डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के हर जिले की अपनी खासियत और एक अलग पहचान है। चंपावत जिले उन्हीं में से एक है। महाभारतकालीन धार्मिक स्थलों और कत्यूरी.चंद शासकों के बनाए मंदिर, धर्मशाला, सराय, नौले और बिरखम जैसे अनगिनत सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धार्मिक धरोहरो की पूंजी को समेटे हुए है। मंदिरों की नगरी कहे जाने वाले द्वाराहाट के समान चंपावत, कुमाऊं का ऐसा क्षेत्र है जिसमें बहुत ही कम दूरी पर 11वीं से लेकर 14वीं सदी के मंदिर विद्यमान हैं। तारकेश्वर, क्रांतेश्वर, कपलेश्वर, सिट्यूड़ा.जूप.मादली के शिव मंदिर, चैकुनी शिव मंदिर, बालेश्वर, मानेश्वर, डिप्टेश्वर, हरेश्वर, मल्लाड़ेश्वर, मोनेश्वर, सपतेश्वर वगैरह ऐसे ही मंदिर हैं।मंदिर के अलावा चंपावत में दूसरी बहुत सी धरोंहर हैं। सुदूरवर्ती गांवों में भी कई ऐसी सांस्कृतिक धरोहरें अभी भी मौजूद हैं जो इसे खास बनाती हैं। इन्हीं में एक है पाटी ब्लॉक के दूरस्थ मनटांडे गांव में स्थिति कत्यूरी.चंद शासकों द्वारा निर्मित 14वीं शताब्दी का अभिलेख युक्त ऐतिहासिक नौला और पंचायतन शैली मैं निर्मित प्राचीन शिव मंदिर। हालांकि इन दिनों ये प्रशासन की बेरुखी का शिकार है। देखरेख के अभाव में ये बदहाल होता जा रहा है। जरूरत है तो इसे संवारने संजोने की।
मनटांडे शिव मंदिर की सबसे खास बात ये है कि यह मंदिर उत्तर भारत की नागर शैली के अंतर्गत पंचायतन शैली में बना है। जिसमे एक मुख्य मंदिर के अलावा चार और छोटे देवालय उसके परित बनाए जाते थे। इसी तरह का एक मंदिर चंपावत मुख्यालय के चैकुनी गांव में भी निर्मित है। मनटांडे के पूर्वोत्तराभिमुख पंचायतन शैली में निर्मित मंदिर के दो छोटे देवकुलिकाए वर्तमान समय में ध्वस्त हो चुकी हैं। मुख्य मंदिर में गर्भगृह और अंतराल का प्रावधान किया गया है। गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग के अतिरिक्त गणेश की एक और लक्ष्मीनारायण की दो प्रतिमाएं भी प्रतिष्ठित हैं। भगवान विष्णु का कुर्मा अवतार स्थल चंपावत का महत्व महज इस वजह से नहीं है कि यह अतीत में कई राजवंशों की राजधानी रहा या प्राचीन शिल्पकला एवं हस्तकला के नमूने आज भी यहाँ मौजूद हैं। उसका महत्व इस रूप में आँका जाना चाहिये कि आज के भाग.दौड़ वाले जीवन में भी यहाँ शांति, प्राकृतिक सौंदर्य एवं धार्मिक व आध्यात्मिक स्थल यथावत बचे हुए हैं। मगर गगनचुंबी पर्वत श्रृंखलाओं और बाँज.बुरूँश, चीड़ व देवदार के सघन वनों के नयनाभिराम दृश्यों के बावजूद यहाँ पर्यटन विकसित नहीं हो पाया है।
चंद व कत्यूरी शासकों के यहाँ से शासन करने के दौरान निर्मित अनेक ऐतिहासिक स्मारक व धार्मिक स्थल आज भी मौजूद हैं। जिला मुख्यालय के चारों ओर बालेश्वर, मानेश्वर, सप्तेश्वर, डिप्टेश्वर, रिखेश्वर, क्रांतेश्वर, मल्लाडेश्वर, तारकेश्वर, घटोत्कच मंदिर, एकहथिया नौला, राजबुंगा का किला, चौपड़ खेलने का स्थल, नौ ढूँगा मकान आदि के भग्नावशेषों में उच्चकोटि की शिल्पकला एवं स्थापत्य है, जो आस्था के साथ शोध के लिये भी महत्वपूर्ण है।
यदि शासन स्तर पर साहसिक पर्यटन को बढावा देने का प्रयास किया जाए तो चारों ओर के ऊँचे.ऊँचे पहाड़ों में हैंड ग्लाइडिंग व माउंटेनियरिंग के लिए स्थल विकसित किए जा सकते हैं। प्रख्यात अंग्रेज शिकारी जिम कार्बेट ने यहाँ एक आदमखोर का शिकार भी इसी क्षेत्र में किया था। जनपद में सांस्कृतिक मेलों व उत्सवों आदि का आयोजन होता रहता है, जिनमें कुटीर उद्योग के रूप में स्थानीय हस्तकला की अनेक वस्तुएँ बिकने आती हैं। हालाँकि क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही कम होने से शिल्पकला को समुचित बाजार नहीं मिल पा रहा है। बहुचर्चित उत्तरमुखी गंडक नदी भी जिला मुख्यालय से होकर बहती है। कुमाऊँ शब्द का जन्म भी चंपावत में ही हुआ है। कुमाऊँ संस्कृत के कूर्म शब्द का अपभ्रंश है। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु का कूर्म अवतार चंपावत क्षेत्र में ही हुआ था।
इतिहासकार बद्रीदत्त पांडे ने विष्णु का कूर्मावतार स्थल चंपावत की कानदेव क्रांतेश्वर पर्वत चोटी पर बताया है। मानस खंड में 63वें अध्याय की शुरूआत में भी कूर्मांचल पर्वत का जिक्र आया है। कई लोगों का मानना है कि राम रावण संग्राम के दौरान कुंभकर्ण का सिर कटकर चंपावत क्षेत्र में जा गिरा था, जिसके चलते इस क्षेत्र को कुंभू और बाद में कूमू कहा गया। भगवान विष्णु का दूसरा अवतार कूर्म अथवा कछुवे का हुआ था। कहा जाता है कि यह अवतार चंपावती नदी के पूर्व में कूर्म पर्वत में तीन साल तक खड़ा रहा। उस कूर्म अवतार के चरणों का चिन्ह पत्थर में हो गया। तबसे इस पर्वत का नाम कूर्माचल हो गया। कूर्माचल का प्राकृत रूप बिगड़ते.बिगड़ते कुमू बना और यही शब्द बाद में कुमाऊँ हो गया।
चंदों की राजधानी यहाँ से अल्मोड़ा जाने से पहले तक चंपावत और आसपास के इलाकों को ही कुमू कहा जाता था। बाद में चंदों के राज्य विस्तार के साथ कूर्माचल को वर्तमान कुमाऊँ कमिश्नरी के नाम से जाना जाने लगा। मगर इलाके की आम बोलचाल में कुमू और कुमइयाँ का अर्थ आज भी चंपावत और चंपावत के बाशिंदों से माना जाता है।भगवान विष्णु ने कूर्मावतार स्थल पर स्थित क्रांतेश्वर महादेव मंदिर में अब ग्राम सिमल्टा में स्थित क्रांतेश्वर नौले का जल नहीं चढ़ता। करीब पांच दशक से यह नौला उपेक्षित है। इसी वजह से वह जंगल की झाड़ियों में गुम हो गया है। इस नौले के बारे में अब कम ही लोग जानते हैं। सिमल्टा गांव के सयाने बताते हैं कि उन्होंने बुजुर्गो से सुना है कि गांव की एक बेटी को विवाह के कई वर्षो बाद भी संतान नहीं हुई। एक दिन उसके सपने में क्रांतेश्वर महादेव आए और उसको नौला बनवा कर उसके जल से जलाभिषेक करने को कहा।
महिला ने सिमल्टा गांव के समीप ही क्रांतेश्वर मंदिर को जाने वाले रास्ते में भव्य नौले का निर्माण कराया। बाद में उसके जल से जलाभिषेक क्रांतेश्वर महादेव का जलाभिषेक किया। इसके बाद महिला की मनोकामना पूरी हो गई। प्राचीन काल से करीब पांच दशक पहले तक लोग क्रांतेश्वर महादेव का अभिषेक इसी नौले के जल से करते थे। गांव के लोग पीने के लिए भी इसी नौले का पानी का उपयोग करते थे। धीरे.धीरे लोगों ने नौले की ओर जाना छोड़ दिया, तो वह जंगल की झाडि़यों के बीच गुम हो गया। भीषण सूखे के बावजूद नौले में लबालब पानी भरा हुआ है, मगर वह है किसी काम का नहीं। एतिहासिक स्मारकों को संरक्षण करने वाली संस्था आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया एएसआइ को ऐतिहासिक व प्राचीन नौलों की खोज कर उन्हें संरक्षित करना चाहिए। ताकि आने वाली पीढ़ी उनके बारे में जान सकें। पर्यटकों के लिए भी यह नौले आकर्षण का केंद्र हो सकते हैं। स्थानीय लोगों को भी नौलों के संरक्षण को आने आना होगा।जब तक पेयजल सुलभ नहीं था, लोगों ने नौलों का ध्यान रखा। पेयजल योजनाएं बनने के बाद घरों पर ही पानी मिलने लग गया तो नौले भुला दिए गए। पहले के जानकार लोगों ने नौले ऐसी जगह बने थे, जहां भीषण सूखे के बाद भी पानी रहता था। यही वजह है कि नौ माह से बारिश न होने के बाद भी नौले नहीं सूखे हैं। लोगों के साथ शासन प्रशासन को भी नौलों के संरक्षण के प्रति गंभीर होना होगा। तभी आने वाली पीढ़ी अपने बुजुर्गो की समृद्ध परंपरा से परिचित हो सकेंगे।
सरकारी स्तर पर समुचित नीति निर्धारिण के साथ समाजोन्मुखी विकास को केन्द्र में रखकर जल.संरक्षण की ऐसी दीर्घकालिक योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाएए जिसमें ग्रामीण व स्थानीय आम लोगों की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित हो। इस तरह पर्यावरण का सतत विकास तो होगा ही साथ ही सांस्कृतिक विरासत के तौर पर हिमालय की यह पुरातन परम्परा पुनः समृद्धता की ओर कदम बढ़ा सकेगी। पहाड़ का पानी और जवानी अब सिर्फ जुमला बन कर ना रहे हकीकत मे इसमे अब अमल हो यही उम्मीद डबल इज़न की सरकार से है।