सन् 1995 में उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह यादव सरकार ने उर्दू अनुवादकों की एक साल के लिए तदर्थ नियुक्ति की थी। लेकिन उन्हें बरकरार रखा गया। उत्तराखंड बनने पर पुलिस, खेल, आबकारी समेत तमाम सरकारी विभागों में इस तरह के करीब दो सौ कार्मिक आवंटित कर दिए गए। तदर्थ नियुक्त उर्दू अनुवादक अब इन विभागों में इंस्पेक्टर बन गए हैं, प्रमोशन पर प्रमोशन पर रहे हैं, कोर्ट की आपत्ति के बाद भी उत्तराखंड उन्हें क्यों ढो रहा है? नियुक्तियों के इस गड़बड़ झाले में क्या उत्तराखंड सरकार इस बड़ी अनियमितता का भी संज्ञान लेगी?
सूचना के अधिकार के जरिये यह मामला सालों से पब्लिक डोमेन में है। इस पर कई बार सवाल उठाए जाते रहे हैं। आरटीआई एक्टिविस्ट इस मामले को गाहे-बगाहे उठाते रहते हैं। यह मामला कोर्ट तक भी पहुंच चुका है।
आरटीआई एक्टिविस्ट एडवोकेट विकेश सिंह नेगी कहते हैं कि सबसे अधिक अनुवादक पुलिस महकमें में कार्यरत हैं, इन पर कार्यवाही के लिए उन्होंने डीजीपी अशोक कुमार को पत्र लिखा, लेकिन कोई एक्शन नहीं हुआ। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को भी लिखा गया लेकिन कोई एक्शन नहीं हुआ। अब वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से मामले की जांच करने का अनुरोध किया गया है।
यह पूरा प्रकरण है सन् 1995 में तत्कालीन समाजवादी पार्टी की सरकार ने यूपी में उर्दू अनुवादकों की एक साल के लिए तदर्थ तौर पर भर्ती की थी। नियमानुसार 28 फरवरी 1996 को सभी उर्दू अनुवादकों की नियुक्ति स्वतः समाप्त हो जानी चाहिए थी। खास बात यह है कि कि उर्दू अनुवादकों की यह नियुक्ति गढ़वाल, कुमाऊं और बुंदेलखंड के लिए नहीं की गई थी। इसके बावजूद गढ़वाल, कुमाऊं में इन्हें भेजा गया। आबकारी, पुलिस, सचिवालय, मंडल और जिला कार्यालयों समेत तमाम विभागों में इन्हें भेजा गया।
इस उर्दू अनुवादको की भर्ती को लेकर बार-बार सवाल उठाए गए तो इन पदों पर भर्ती हुए उर्दू अनुवादक हाईकोर्ट चले गए। कोर्ट से उन्हें स्थगन आदेश दिया था जिसकी समय सीमा समाप्त हो गई है। प्रदेश पर बोझ बने इन उर्दू अनुवादकों के सवाल उत्तराखंड की हर सरकार के सामने आया, लेकिन सभी इसे टालते रहे। जिनकी सेवा शर्त में नियुक्ति के एक साल बाद सेवा समाप्ति का स्पष्ट उल्लेख किया गया हो, वे 27 साल बाद भी सरकारी कार्मिक कैसे बने हुए हैं और कैसे प्रमोशन पर प्रमोशन पा रहे हैं? पेपर लीक और फर्जी भर्ती के इस दौर में यह प्रकरण भी उठना स्वाभाविक है। सरकार को इस पर भी गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा।
एडवोकेट विकेश सिंह नेगी ने कहा ऊर्दू अनुवादक सैयद वसी रजा जाफरी का प्रमोशन इंस्पेकटर पद पर हो गया है। वसी रजा जाफरी की नियुक्ति वाराणसी में ऊर्दू अनुवादक/कनिष्ठ लिपिक के पद पर हुई थी। सेवा शर्तो के अनुसार उसकी सेवाएं 28 फरवरी 1996 को स्वतः ही समाप्त होनी थी। इसके बावजूद वह आबकारी विभाग में प्रमोशन पर प्रमोशन पा रहे हैं। दूसरा मामला शुजआत हुसैन का है, वह भी आबकारी में इंस्पेक्टर भी बन गए हैं। यह मामला भी हाईकोर्ट तक गया। कोर्ट में सरकार और आबकारी विभाग ने स्वीकार किया कि देहरादून में तैनात इंस्पेक्टर शुजआत हुसैन कानूनी तौर पर नौकरी में हैं ही नहीं। एक अन्य मामला उधमसिंह नगर में तैनात राबिया का है। वह भी इंस्पेक्टर बन चुकी हैं। इलाहबाद हाईकोर्ट ने राबिया के मामले में पिटीसन डिस्मिशन कर दी थी। लेकिन वह अभी भी नौकरी कर रही हैं। भर्ती में इस जघन्य घपले का जवाब कौन देगा?