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खटीमा गोलीकांड को पूरे हुए 25 साल

01/09/20
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पृथक उत्तराखंड राज्य के लिए जब आन्दोलन चल रहा था, तब अक्सर हम कहा करते थे कि उत्तराखंड के लोग देश के तमाम उच्च पदों पर हैं। वे वैज्ञानिक हैं, अर्थशास्त्री हैं, समाज शास्त्री हैं, टॉप ब्यूरोक्रेट हैं, रक्षा सेनाओं के शीर्ष पर तैनात हैं। राजधानी दिल्ली के बौद्धिक हलकों में उन दिनों पर्वतीय लोगों की धाक हुआ करती थी। बड़ी संख्या में लोग पत्रकारिता में थे। लोग अक्सर सवाल किया करते कि आप लोग कैसे चलाएंगे सरकार ? आपके पास क्या है हम लोग कहते कि हमारे पास बौद्धिक मेधा है। लोग अच्छे, कर्मठ और योग्य होंगे तो खुद अपना रास्ता बना लेंगे। खटीमा गोलीकांड को आज 25 साल पूरे हो गए है।
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण में अपने प्राणों की आहुति देने वाले राज्य आंदोलनकारियों के बलिदान का सम्मान और शहीद आंदोलनकारियों के सपनों के अनुरूप समृद्ध और प्रगतिशील उत्तराखंड बनाने के हम लिए संकल्पबद्ध है। सन् 1969 तक देहरादून को छोड़कर उत्तराखण्ड के सभी जिले कुमाऊँ मण्डल के अधीन थे। सन् 1969 में गढ़वाल मण्डल की स्थापना की गयी जिसका मुख्यालय पौड़ी बनाया गया। सन् 1975 में देहरादून जिले को जो मेरठ प्रमण्डल में सम्मिलित था, गढ़वाल मण्डल में सम्मिलित कर लिया गया। इससे गढ़वाल मण्डल में जिलों की संख्या पाँच हो गयी। कुमाऊँ मण्डल में नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, तीन जिले सम्मिलित थे। सन् 1994 में उधमसिंह नगर और सन् 1997 में रुद्रप्रयाग, चम्पावत व बागेश्वर जिलों का गठन होने पर उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डलों में छः.छः जिले सम्मिलित थे। उत्तराखण्ड राज्य में हरिद्वार जनपद के सम्मिलित किये जाने के पश्चात गढ़वाल मण्डल में सात और कुमाऊँ मण्डल में छः जिले सम्मिलित हैं। 1 जनवरी 2007 से राज्य का नाम उत्तरांचल से बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया है।१ सितम्बर, १९९४ को उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का काला दिवस माना जाता है, क्योंकि इस दिन जैसी पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्यवाही इससे पहले कहीं और देखने को नहीं मिली थी। पुलिस द्वारा बिना चेतावनी दिए ही आन्दोलनकारियों के ऊपर अंधाधुंध फ़ायरिंग की गईए जिसके परिणामस्वरुप सात आन्दोलनकारियों की मृत्यु हो गई। खटीमा गोलीकाण्ड में मारे गए शहीद अमर शहीद स्व० भगवान सिंह सिरौला, ग्राम श्रीपुर बिछुवा, खटीमा अमर शहीद स्व० प्रताप सिंह, खटीमा अमर शहीद स्व० सलीम अहमद, खटीमा अमर शहीद स्व० गोपीचन्द, ग्राम रतनपुर फुलैया, खटीमा अमर शहीद स्व० धर्मानन्द भट्ट, ग्राम अमरकलाँ, खटीमा अमर शहीद स्व० परमजीत सिंह, राजीवनगर, खटीमा अमर शहीद स्व० रामपाल, बरेली इस पुलिस फायरिंग में बिचपुरी निवासी श्री बहादुर सिंह और श्रीपुर बिछुवा निवासी श्री पूरन चन्द भी गम्भीर रूप से घायल हुए थे।
साल 1994 में अगस्त व सितंबर का महीना था जब कई आन्दोलनकारी आजादी से पूर्व प्रताप बोरा जी के गीत.
हिटो हो ददा भुलियो आज कसम खोंला।
हम अपनी जान तक राज्यां.देंशा लिजी द्यौंला।
यो माटी मां पायी पोसी बैं हम हयां जवाना।
यो माटी मां मिली जाणों छु हम तुमलें निदाना।
रणभूमि में उई मरनी जैल करा दाना। और हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है। अंधेरों से मत लड़ो व पृथक राज्य की आवाजें भी जोर.शोर से सुनाई पड़ने लगी।
इस आंदोलन ने राज्य गठन की भूमिका तैयार कीए सपने देखने की मासूम सी इच्छा को जन्म दिया और इन सपनों को हकीकत में बदलने का उत्साह और साहस दिया। यह आंदोलन ही थाए जिसमेें राज्य ने अपनी मातृ शक्ति की ताकत का अहसास किया और युवाओं के उत्साह को स्वीकार किया। वर्ष 2000 से शुरू हुई यह यात्रा अब 20 साल का सफर पूरा कर चुका है। इस सफर में उत्तराखंड कभी तनकर खड़ा हुआ और कभी टूट.बिखर कर फिर उठ खड़ा हुआ। राज्य ने वर्ष 2000 में 14.5 हजार करोड़ रुपये की अर्थव्यवस्था से 2.5 लाख करोड़ रुपये तक की अर्थव्यवस्था तक छलांग लगाई। शून्य से शुरू होकर उद्योगों का 50 हजार करोड़ रुपये का साम्राज्य खड़ा किया। मात्र 50 हजार युवाओं को रोजगार देने की क्षमता वाला राज्य इन 19 सालों में तीन लाख से अधिक युवाओं को सिर्फ उद्योगों में रोजगार देने वाला राज्य बना। अब 1.24 लाख करोड़ का निवेश प्रस्तावित है और तीन लाख युवाओं के लिए रोजगार का दावा है।
इस बीच चुनौतियां भी सामने आईं। सरकारा ने पांच सालों का कार्यकाल पूरा किया। लेकिन बार.बार नेतृत्व परिवर्तन के बीचए राष्ट्रपति शासन का सामना भी किया। पलायन का दंश पहले जितना थाए उससे कहीं अधिक पहुंच गया। 2013 की केदारनाथ आपदा का दंश सहा और उससे उबरा। अब चुनौती है भूतहा गांवों को फिर बसाने कीए युवाओं को अधिक सक्षम बनाने की और उनके मजबूत हाथों को काम सौंपने कीए मातृ शक्ति की ताकत को पहचाने और उसके सही दिशा में उपयोग की। पर्वतीय क्षेत्र और मैदानी क्षेत्रों के बीच की विषमता की खाई को कम करना।गांवों से हो रहे पलायन को रोकना और उन्हें फिर से आबाद करना। मौसम के बदलाव का सामना करने को कारगर रणनीति पर काम करना राज्य के बजट का बेहतर प्रबंधन, सरकारी खर्च पर अंकुश और राजस्व के स्रोत बढ़ाना। पर्वतीय और मैदानी इलाकों के दुर्गम क्षेत्रों में बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य की व्यवस्था करना। लोगो की भावनाओं के अनुरूप स्थायी राजधानी की तलाश। शहीद हुए आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की बातें करते रहे हैं। लेकिन जिन मोर्चों पर न्याय की इस लड़ाई को असल में लड़ा जाना था, वहां आंदोलनकारियों की मजबूत पैरवी करने वाला कभी कोई रहा ही नहीं। नतीजा यह हुआ कि न्यायालयों से लगभग सभी मामले एक.एक कर समाप्त होते चले गए और दोषी भी बरी हो गए। बेहद गिने.चुने जो मामले आज भी न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें भी यह उम्मीद अब न के बराबर ही बची है कि दोषियों को कभी सजा हो सकेगीण्जब सत्याग्रह ने न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते 25 सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है।

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