डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला :
उत्तराखंड एक राज्य के रूप में नौ नवंबर को 22वें साल में प्रवेश कर गया है। इस उपलक्ष्य में सप्ताह भर चले समारोह संपन्न होने के साथ ही कुछ सवाल भी छोड़ गए हैं। व्यक्ति हो या संस्था, इस उम्र में ऊंचे लक्ष्यों को तेजी से दौड़ कर लपक लेने की अपेक्षा की जाती है। यह उम्र ही ऐसी है, जिसमें ऊर्जा एवं आकांक्षा शिखर पर होती है।
उपलब्धियां प्राप्त करने का इससे बेहतर पड़ाव जीवन में नहीं आता है। यह संयोग ही है कि युवा उत्तराखंड में सरकार की कमान भी युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के हाथों में है। चुनाव के मुहाने पर खड़े राज्य में गत नौ नवंबर को स्थापना दिवस समारोह धूमधाम से मनाया गया। भाजपा सरकार ने इस अवसर का फायदा कल्याणकारी व लोकप्रिय घोषणाओं को करने में उठाया तो कांग्रेस ने पूरी ताकत भाजपा सरकार से पांच सालों का हिसाब मांगने में झोंक दी।
प्रमुख विपक्षी दल 21 सालों का हिसाब करता तो यह राज्य के हित में ईमानदार पहल मानी जाती और इसमें आमजन भी सहभाग कर सकता था। राज्य गठन की 21वीं वर्षगांठ पर, जिस तरह के मुद्दों पर आधारित ईमानदार विमर्श की अपेक्षा की जा रही थी, वह राजनीतिक गहमा-गहमी व वोटों की राजनीति में कहीं खो गया।
उत्तराखंड को बनाने में आमजन की सीधी सहभागिता रही, इसमें हर वर्ग का संघर्ष रहा, लेकिन जब राज्य के बारे में सोचने व सरकारों के कार्यो के आकलन का मौका आया तो सभी सरकार से अपनी-अपनी मांगों को मनवाने में लग गए। ऐसा लग रहा है कि उत्तराखंड राज्य का गठन ही कम काम बेहतर पगार, अधिक पदोन्नति और ज्यादा सरकारी छुट्टियों, भर्तियों में अनियमितता व विभिन्न निर्माण कार्यो की गुणवत्ता में समझौता करने के लिए हुआ है।
मानो विकास का मतलब विद्यालय व महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, अस्पतालों व मेडिकल कालेजों के ज्यादा से ज्यादा भवन बनाना भर है, न कि उनके बेहतर संचालन की व्यवस्था करना। हर साल सड़कें बनाना मकसद है, पर हर साल ये क्यों उखड़ रही हैं, इसकी चिंता न तो सरकारें करती हैं और न ही विपक्ष इस पर सवाल उठाता है। जाहिर है कि करोड़ों रुपये के निर्माण में लाभार्थी पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने हैं।
उस वर्षगांठ को मनाने का औचित्य ही क्या है जिसमें उपलब्धियों व असफलताओं की बैलेंस सीट ईमानदारी से न खंगाली जाए। अब लोग भी यह पूछने लगे हैं कि अलग राज्य बनने के बाद ऐसा क्या हुआ जो उत्तर प्रदेश में ही रहते तो नहीं हो पाता। अगर कई जमीनी मुद्दों को सत्ताधारी नहीं देखते हैं या छिपाते हैं तो इसके कारण समझ में आते हैं, लेकिन विपक्ष की खानापूर्ति तो चिंता का कारण बनती है। जाहिर है कि इन 21 सालों में जवाबदेह व्यवस्था नहीं बन पाई है।
दोनों प्रमुख दलों ने प्रदेश को मुख्यमंत्री तो दिए, लेकिन जननेता नहीं। सत्ता के सिंहासन पर बारी-बारी से दल तो बदले, लेकिन तौर-तरीके नहीं। इन वर्षो में राज्य की राजधानी का मसला तक नहीं सुलझ पाया। आज राज्य के पास गैरसैंण में शीतकालीन राजधानी है व देहरादून में अस्थायी राजधानी। भावनाओं की कीमत पर जमीनी हकीकत से किनारा न किया गया होता तो 21 सालों में स्थायी राजधानी तो मिल ही गई होती। नौकरशाही का खामियाजा आमजन ने भुगता, लेकिन सत्ताधारी तो इसमें भी मुनाफा कमा गए। हर विफलता के लिए नौकरशाही को कोसने वाले सफेदपोश व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थी ही रहे हैं।
जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं। आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, बाकी सारी तिकड़म की राजनीति वहां भी है और यहां भी।
मतदाताओं के सामने खड़ी समस्याओं के समाधान से अधिक उनकी भावनाओं के दोहन की फिक्र रही है। कर्मचारी-शिक्षक सबसे बड़ा वोट बैंक बन कर उभरा है। स्थिति यह है कि आर्थिक स्थिति कैसी भी हो कर्मचारी-शिक्षक यूनियनों के सामने सरकारें नतमस्तक होती रही हैं।यही वजह है कि 21 साल बाद भी आर्थिक-औद्योगिक प्रगति केंद्र की अपेक्षित मदद के बाद भी गति नहीं पकड़ पाई।
विकास जो हो रहा है वह पूरी तरह से केंद्र के भरोसे। पीएम का उत्तराखंड के प्रति सकारात्मक रुख के कारण ढांचागत विकास पर तेजी से काम हो रहा है, पर सवाल है कि इतने सालों में प्रदेश इनका लाभ लेने की स्थिति में भी पहुंचा या नहीं। 21 साल में 11 मुख्यमंत्री, राजनीतिक अस्थिरता की कहानी भी बयान करता है।
अब सरकारी योजनाएं ठंडे बस्ते में नहीं पड़ी रहेंगी, बल्कि मुख्यमंत्री से लेकर मुख्य सचिव तक ऐसी योजनाओं पर हरपल नजर रख पाएंगे। सरकारी योजनाओं की निगरानी के लिए इंफार्मेशन डेवलपमेंट एजेंसी (आइटीडीए) ने उन्नति पोर्टल तैयार किया है। बुधवार को मुख्यमंत्रीआइआरडीटी सभागार में इस पोर्टल को लांच करेंगे।
इसके अलावा कार्यक्रम में अपणि सरकार पोर्टल को भी लांच किया जाएगा। आजादी के 75वें वर्ष के उपलक्ष्य में अभी 75 सेवाओं को ही इससे जोड़ा जा रहा है। अलग राज्य बनने के बाद आठ मुख्यमंत्री बन चुके हैं लेकिन पहाड़ के विकास के लिए कोई भी गंभीर नहीं है। पलायन जारी है। कोई ठोस नीति नहीं बनी है। राज्य आंदोलनकारी मंच के जिलाध्यक्ष ने कहा कि राज्य के शहीदों और आंदोलनकारियों के अनुरूप उत्तराखंड नहीं बन पाया और न ही शहीदों के हत्यारों को आज तक सजा मिल पाई है।
आज आंदोलनकारी इस बात को लेकर खफा हैं कि उनके सपनों का उत्तराखंड नहीं बन पाया। लेकिन जिन मोर्चों पर न्याय की इस लड़ाई को असल में लड़ा जाना था, वहां आंदोलनकारियों की मजबूत पैरवी करने वाला कभी कोई रहा ही नहीं. नतीजा यह हुआ कि न्यायालयों से लगभग सभी मामले एक-एक कर समाप्त होते चले गए और दोषी भी बरी हो गए. बेहद गिने-चुने जो मामले आज भी न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें भी यह उम्मीद अब न के बराबर ही बची है कि दोषियों को कभी सजा हो सकेगी.
जब सत्याग्रह ने न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते 25 सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है. उत्तर प्रदेश से पृथक पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के लिए सालों तक यहां के लोगों ने आंदोलन किया। जिसमें शहीदों के बलिदान और राज्य आंदोलनकारियों के प्रयास से 9 नवंबर 2000 को पृथक उत्तराखंड राज्य बना। हालांकि तब राज्य का नाम उत्तरांचल रखा गया था।
जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसका आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को लेकर राज्य की जनता आए दिन सड़कों पर रहती है। पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं।
लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है। आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है।












