डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
गोरखो के आक्रमण व उनके द्वारा किये अत्याचरो से अन्ग्रेजी शासन द्वारा मुक्ति देने व बाद मे अन्ग्रेजो द्वारा भी किये गये शोषण से आहत होकर उत्तराखण्ड के बुद्धिजीवियो मे इस क्षेत्र के लिये एक प्रथक राजनैतिक व प्रशासनिक इकाई गठित करने पर गम्भीरता से सहमति घर बना रही थी। समय.समय पर वे इसकी मांग भी प्रशासन से करते रहे। १९३८ ५-६ मई को कांग्रेस के श्रीनगर गढ्वाल सम्मेलन मे क्षेत्र के पिछडेपन को दूर करने के लिये एक प्रथक प्रशासनिक व्यवस्था की भी मांग की गई। इस सम्मेलन मे माननीय प्रताप सिह नेगी, जवाहर लाल नेहरू व विजयलक्षमी पन्डित भी उपस्थित थे। १९४६ हल्द्वानी सम्मेलन मे कुर्मान्चल केशरी माननीय बद्रीदत्त पान्डेय, पुर्णचन्द्र तिवारी व गढ्वाल केशरी अनसूया प्रसाद बहुगुणा द्वारा पर्वतीय क्षेत्र के लिये प्रथक प्रशासनिक इकाई गठित करने की मांग की, किन्तु इसे उत्तराखण्ड के निवासी एवं तात्कालिक सन्युक्त प्रान्त के मुख्यमन्त्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने अस्वीकार कर दिया।
१९५२ में देश की प्रमुख राजनैतिक दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम महासचिव, पीण्सीण् जोशी ने भारत सरकार से प्रथक उत्तराखण्ड राज्य गठन करने का एक ज्ञापन भारत सरकार को सोपा। पेशावर काण्ड के नायक व प्रसिद्द स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्र सिह गढ्वाली ने भी प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरु के समक्ष प्रथक पर्वतीय राज्य की मांग का एक ग्यापन दिया।
१९५५ में २२ मई नई दिल्ली मे पर्वतीय जनविकास समिति की आम सभा सम्पन्न हुई। उत्तराखण्ड क्षेत्र को प्रस्तावित हिमाचल प्रदेश में मिला कर वृहद हिमाचल प्रदेश बनाने की मांग की गई। १९५६ पृथक हिमाचल प्रदेश बनाने की मांग राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा ठुकराने के बाबजूद गृह मन्त्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने अपने बिशेषाधिकारों का प्रयोग करते हुये हिमाचल प्रदेश की मांग को सिद्धांत रूप में स्वीकार किया गया, किन्तु उत्तराखण्ड के बारे में कुछ नहीं किया।
दो सिंतबर को उत्तराखण्ड आंदोलन का वो दिन है, जिसे उत्तराखण्डवासी कभी नहीं भूल पायेगं। जब दो सितंबर 1994 की वह दर्दनाक सुबह याद कर शरीर में आज भी सिहरन दौड़ जाती है। दो सितंबर की सुबह मौन जुलूस निकाल रहे राज्य आंदोलनकारियों पर पुलिस और पीएसी ने ताबड़तोड़ गोलियां बरसाकर छह लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। फायरिंग के कारण शांत रहने वाली पहाड़ों की रानी मसूरी के वातावरण में बारूदी गंध फैल गई। आज भी उस दर्दनाक घटना को याद करने वालों की रूह कांप जाती है। मसूरी के झूलाघर के शहीद स्थल में पिछले 26 सालों से लगातार शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है। पुलिस की गोली से घायल पुलिस उपाधीक्षक उमाकांत त्रिपाठी ने सेंट मेरी अस्पताल में दम तोड़ दिया। पुलिस और पीएसी का कहर यहीं नहीं थमा, इसके बाद कर्फ्यू के दौरान आंदोलनकारियों का उत्पीड़न किया गया। दो सितंबर से करीब एक पखवाड़े तक चले कर्फ्यू के दौरान लोगों को जरूरी सामानों को तरसना पड़ा। आंदोलन का मसूरी में नेतृत्व कर रहे वृद्ध नेता स्वर्गीय हुकुम सिंह पंवार को पुलिस दो सितंबर को बरेली जेल ले गई। जुलूस में उनके युवा पुत्र एडवोकेट राजेंद्र सिंह पंवार को गोली लगी और वे बुरी तरह जख्मी हो गए। कुछ सालों तक उनकी आवाज ही गुम हो गई। उनका इलाज एम्स दिल्ली में हुआ, लेकिन अफसोस सक्रिय आंदोलनकारियों में आज तक उनका चिह्नीकरण नहीं हो पाया और 2020 में उनकी मौत हो गई।
दो सितंबर 1994 को उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर सैकड़ों की तदाद में लोग एक सितंबर 1994 को खटीमा में राज्य आंदोलनकारियों पर गोली चलाकर 7 लोगों की जान ले लीए जिसके विरोध में मसूरी के हजारों लोग सडकों पर उतरे थे और यहां पर भी 6 लोगों को प्रदेश निर्माण को लेकर शहादत दी थी, लेकिन सड़कों पर उतरे हजारों आंदोलनकारियों पर बरसी गोलियों को 26 बरस हो गए हैं। पृथक उत्तराखंड की मांग को लेकर मसूरी गोलीकांड में 6 आंदोलनकारियों ने अपनी शहादत दी थी।
पुलिस ने आंदोलनकारियों को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें दो ट्रकों में ठूंसकर देहरादून स्थित पुलिस लाइन भेज दिया था। यहां उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गई और फिर सेंट्रल जेल बरेली भेज दिया गया। कई आंदोलनकारियों पर वर्षों तक अदालत में मुकदमे चलते रहे। वहीं आंदोलनकारियों के जिस सपने को लेकर उत्तराखंड बनाने की कल्पना की थी, वह आज पूरा नहीं हो पाया है। पहाड़ से पलायान होने के कारण गांव के गांव खाली हो गये हैं। बेरोजगारी बढ़ गई है। युवा परेशान हैं। वहींए 1994 के आंदोलन में मौजूद लोगों का चिन्हीकरण नहीं हो पाया है। जिससे आंदोलनकारी मायूस हैं। वहीं, प्रदेश के कई बडे नेता मसूरी आते हैं और शहीदों को श्रद्वाजलि अर्पित करते हैं, लेकिन सवाल है कि क्या शहीदों का उत्तराखंड बन पाया।
प्रदेश के गांव और पहाड खाली हो गए हैंण् युवा गांव से पलायन कर चुके हैंए कई सरकारें आईं और गईं लेकिन किसी ने भी पहाड़ के दर्द को नहीं समझाण् सब ने मात्र अपना फायदा देखाए जिस कारण आज प्रदेश के शहीद और आंदोलनकारी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैंण् इस आंदोलन ने राज्य गठन की भूमिका तैयार कीए सपने देखने की मासूम सी इच्छा को जन्म दिया और इन सपनों को हकीकत में बदलने का उत्साह और साहस दिया। यह आंदोलन ही थाए जिसमें राज्य ने अपनी मातृ शक्ति की ताकत का अहसास किया और युवाओं के उत्साह को स्वीकार किया। यह देखना सुखद है कि मसूरी में शहीद स्मारक के अलावा टिहरी जिले के गजा में भी मुख्य चौराहे पर बेलमती चौहान की प्रतिमा स्थानीय लोगों ने लगाई है। यह इस बात का द्योतक है कि सरकार याद रखे ना रखे पर जनता अपने शहीदों को याद रखती है।
6 आन्दोलनकारियों के अलावा मसूरी गोलीकांड में पुलिस के डीण्एसण्पीण् उमाकांत त्रिपाठी भी मारे गएण् उनके बारे में कहा जाता है कि वे आन्दोलनकारियों पर गोली चलाये जाने के पक्षधर नहीं थेण् इसलिए पीण्एण्सीण् वालों ने उन्हीं पर गोली चला कर मौत के घाट उतार दिया। वैसे देखा जाए तो उत्तराखंड आन्दोलन में जहां पर भी दमन हुआ पुलिस ने बिना उकसावे के पूर्व नियोजित षड्यंत्र के तहत किया। यह आन्दोलनकारियों को सबक सिखाने के साथ ही तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की निगाह में स्वयं की फरमाबरदारी सिद्ध करने के लिए भी किया गया, जिस दिन मसूरी में गोलीकांड हुआ उसी दिन पौड़ी में आन्दोलनकारियों की रैली थी। वहीँ खटीमा और मसूरी में गोली चलने की खबर सुनाई दी थी। पूरा पौड़ी आन्दोलनकारियों से पटा हुआ थाण् ऊपर नीचे सब सडकों पर उत्तराखंड राज्य की मांग के लिए उत्साह से लबरेज लेकिन सुस्पष्ट दिशा की तलाश करता आन्दोलनकारियों का हुजूम थाण् वर्ष 2000 से शुरू हुई यह यात्रा अब 20 साल का सफर पूरा कर चुकी है। इस सफर में उत्तराखंड कभी तनकर खड़ा हुआ और कभी टूट.बिखर कर फिर उठ खड़ा हुआ लोगो की भावनाओं के अनुरूप राजधानी की तलाश।शहीद हुए आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की बातें करते रहे हैंण् लेकिन जिन मोर्चों पर न्याय की इस लड़ाई को असल में लड़ा जाना थाए वहां आंदोलनकारियों की मजबूत पैरवी करने वाला कभी कोई रहा ही नहींण् नतीजा यह हुआ कि न्यायालयों से लगभग सभी मामले एक.एक कर समाप्त होते चले गए और दोषी भी बरी हो गएण् बेहद गिने.चुने जो मामले आज भी न्यायालयों में लंबित हैंए उनमें भी यह उम्मीद अब न के बराबर ही बची है कि दोषियों को कभी सजा हो सकेगीण्जब सत्याग्रह ने न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते 25 सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है। इस राज्य को देखते हुए ऐसा लगता है कि इस पर उत्तराखंड आन्दोलन की शहादतों का तो असर कम है पर राज्य आन्दोलन के दौर की अराजकता और दिशाहीनता अभी भी अपने चरम पर है। इस कामना के साथ मसूरी गोलीकांड के शहीदों को श्रद्धांजलि कि हम राज्य को जनता के सपनों का उत्तराखंड बना सकें, धींगामुश्ती और अराजकता से मुक्त राज्य बना सकें।












