डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड लगातार जल संकट की ओर बढ़ रहा है। मोटे अनुमान के अनुसार पूरे उत्तराखंड में 510 प्राकृतिक जल स्रोत ऐसे हैं, जो या तो सूख चुके हैं या सूखने के कगार पर हैं। कभी नौले-धारों की नगरी के रूप में पहचान रखने वाले अल्मोड़ा में तो 360 जल स्रोतों में से मात्र साठ ही जीवित हैं। इनमें भी मात्र 18 जल स्रोत ही कमोबेश बेहतर स्थिति में हैं। यह एक खतरनाक संकेत है जिसने नीति.नियंताओं की चिंता बढ़ा दी है। 71 फीसदी वन क्षेत्रफल वाले हिमालयी राज्य उत्तराखंड में पूजी जाने वाली गंगा, यमुना समेत दर्जनों नदियों का उद्गम स्थल है, लेकिन चिंताजनक बात यह है कि राज्य में भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अनुसार उत्तराखंड में जलस्रोतों के जल स्तर में साठ फ़ीसदी कमी आई है। रिपेार्ट यह भी खुलासा करती है कि अल्मोड़ा जिले में 300 प्राकृतिक जल स्रोत पूरी तरह सूख चुके हैं। दूसरी ओर उत्तराखंड वन विभाग ने मोटे तौर पर 221 तो जल संस्थान ने 510 जल स्रोत ऐसे चिन्हित किए हैं, जिन पर संकट मंडरा रहा है।
उत्तराखंड में देर से ही सही इस स्थिति को और ख़राब होने से रोकने की दिशा में पहल शुरू हो गई है। वन विभाग के नेतृत्व में जलस्रोत प्रबंधन कमेटी बनाकर जल प्रबंधन पर काम कर रहे सभी विभाग और एनजीओ एक बैनर के नीचे आए हैं। प्राकृतिक जल स्रोतों के संरक्षण के लिए सरकारी, गैर सरकारी स्तर पर प्रयास तो दशकों से चल रहे हैं, लेकिन समन्वय और तकनीक के अभाव में अब तक ठोस परिणाम नहीं निकल पाया। स्थिति यह है कि उत्तराखंड में कुल जल स्रोतों का कोई ठोस आंकड़ा अभी तक मौजूद नहीं है। अब कई विभागों और एनजीओ के साथ आने से उम्मीद की जानी चाहिए कि मृत पड़े नौले.धाराओं में एक बार फिर जीवन लौट आएगा।
उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के बीच उत्तराखंड के अलग प्रदेश बनने के बाद से लंबित विभिन्न संपत्तियों के बंटवारे को भी सुलझाने गंगा और यमुना को एक जीवित मानव की तरह का कानूनी दर्जा देते हुए अदालत ने नमामि गंगे मिशन के निदेशक, उत्तराखंड के मुख्य सचिव और उत्तराखंड के महाधिवक्ता को नदियों के कानूनी अभिभावक होने के निर्देश दिये हैं और उन्हे गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियों की सुरक्षा करने और उनके संरक्षण के लिये एक मानवीय चेहरे की तरह कार्य करने को कहा है। ये अधिकारी गंगा और यमुना के जीवित मानव के दर्जे को बरकरार रखने तथा इन नदियों के स्वास्थ्य और कुशलता को बढावा देने के लिये बाध्य होंगे। गंगा.यमुना का मायका उत्तराखंड प्यासा है। पहाड़ में एक कहावत है कि पहाड़ का पानी और जवानी यहां के काम नहीं आते लेकिन सरकारें इसे बदलने को आतुर है।
उत्तराखंड में नदियों, नालों, जलस्रोतों की संख्या करीब एक हजार से अधिक हैं, जो यहां से निकलकर सुदूर मैदानी इलाकों को सिंचती हैं, वहीं, प्रशासन की अनदेखी और व्याप्त भ्रटाचार की वजह से राज्य के कई जिलों में जल संकट गहरा गया है। पर्वतीय राज्य में गर्मियां आते ही लोगों को पानी के लिए दर.ब.दर भटकना पड़ रहा है। साल दर साल जनसंख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है लेकिन प्रति व्यक्ति प्रति लीटर जल में कमी होती जा रही है। इसका कारण कुप्रबंधन तथा अव्यवस्था है। पूरे प्रदेश में स्थिति प्रति वर्ष एक जैसी ही होती है। इस बार भी कोई अंतर आता नहीं दिख रहा है। प्रधानमंत्री ने कहा था कि वे पहाड़ के पानी और जवानी दोनों को पहाड़ के काम आने की योजनाएं क्रियान्वित करेंगे। पूरे प्रदेश की स्थिति देखी जाए तो कुमाऊं के नाले और जलधारा विश्व प्रसिद्ध थे।
सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा मुख्यालय में लगभग सभी इलाकों में पानी की किल्लत है और इसकी वजह यह है कि पिछले 30 साल से पुरानी पाइप लाइनों को बदला नहीं गया है जोरदार अभियान चलाया तथा पेयजल की किल्लत को दूर करने का काफी प्रयास किया है लेकिन जनसंख्या घनत्व पर यह प्रभाव आज भी नाकाफी है। टिहरी झील से सटे क्षेत्रों में पेयजल की भारी कमी है। इसका कारण प्राकृतिक जलस्त्रोतों का सूखना है। जल स्रोतों के सूखने के कारणों में वनों का लगातार कटान, मुनाफाखोरी के लिए पहाड़ों के कटान में बारूद का प्रयोग होना है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से पानी की कमी बढ़ी हैं। राज्य बनने के बाद से तेज और अनियोजित निर्माण योजनाओं की वजह से पहाड़ के प्राकृतिक जल स्रोतों को बड़ा नुकसान हुआ है। स्थानीय निवासी भी प्राकृतिक जल स्रोतों के सरंक्षण के प्रति लापरवाह हुए हैं। ऐसे में पानी के गहराते संकट की वजह से आबादी का बोझ मैदानी इलाकों पर बढ़ रहा है और वहां भी जल संकट बढ़ रहा है। पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक जलस्रोतों के ऊपर तालाब होते थे, जो स्थानीय भाषा में खाल कहलाते थे। यद्यपि भूगर्भीय गहराई वाली इन संरचनाओं में बरसाती पानी जमा होता था, लेकिन उनके नीचे के पर्वतीय जलस्रोतों में लगातार या ज्यादा समय तक पानी देने की संभावनाएं बनी रहती थीं। खालों की महत्ता इसी बात से समझी जा सकती है कि उत्तराखंड में कई स्थलों के अंत में खाल जुड़ा होता है। लेकिन इन पारंपरिक खालों पर या तो बस्तियां बस गईं या वे सूख गए हैं। किसी भी पहाड़ी पेयजल संग्रहण क्षेत्र का रख-रखाव महत्वपूर्ण है, ताकि बरसाती जल भीतर ही भीतर स्रोत तक पहुंचे।
इसमें वानस्पतिक आवरण की वृद्धि के साथ ही यह भी देखना होता है कि इन क्षेत्रों में चुगान नियंत्रित रहे।दरअसलए नए राज्य के गठन के बाद शहरीकरण तेजी से बढ़ा है। राज्य में निर्माण कार्य बढ़े हैं, इससे भी जल संकट गहराया है। सहायक नदियों.नालों में कूड़े.कचरों, प्लास्टिकों के जमा होने और सड़कों के विस्तार ने भी पानी का संकट बढ़ाया है। असल में, सड़कों पर कोलतार.सीमेंट की मोटी परतों से भी जल भंडारों में पानी पहुंचने में दिक्कत आई है। इन स्थितियों से बचने के लिए हमें हिमनदी के आस.पास हर प्रकार की मानवीय गतिविधि को रोकना होगा।
वातावरण और धरती की सतह पर नमी बनी रहे, यह जल समस्या से निपटने का मूलमंत्र है। आम नागरिकों व सरकार को यह समझना होगा कि पाइप, बिजली या पंप पानी नहीं देते हैं। पानी केवल जल स्रोत देते हैं। प्रकृति देती है। जल जलचक्र में प्रवाहित होता है और ऊपर उड़ा हुआ पानी ही फिर जमीन पर लौटता है। इसलिए हमें बूंद.बूंद सहेजने की आदत डालनी चाहिए।












