————- प्रकाश कपरुवाण।
ज्योतिर्मठ।
सड़कें, पुल व परियोजनाएं बेशक राष्ट्र हित के लिए सर्वोपरि हो, लेकिन क्या लोगों के जीवन को खतरे मे डाले बिना यह सब संभव नहीं हो सकता ?, यदि ऐसा ही जारी रहा तो दो दो देशों की अंतर्राष्ट्रीय सीमा से सटे उत्तराखंड की दशा क्या होगी, समझा जा सकता है। इस पर चिंतन मंथन किए जाने की आवश्यकता है। वैज्ञानिक व वैज्ञानिक सोच रखने वालों को यह सोचना होगा कि प्रकृति के साथ सामंजस्य ही पहाड़ के जीवन को बचा सकता है।
उत्तरकाशी के धराली व हर्षिल कि भयावह आपदा ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया, उत्तराखंड मे हर दो चार वर्ष के अंतराल मे आ रही आपदाओं ने पहाड़वासियों का जीवन खतरे मे डाल दिया है। “आपदा, मीडिया की सुर्खियां, राहत और फिर अगली आपदा का इंतजार”यही अब उत्तराखंड की नीयति बन चुकी है।
वर्ष 2012मे भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के 41किमी क्षेत्र को भागीरथी ईको सेंसटिव जोन घोषित किया था, जिसमें धराली भी था. लेकिन तब रोजी रोटी और पलायन आदि को देखते हुए सेंसटिव जोन की परिकल्पना को धरातल पर नहीं उतारा जा सका।
कमोवेश यही स्थिति सीमांत नगर जोशीमठ अब ज्योतिर्मठ की भी है, यहाँ वर्ष 2023मे भू धसाव की भयानक आपदा हुई, कई घर व होटल जमींदोज हुए, आज भी कई परिवार खानाबदोस जिंदगी जीने को विवश हैं।
भू धसाव आपदा के बाद देश कीबड़े बड़े वैज्ञानिक संस्थानों ने सर्वे किया, सर्वे रिपोर्ट के आधार पर केन्द्र सरकार ने ट्रीटमेंट कार्यों के लिए बजट भी आवंटित किया, लेकिन ढाई वर्ष बीतने के बाद भी धरातल पर कोई कार्य शुरू नहीं हो सका।
गंगोत्री से उत्तरकाशी तक ईको सेंसटिव जोन का प्रस्ताव तो वर्ष 2012मे हुआ लेकिन आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य की तपस्थली जोशीमठ -ज्योतिर्मठ को बचाने के प्रयास तो वर्ष 1976मे तब शुरू हो गए थे जब तत्कालीन गढ़वाल कमिश्नर महेश चन्द्र मिश्रा की अध्यक्षता मे गठित कमेटी ने व्यापक अध्ययन कर जोशीमठ को बचाने के जो सुझाव दिए थे उनमें भार वहन क्षमता का आंकलन भी प्रमुख था, जिस पर ध्यान नहीं दिया गया और नतीजा भू धसाव के रूप मे सामने आया।
केदारनाथ आपदा 2013के बाद रैणी-तपोवन आपदा, जोशीमठ भू धसाव आपदा और अब धराली आपदा इन 12वर्षों के अंतराल मे चार भयानक आपदाओं ने उत्तराखंड राज्य को आपदाग्रस्त राज्य के रूप मे नई पहचान दे दी है, लेकिन इतना सब होने के बाद क्या नीति नियंता पहाड़ वासियों को आपदाओं के साये मे जीने को विवश रखेंगे या अर्ली वार्निंग सिस्टम सहित कोई अन्य ठोस व दीर्घगामी योजना धरातल पर उतारेंगे? इस पर आपदाओं का दंश झेल रहे पहाड़ वासियों की नजरें टिकी रहेंगी।