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आधुनिक तरीके से खेती कर बचाई जा सकती है पहाड़ कृषि

05/07/20
in उत्तराखंड, संस्कृति
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पिपरमिंट वैज्ञानिक नाम . मेंथा.पिपरिता एक शंकर प्रजाति का मिंट है जो मेंथा एक्वेटिका और मेंथा स्पिकाटा का शंकर करके बना है। यह यूरोपीय पौधा है जो अब विश्व के अनेक देशों में पैदा किया जाता है। भारत पिपरमिंट का प्रमुख उत्पादक देश बन गया है। मेन्था यानी पुदीना की खेती का पुराना इतिहास रहा है। मिस्त्र से लेकर चीन के साहित्य में इसका उल्लेख मिलता है। भारत में भी बड़े पैमाने पर इसकी खेती की जाती है। कश्मीर, पंजाब, कुमाऊँ, गढ़वाल और पश्चिमी हिमालय के क्षेत्रों में पुदीना बहुतायत में उगाया जाता है। आजकल इसकी दो प्रजातियां अधिक प्रचलन में हैं मेंथा पिपरीटा इसे हिंदी में विलायती पुदीना कहते हैं क्योंकि इसे अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों में उगाया जाता है। मेंथाआर्वेंसिस इसे जापानी पुदीना के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत के अलावा ब्राजील, जापान, चीन, पूर्वी एशिया के देशों में उगाया जाता है।
भारत में पुदीना की व्यावसायिक खेती लगभग तीन दशकों से की जा रही है। इनमें जापानी पुदीना का स्थान सर्वोपरि है। इसमें 65 से 75 प्रतिशत मेंथॉल पाया जाता है। वर्तमान में उत्तरप्रदेश इसका सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी इसकी पैदावार होती है। पुदीना से प्राप्त सुगंधित तेल और इसमें पाए जाने वाले अवयवों का उपयोग व्यापक रूप से सौंदर्य प्रसाधनों, विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों सुगंधित करने, मेंथॉल बनाने, टॉफी बनाने, पान के मसालों को सुगंधित करने, खांसी, सर्दी .जुकाम, कमर दर्द के लिए मलहम बनाने और गर्मियों में पेय पदार्थ निर्माण आदि के लिए विश्व भर में उपयोग किया जाता है। चालू सीजन यानी 2019-20 सीजन जून.मई में मेंथा ऑयल का उत्पादन काफी ज्यादा रहा। बाजार के सूत्रों का कहना है कि 2019-20 में उत्पादन लगभग 48,000-50,000 टन मेंथा ऑयल का उत्पादन हुआ था।
देश में पैदा होने वाला लगभग 75 फीसदी मेंथा ऑयल का निर्यात किया जाता है। इसलिए घरेलू से ज्यादा विदेशी मांग कीमतों को तय करने में बड़ी भूमिका निभाती है। वर्तमान में मेंथा ऑयल के भाव 1200 से 1400 रुपए प्रति किलो के बीच चल रहे हैं। जो कि उत्पादन लागत के दोगुना से अधिक है। एक हेक्टेयर मेंथा की फसल से लगभग 150 किलो तेल प्राप्त हो जाता है यदि अच्छे से प्रबंधन किया जाए और समय से रोपाई हुई हो तो 200 से 250 किलो तेल प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाता है। केंद्र सरकार 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने के प्रयास में है। इसके लिए सरकार समय.समय पर कर्जमाफीए ऋण योजनाएंए सस्ते खाद.बीज आदि जैसे कई उपाय कर रही है। समय के साथ.साथ किसान भी जागरूक हुए हैं और अब परंपरागत फसलों के स्थान पर नकदी की फसल को भी प्रमुखता देने लगे हैं। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान पहाड़ के हर व्यक्ति की जुबां पर यही नारा था। लेकिनए राज्य गठन के 19वर्षों बाद प्रदेश में कोदा.झंगोरा मिलना किस कदर मुश्किल हो चला है, यह बात महिला और बाल विकास परियोजना से जुड़े विभिन्न समूहों से बेहतर कौन जान सकता है।
असल में शासन ने प्रदेश के आंगनबाड़ी केंद्रों में दिए जाने वाले टेक.होम राशन की सूची में संशोधन कर कोदा मंडुवा और झंगोरा के साथ ही गहथ और काला भट जैसी स्थानीय दालों को अनिवार्य कर दिया है। यही आदेश अब योजना के संचालन में गले की फांस बन रहा है। तमाम प्रयासों के बावजूद समूह पर्याप्त मात्रा में इन उत्पादों का इंतजाम नहीं कर पा रहे हैं। उत्तराखंड राज्य के पहाड़ी क्षेत्र में मंडुआ, कोदो, भट और गहत जैसी फसल आज अंतिम साँस ले रही है। उत्तराखण्ड मे बागवानी, बे.मौसमी सब्जियों, फूलों की खेती, औषधीय और सुगंधित पौधों की फसलों की आपर संभावनाएं है बंजर और उबड.खाबड़ भूमि आड़ू, नाशपाती और खुमानी जैसे फलों के लिए समर्पित हैं।
इन तमाम चीजों को ध्यान में रखते हुए कुछ संगठनों ने पहाड़ के लोगों को आधुनिक खेती की तरफ आकर्षित करने की शुरूआत की ताकि किसी भी हाल में पहाड़ के उत्पादों को बचाया जा सकें। इस कड़ी में राष्ट्रीय उत्तरखण्ड सभा भारत द्वारा राज्य के में आधुनिक कृषि उपकरणों के बारे में ग्रामीणों को जानकारी दी गई। ताकि पहाड़ पर खेती की मात्रा को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जा सकें। राष्ट्रीय उत्तराखंड सभा भारत के तत्वाधान में कृषि, स्वरोज़गार, स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर आधारित बहुउद्देशीय सुविधा शिविर तथा आज के समय में आधुनिक खेती के माध्मय से पहाड़ में खेती को बचाने की बहुत आवश्यकता है। इस दिशा में सरकार निरंतर प्रयासरत है। शुरुआती दौर में टेक.होम राशन में कोदा.झंगोरा जैसे उत्पाद नहीं थे, लेकिन अब शासन ने कोदा.झंगोरा के साथ ही गहथ और काला भट जैसी स्थानीय दालों को भी टेक.होम राशन में अनिवार्य कर दिया है। पिछले दिनों शासन की ओर से इस संबंध में आदेश भी जारी कर दिया गया। मुझे लगता हैं कि इससे हम पहाड़ के उत्पादों को बचा भी सकते है और अपने उत्पादों के लिए बाजार भी बना सकते है। ताकि पहाड़ पर खेती की मात्रा को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जा सकें।

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