदोलनकारियों को इसी तरह से आत्मग्लानि से मरते हुए हमने देखा है। यह सिर्फ बीएल सकलानी का ही सवाल नहीं है, इन बीस सालों में उन एक-एक आंदोलनकारियों को देख लीजिये उन्हें हमने इसी तरह दिल पर बहुत बड़ा भार लेजाकर इस दुनिया से विदा होते हुए देखा है।
यह इस उत्तराखंड राज्य का विदू्रप है। जिस-जिसने इस राज्य के लिए इमादारी से लड़ाई लड़ी, अपना सबकुछ आंदोलन में झौंक दिया, उनकी वाजिब मांगें भी सुनने वाला कोई नहीं है। जो आंदोलन की लड़ाई में कहीं नहीं थे, सत्ता उनके हाथों में है। वही सत्ता सुख भाग रहे हैं। फिर वे आंदोलन लड़ने वालों की भावना को कैसे समझ सकते हैं। यह उत्तराखंड की स्याह सच्चाई है, दुर्भाग्यपूर्ण है।
सवाल उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? जिनकी राज्य की लड़ाई में कोई भागीदारी नहीं थी, लेकिन उन्होंने सत्ता सुख भोगा, इस राज्य के वे अपराधी हैं, लेकिन उनसे भी बड़े अपराधी वे हैं, जिन्होंने इस राज्य की लड़ाई का नेतृत्व किया। अपने निजी स्वार्थों के बशीभूत अपने राजनीतिक संगठन को मजबूत नहीं किया। चुनावी राजनीति में मजबूती से खड़े होने के बजाय निजी स्वार्थ के लिए कुछ कांगे्रस के और कुछ बीजेपी की आड़ में खड़े होने लगे। जनता सबकुछ जानती है, जब आप संघर्ष का रास्ता अपनाने के बजाय निहित स्वार्थ के लिए राज्य विरोधियों के साथ गुपचुप गठजोड़ करते हुए दिखाई देते हैं, जनता आपको समर्थन कैसे दे सकती है? इसलिए राज्य के सबसे बड़े अपराधी यही लोग हैं। इनके अपराध तभी माफ हो सकते हैं, जब ये इमानदारी से संघर्ष करने के लिए आगे आएं।