डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
आत्मनिर्भर भारत के तहत केंद्र सरकार तमाम छोटे.बड़े उद्योग, खेती.बाड़ी और नवाचारों को बढ़ावा दे रही है। किसानों की कमाई बढ़ाने के लिए की योजनाओं पर जोर दिया जा रहा है। उद्योग.धंधों और किसानों की आमदनी से जुड़ी एक योजना है राष्ट्रीय बांस मिशन सरकार देश में बांस की पैदावार बढ़ाने और बांस आधारित उद्योग.धंधों को गति देने पर फोकस कर रही है। इस कड़ी में कृषि मंत्री ने नौ राज्यों में 22 बांस क्लस्टर शुरू किए हैं। उन्होंने कहा कि देश अब बांस उत्पादों के निर्यात को बढ़ाने के लिए कमर कस रहा है। बांस के क्लस्टर की स्थापना मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, ओडिशा, असम, नागालैंड, त्रिपुरा, उत्तराखंड और कर्नाटक में की जाएगी।
हरा सोना कहे जाने वाले बांस की भारत में 100 से भी ज्यादा प्रजातियाँ हैं। कुछ का उपयोग घर, फर्नीचर, बर्तन और हैंडीक्राफ्ट प्रोडक्ट्स बनाने के लिए होता है तो कुछ का उपयोग खाने के लिए भी किया जाता है! उत्तर.पूर्वी राज्यों में बांस का सबसे अधिक इस्तेमाल होता है। इसका इस्तेमाल घर बनाने से लेकर पुल बनाने तक में किया जाता है। इसके आलावा रोज़मर्रा की चीजों जैसे स्ट्रॉ, टिफ़िन और बोतल आदि भी बांस से बनाए जाते हैं। बाँस के बहुआयामी उपयोगों को देखते हुए इसे वनों का हरा सोना कहा जाता है। यह पूरे विश्व में समुद्र तल से 7000 मीटर की ऊँचाई तक पाया जाता है। संसार भर में बाँस की 75 से अधिक प्रजातियाँ व 1200 से अधिक उपजातियाँ पाई जाती हैं। भारत में बाँस की 114 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कश्मीर घाटी को छोड़कर बाँस सर्वत्र पाया जाता है। भारत में बाँस करीब 0.10 लाख वर्ग किमी में फैला हुआ है जिससे 4.50 लाख टन उत्पादन मिलता है।
उत्तर भारत के पर्वतीय क्षेत्र हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखण्ड बाँस की विभिन्न प्रजातियों को उगाने के लिये आदर्श क्षेत्र है। शिवालिक पर्वतीय क्षेत्र और इसकी तलहटी में लाठी बाँस, कांटा बाँस एवं मध्य हिमालय में मगर एवं चाय बाँस पाया जाता है। ऊपरी हिमालय क्षेत्रों में रिंगाल की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। रिंगाल की मुख्य चार प्रजातियाँ गोल, थाम, देव एवं जमूरा हैं। बाँस सामान्यतः नम घाटियों में वृक्षों की छाँव में, नदियों और नालों के किनारे एवं पर्वतों के ढलान के निचले भागों में होता है। पर कभी.कभी यह ऊँची ढलानों तथा पर्वतों के ऊँचे भागों में भी पाया गया है। अन्य जंगलों की तरह ही बांस के जंगलों में भी गिरावट आने लगी थी, लेकिन सीएसई की स्टेट आफ इंडियाज़ इनवायरमेंट 2020 इन फिगर्स के मुताबिक भारत में बंबू बियरिंग क्षेत्र में वर्ष 2017 से 2019 के बीच 3229 स्क्वायर किलोमीटर का इजाफा हुआ है। देश के बांस को पौधारोपण पिछले दो सालों में 2.05 प्रतिशत तक बढ़ा है, लेकिन देश के घना बांस पौधारोपण 25 प्रतिशत तक कम हुआ है। हालांकि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के राज्यों के काफी इजाफा हुआ है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2017 से 2019 के बीच उत्तराखंड में बम्बू बियरिंग क्षेत्र 411 स्क्वायर किलोमीटर बढ़ा है।
राज्य में कुछ बम्बू बियरिंग क्षेत्र वर्ष 2019 में 1489 स्क्वायर किलोमीटर थाए जिसमें से 271 स्क्वायर किलोमीटर डेन्सए 1151 स्क्वायर किलोमीटर स्कैटर्ड और रीजनरेशन क्राप क्षेत्र 67 स्क्वायर किलोमीटर है। तो वहीं 2017 से 2019 के बीच उत्तर प्रदेश में बम्बू बियरिंग क्षेत्र 411 स्क्वायर किलोमीटर बढ़ा है। उत्तर प्रदेश में बम्बू बियरिंग क्षेत्र 2019 में 1235 स्क्वायर किलोमीटर थाए जिसमें से 309 स्क्वायर किलोमीटर डेन्स और 926 स्क्वायर किलोमीटर स्कैटर्ड क्षेत्र था। बांस के फायदों की बात करें तो भू.संरक्षण के लिये नग्न पहाड़ीए भूस्खलित अथवा इससे सम्भावित क्षेत्र को बाँस द्वारा रोपित कर संरक्षित किया जा सकता है। मेड़ों पर प्रारम्भ में पौध उपलब्धता के अनुसार बाँस के पौधे 1 से 3 मीटर की दूरी पर रोपित किए जाते हैं। एक.दो वर्षों में ही पौध संवर्धन द्वारा एक नियमित बाड़ बन जाती है। नाले में बहने वाले पानी से भूक्षरण बचाव हेतु पानी के वेग को कम करना जरूरी है। जीवित चेक डैम अवरोध के रूप में कार्य करते हैं। इन्हें क्षरण रोकने तथा अच्छी मृदा नमी स्तर को बनाए रखने के लिये छोटे नाले-गली के आर.पार लगाया जाता है। पर्वतीय क्षेत्र से प्रारम्भ होने वाले नालों में दिशा परिवर्तन व तट कटाव की समस्या काफी गम्भीर है। बरसात के दौरान चो, राओ, खड् इत्यादि जो मानसून के मौसम के अलावा अधिकतर सूखे रहते हैं, तेज बहाव के साथ अत्यधिक मात्रा में मलबा बहाकर लाते हैं तथा जमीनों, जीवन एवं सम्पत्ति को व्यापक क्षति पहुँचाते हैं। बाँस द्वारा विकसित वानस्पतिक अवरोधक इन नदी एवं नालों की धारा के वेग को कम करने में सक्षम हैं और इनके द्वारा किनारों को सुरक्षित रखा जा सकता है। बरसाती नालों में मृदा कटाव नियंत्रण उपायों द्वारा बहाव को पूर्व निर्धारित भूमि पर नियंत्रित किया जा सकता है तथा किनारों के आस.पास की भूमि को उपयुक्त बाँस प्रजाति लगाकर पुनर्स्थापित किया जा सकता है। बाँस तेज बढ़वार के कारण इन जमीनों पर जल्दी स्थापित हो जाते हैं। बाँस की जड़ें एवं गिरे हुए पत्ते सड़ने के उपरान्त जल्दी ही भूमि में सुधार कर सकते हैं। लाठी बाँस, कांटा बाँस, मगर बाँस इसके लिये उचित प्रजातियाँ हैं।
बाँस अपने क्षेत्र द्वारा भूमि को वर्षा बूँद अपरदन एवं पृष्ठ अपवाह के विरुद्ध सुरक्षा देता है तथा अपनी जड़ों द्वारा पकड़ बनाकर मृदा को स्खलित होने से बचाता है।बांस के महत्व की यदि बात करें तो बाँस से लगभग 1400 से अधिक उत्पाद एवं वस्तुएँ बनाई जा सकती हैं। विश्व बैंक एवं इनबार के एक बाजार सर्वेक्षण के अनुसार वर्तमान में अन्तरराष्ट्रीय बाजार में बाँस का व्यवसाय 45 हजार करोड़ रुपये का है। भारतीय बाजार में बाँस का व्यवसाय 2,040 करोड़ रुपये का है तथा इसके प्रतिवर्ष 15.20 प्रतिशत बढ़ने की आशा है। विश्व के बाँस उत्पादक देशों में भारत दूसरे स्थान पर है, जहाँ 40.60 लाख टन बाँस प्रतिवर्ष जंगलों के कटान से आता है, जिसमें से 19 लाख टन केवल कागज उद्योग में लुगदी बनाने के काम आता है। बांस के जरिए बेरोजगारों को रोजगार देने के उद्देश्य से खोला गया बांस प्रशिक्षण केंद्र बंदी की कगार पर है। कभी एक करोड़ का टर्नओवर और 100 से ज्यादा बेरोजगारों को रोजगार देने वाले केंद्र में आज मात्र एक कर्मचारी रह गया है। उत्तराखंड बांस एवं रेशा विकास परिषद की ओर से साल 2005 में कोटद्वार के पनियाली क्षेत्र में खोला गया बांस प्रशिक्षण केंद्र के हालात बेहद खराब हो चुके है। केंद्र में लगी दो करोड़ रुपये की मशीनें धूल फांक रही हैं जबकि यह केंद्र एक मात्र संविधा कर्मचारी के भरोसे केंद्र चल रहा है। बांस से बने फर्नीचर की दुनिया भर में तेजी से मांग बढ़ रही है। ऐसे में लोगों को रोजगार देने और प्रशिक्षण देकर स्वःरोजगार से जोड़ने के लिए बांस प्रशिक्षण केंद्र एक बड़ा जरिया हो सकता है। ऐसा नहीं है कि केंद्र के हालात शुरुआत से ही ऐसे रहे हों। प्रशिक्षण केंद्र के खुलने के चार सालों तक बड़ी संख्या में महिलाओं और युवाओं ने यहां से प्रशिक्षण लिया और रोजगार प्राप्त किया। केंद्र को बांस से बने फर्नीचर और सजावट के सामान बनाने का खूब काम मिलता था जिसके लिए 100 से भी ज्यादा कुशल कारीगर केंद्र में काम किया करते थे, लेकिन सरकारों की अनदेखी और परिषद के उच्च अधिकारियों की सुस्ती का नतीजा रहा कि कुछ ही सालों में केंद्र के हालात खराब हो गए।
किसानों को बांस की खेती करने के लिए पौध उत्तराखंड बांस एवं रेशा परिषद देहरादून की ओर से उपलब्ध कराया जाएगा। राष्ट्रीय बांस मिशन योजना के तहत बांस की खेती से लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार मुहैया होगा। इससे रोजगार के साथ साथ किसानों की आय में भी बढ़ोतरी होगी। बांस की खेती ग्रामीण क्षेत्रों के कुशल और अकुशल युवाओं के लिए रोजगार के अवसर प्रदान करेगी। किसान गांव में बंजर पड़ी भूमि पर बांस उगाकर अपना भविष्य संवार सकेंगे। उत्तराखंड बांस एवं रेशा परिषद देहरादून की ओर से इऩ लोगों को नर्सरी और अन्य संबंधित सामग्री के लिए बैंक से लोन दिलाया जाएगा। जिस पर इन्हें पचास हजार रुपये की सब्सिडी मिलेगी। बता दें कि ये सब्सिडी तीन साल में तीन किश्तों में दी जाएगी। वहीं, छोटे काश्तकारों को बांस की खेती करने पर एक पौधे पर 120 रुपये की सब्सिडी मिलेगी। तीन साल बाद बांस तैयार होने पर परिषद देहरादून बांस बेचने का बाजार निर्धारित करेगी। बांस पहले पेड़ की श्रेणी में शामिल था, जिसके चलते अपनी जमीन पर इसे काटने के लिए भी अनुमति की जरूरत पड़ती थी। दो साल पहले इसे घास की श्रेणी में शामिल किया गया, ताकि ज्यादा से ज्यादा इसका व्यावसायिक इस्तेमाल हो सके। घास प्रजातियों को काटने में अनुमति की जरूरत नहीं पड़ती। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों का रकबा घट रहा है। राज्य गठन से लेकर अब तक की तस्वीर इसकी तस्दीक कर रही है। विश्व बांस दिवस के मौके पर बांस से बनाए गए बिस्किट और शहद की बोतल लॉन्च की जा रही है। मुख्यमंत्री ने लिखा कि ये सामान हमारे टोपी में एक और पंख जोड़ देंगे। ये दोनों राज्य में कई लोगों के लिए जीविका का साधन बन सकते हैं और प्रधानमंत्री मोदी के भारत के आत्मनिर्भर के लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं। बांस से बनाए गए बिस्किट प्राकृतिक तौर पर बनाए गए हैं, जो इसे ज्यादा पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक है।
मुख्यमंत्री ने बैंबू और केन डेवलेपमेंट इंस्टिट्यूट और डॉण् अभिनव कांत का इस अनोखे आविष्कार के लिए भी धन्यवाद किया है।बीसीडीआई संस्थान के अध्यक्ष डॉक्टर अभिनव कांत ने बांस से बनाए गए इन बिस्किट और बोतल को इसलिए विकसित किया ताकि राज्य के स्थानीय लोगों को रोजगार मिल सके। डॉ कांत का कहना है कि सामान्य बिस्किट की तुलना में बांस से बने बिस्किट ज्यादा पौष्टिक हैं। उन्होंने आगे कहा कि अब तक बांस का इस्तेमाल औद्योगिक गतिविधियों के लिए किया जाता रहा है लेकिन अब इसका खाने में भी इस्तेमाल किया जाएगा। दोनों की सहायता में राज्य में रोजगार के मौके बढ़ने की उम्मीद है। मुख्यमंत्री ने अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट कर इस बात की जानकारी दी।विज्ञापन उन्होंने ट्वीट किया कि विश्व बांस दिवस के मौके पर बांस से बनाए गए बिस्किट और शहद की बोतल लॉन्च की जा रही है। मुख्यमंत्री ने लिखा कि ये सामान हमारे टोपी में एक और पंख जोड़ देंगे। ये दोनों राज्य में कई लोगों के लिए जीविका का साधन बन सकते हैं और प्रधानमंत्री मोदी के भारत के आत्मनिर्भर के लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं।त्रिपुरा में पहली बार बैंबू कुकीज को लॉन्च किया गया है। ये कुकीज बांस के पेड़ की शाखाओं को दरदरा करके और प्रोसेसिंग के बाद बनाई जाती हैं। इससे पहले बांस से बनी कुकीज की मांग पूर्वोत्तर भारत, नेपाल, थाईलैंड, म्यांमार, बंग्लादेश, जापान, चीन और ताइवान जैसे कई देशों में भी हैण् राज्य में रोजगार के मौके बढ़ने की उम्मीद है। उत्तराखंड असल में कुछ भी नहीं। इस दिशा में सरकार को पहल करनी चाहिए। मंडुवा, झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे।