डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पहाड़ी खाना भारत के पहाड़ी राज्यों, विशेषकर उत्तराखण्ड में लोकप्रिय है। खाने में आम तौर से तीन प्रकार की थाली शामिल हैं, जिन्हें नंदा थाली, महासू थाली व देवलगढ़ राजभोग थाली कहा जाता है। वहीं उतराखंडी मिठाई, अर्से, गुड़ की जलेबी, झंगरियाल, पल्लर, मंड़वे की रोटी, मक्के की रोटी, कंडाली का साग, तोर की दाल व पंचमढ़ी दाल, जिसमें हींग व जख्या का तड़का लगा होगा, लाल चावल, कुमाउनी चटनी, मड़वे के समोसे व मोमो व उतराखंड में पैदा होने वाली सब्जी भी इस भोजन का हिस्सा हैं। सभी खानों में तिल व चीलू का तेल प्रयोग पारंपरिक रूप से किया जाता है। इसके साथ ही साथ ही गुड़ की चाय व शिलाजीत की चाय उल्लेखनीय हैं।
खाना आम तौर से जमीन पर बैठ कर कांसे की थाली व कटोरियों में परोसा जाता है। उत्तराखंड में पहाड़ों में पहाड़ी तोर, तुअर महत्वपूर्ण दाल है और उसी भांति भाभर, मैदानी उत्तराखंड में अरहर तुअर का महत्व है। पहड़ी तोर के दाने छोटे होते हैं तो मैदानी तुअर के दाने बड़े होते हैं। अरहर की दाल को तुअर भी कहा जाता है। इसमें खनिज, कार्बोहाइड्रेट, लोहा, कैल्शियम आदि पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। यह सुगमता से पचने वाली दाल है, अतः रोगी को भी दी जा सकती है, परंतु गैस, कब्ज एवं साँस के रोगियों को इसका सेवन कम ही करना चाहिए।
भारत में अरहर की खेती तीन हजार वर्ष पूर्व से होती आ रही है किन्तु भारत के जंगलों में इसके पौधे नहीं पाये जाते है। अफ्रीका के जंगलों में इसके जंगली पौधे पाये जाते है। इस आधार पर इसका उत्पत्ति स्थल अफ्रीका को माना जाता है। सम्भवतया इस पौधें को अफ्रीका से ही एशिया में लाया गया है।दलहन प्रोटीन का एक सस्ता स्रोत है जिसको आम जनता भी खाने में प्रयोग कर सकती हैए लेकिन भारत में इसका उत्पादन आवश्यकता के अनुरूप नहीं है। यदि प्रोटीन की उपलब्धता बढ़ानी है तो दलहनों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इसके लिए उन्नतशील प्रजातियां और उनकी उन्नतशील कृषि विधियों का विकास करना होगा। अरहर एक विलक्षण गुण सम्पन्न फसल है। इसका उपयोग अन्य दलहनी फसलों की तुलना में दाल के रूप में सर्वाधिक किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसकी हरी फलियां सब्जी के लियेए खली चूरी पशुओं के लिए रातवए हरी पत्ती चारा के लिये तथा तना ईंधनए झोपड़ी और टोकरी बनाने के काम लाया जाता है। इसके पौधों पर लाख के कीट का पालन करके लाख भी बनाई जाती है। मांस की तुलना में इसमें प्रोटीन भी अधिक ;21.26 प्रतिशतद्ध पाई जाती है यह पूर्व उत्तरी भारत के दलहन की मुख्य फसल है। पूर्वी उत्तरप्रदेश में तो दाल माने अरहर की दाल। यह केवल उत्तर प्रदेश में ३० लाख एकड़ से अधिक रकबे में बोई जाती है। इसके लिये नीची तथा मटियार भूमि को छोड़कर सभी जमीनें उपयुक्त हैं। ऊँची दूमट भूमि मेंए जहाँ पानी नहीं भरताए यह फसल विशेष रूप से अच्छी होती है। यह बहुधा वर्षा ऋतु के आरंभ में और खरीफ की फसलों के साथ मिलाकर बोई जाती है। अरहर के साथ कोदोए बगरी.धानए ज्वारए बाजराए मूँगफलीए तिल आदि मिलाकर बोते हैं। वर्षा के अंत में ये फसलें पक जाती है और काट ली जाती हैं। इसके बाद जाड़े में अरहर बढ़कर खेत को पूर्णतया भर लेती है तथा रबी की फसलों के साथ मार्च के महीने में तैयार हो जाती है। पकने पर इसकी फसल काटकर दाने झाड़ लिए जाते हैं। अन्य फसलों के साथ मिलाकर इसका बीज केवल दो किलो प्रति एकड़ के हिसाब से डाला जाता है। अरहर को वर्षा के पहले दो महीनों में यदि निकाई व गोड़ाई दो.तीन बार मिल जायए तो इसका पौधा बहुत बढ़ता है और पैदावार भी लगभग दूनी हो जाती है। चने की तरह इसकी जड़ों में भी हवा से खाद नाइट्रोजन इकट्ठा करने की क्षमता होती है। अरहर बोने से खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और इसे स्वयं खाद की आवश्यकता नहीं होती। इसको पानी की भी अधिक आवश्यकता नहीं होती। जब धान इत्यादि पानी की कमी से मर तथा मुर्झा जाते हैं तब भी अरहर खेत में हरी खड़ी रहती है। कमजोर अरहर की फसल पर पाले का असर कभी कभी हो जाता हैए परंतु अच्छी फसल परए जो बरसात में गोड़ाई के कारण मोटी हो गई हैए पाले का भी असर बहुत कमए या नहींए होता सरकार का प्रयास है कि देश के हर व्यक्ति की थाली में दाल हो और इसके लिए कई स्तरों पर प्रयास भी हो रहे हैं। इसी बीच अगर दाल की एक ऐसी प्रजाति जिससे दाल के उत्पादन को कई गुना बढ़ाया जा सकेए और वो प्रजाति अगर अरहर की हो तो ये काफी अच्छी ख़बर हो सकती है। अरहर की दाल की खपत देश में सबसे ज़्यादा हैसिंचित क्षेत्रों में अरहर की शुद्ध फसल से औसत 20.25 क्विंटल ध्हेण् दानाए लगभग इतना ही भूसा तथा 50.60 क्विंटल ध्हेण् सूखा डठंल प्राप्त होता है। इसकी मिश्रित असिंचित फसल से औसत उपज 2.8 क्विंटल ध्हेण् प्राप्त हो जाती है। भण्डारण के लिए दाने में 8.10 प्रतिशत नमी होना चाहिए। सामान्यतौर पर अरहर के दानों से लगभग 70 प्रतिशत तक दाल प्राप्त की जाती हैण्
उत्तराखंड में कृषि के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हिमालयन एक्शन रिसर्च सेंटर ;हार्कद्ध के मुख्य कार्यकारी अधिकारी महेंद्र सिंह कुंवर ने बताया कि पहाड़ में खेती उत्पादन कम हो रहा है। इसकी कई वजह हैं। सरकार और स्थानीय लोगों को मिलकर इसके उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए काम करने की जरूरत है। मार्केट में इनकी मांग अधिक हैए लेकिन इस हिसाब से उत्पादन काफी कम है। बताया कि संस्था की ओर से चमोलीए उत्तरकाशीए देहरादूनए बागेश्वर आदि जिलों में पहाड़ी अनाजों की खेती और उत्पाद तैयार करने का काम किया जा रहा है। संस्था के अंतर्गत 38 संगठन काम कर रहे हैं और करीब 45 हजार लोग इस रोजगार जुड़े हुए हैं।पहाड़ी तोर का दाना छोटा है। तोर का शोरबा या सूप बनाकर पीने से सर्दी दूर होती है। यह 240 रुपये प्रति किग्रा की कीमत पर बाजार में बिक रही है। अगर पर्वतीय कृषि नीति सफल रहती है तो उत्तराखंड दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भर तो होगा ही साथ ही राज्य का आर्थिक विकास भी मुमकिन होगा। इसके अलावा कम होते कृषि क्षेत्र को बचाने और राज्य से होने वाले पलायन को रोकने में भी मदद मिलेगी। गौरतलब है कि ऊर्जा प्रदेश के बाद उत्तराखंड को दलहन प्रदेश बनाने की तैयारी शुरू कर कोशिश की जा रही है। उत्तराखंड दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भर तो होगा ही साथ ही राज्य का आर्थिक विकास भी मुमकिन होगा। इसके अलावा कम होते कृषि क्षेत्र को बचाने और राज्य से होने वाले पलायन को रोकने में भी मदद मिलेगी।












