डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के पारंपरिक खानपान में जितनी विविधता एवं विशिष्टता है, उतनी ही यहां के फल.फूलों में भी। खासकर जंगली फलों का तो यहां समृद्ध दुनिया है। यह फल कभी मुसाफिरों व चरवाहों की क्षुधा शांत किया करते थे, लेकिन धीरे.धीरे लोगों को इनका महत्व समझ में आया तो लोक ज़िंदगी का भाग बन गए। औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना बना देता है। उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में हुई बर्फबारी से सेब की खेती करने वाले काश्तकारों के चेहरे खिल गए हैं। काश्तकारों का कहना है कि इससे सेब के अलावा खुमानी, पुलम, नाशपाती और अन्य फलों की खेती में भी फायदा होगा।
नैनीताल जिले के पहाड़ी क्षेत्रों में लगभग 15 वर्षों के बाद इतनी भारी बर्फबारी से काश्तकारों के चेहरे खिले हुए हैं। रामगढ़, मुक्तेश्वर, धानाचूली, धारी चांफी, पदमपुरी आदि क्षेत्रों में इस तरह से भारी बर्फबारी होने से सेब की अच्छी खेती होने की उम्मीद लगाई जा रही है। इस फलपट्टी से जुड़े काश्तकारों की माने तो इस बर्फबारी से इस वर्ष सेब समेत अन्य फलों का पैदावार बढ़ेगी। काश्तकार का कहना है कि सेब की पैदावार के लिए बहुत ही ज्यादा देखरेख की जरूरत होती है। सुंदर और मीठे सेब के लिए लगभग तीन माह तक उसे कूलिंग पीरियड या पॉइंट की जरूरत होती है। इस वर्ष नैनीताल जिले की फ्रूट बेल्ट में सेब आड़ू, खुमानी, पुलम, कीवी, नाशपाती जैसी फसलों के लिए बर्फबारी काफी अच्छी मात्रा में हुई है। बताया जा रहा है कि पिछले 15 वर्षों के बाद इतनी ज्यादा बर्फबारी हुई है, जो फलों के लिए लाभदायक है।
जिले के मुक्तेश्वर और रामगढ़ क्षेत्रों में लगभग एक फ़ीट बर्फबारी हुई जिससे कीड़े और फलों को लगने वाली कई बीमारियां भी खत्म हो गई हैं। भवाली-रामगढ़ इलाके में खास तौर से फलों का उत्पादन होता है। पिछौला सेब रामगढ़ हिल स्टेशन की खास पहचान है। बर्फ पड़ने के बाद सबसे पहले पकने वाला सेब पिछौला होता है। इसके अलावा डिलिशियस, गोल्डन किंग, फैनी एवं जोनाथन जाति के श्रेष्ठतम फल का उत्पादन इस क्षेत्र में होता है। आडू रामगढ़ हिल स्टेशन का सर्वोत्तम फल माना जाता है। तोतापरी, हिल्सअर्ली एवं गौला आडू का उत्पादन अधिक होता है। पुलम को यहां का विशेष फल माना जाता है, पहाड़ी फलों की मांग अब मैदानी क्षेत्रों में भी हो रही है।
नैनीताल और अल्मोड़ा क्षेत्र में विकसित की गई फल पट्टी से आडू, खुमानी, पुलम, काफल और लीची लोगों को काफी पंसद आ रही है। इस बार पहाड़ी फलों की पैदावार अच्छी होने से किसानों के चेहरे खिले हुए थे, लेकिन ओलावृष्टि और बरसात ने इन फलों को काफी नुकसान पहुंचाया। वहीं किसानों का कहना है कि मैदानी क्षेत्रों से आ रही मांग से पहाड़ी फलों के मूल्य में बढ़ोत्तरी हुई है। जिससे उन्हें आर्थिक लाभ हो रहा है। पहाड़ी फलों के मैदानी क्षेत्रों में बेहतर दाम मिलने से किसान उत्साहित है। लेकिन पैदावार कम होने से निराश भी। पहाड़ी फल और सब्जी की मांग इतनी ज्यादा है कि हल्द्वानी मण्डी में रोजाना 2 करोड रुपए के पहाड़ी फल और सब्जी पहुंच रही हैं। फल और सब्जी के आढ़ती और एसोसिएशन के अध्यक्ष का कहना है कि गर्मी में पहाड़ी फलों की डिमांड मैदानी इलाकों में बढ़ने से मुनाफा बढ़ गया है। लेकिन ओलावृष्टि और अंधड से फलों के उत्पादन में कमी होने से किसानों को निराशा भी हाथ लगी है।
जंगल की उपज का कारोबार करने वाली कंपनी अब रिसर्चरों के साथ मिल कर ऐसी तकनीक पर काम कर रही है जो फायदेमंद हो और उन्हें मौसम पर भी निर्भर ना रहना पड़े। मशरूम और बेरी की उपज बरसात और तापमान पर निर्भर होती है। इसलिए पहले से ही तैयार रहना होता है। रिसर्चरों की कोशिश है कि जंगल से ले कर ग्राहकों तक के सफर को आसान बनाया जा सके। जमीन मालिक हों, फल जमा करने वाले या फिर छोटे व्यवसाय, इरादा है कि इन सब की बेहतर कमाई हो सके। जंगल से मिलने वाले फलों की वहीं आसपास ही प्रोसेसिंग करना। अगर जंगल से मिलने वाली चीजों को ऑर्गेनिक का दर्जा मिल जाए तो लोगों की उनमें दिलचस्पी और बढ़ेगी। हालांकि फिलहाल यह मुमकिन नहीं है। एक कंपनी है जो बेरी को सुखा कर उसका पाउडर बना लेती है। इसे फिर दही या दूसरी चीजों में मिला कर खाया जा सकता है। इसकी बेहतर लेबलिंग से फायदा हो सकता है।
कंपनी के सीईओ कारी कॉलिजॉनन बताते हैं, मौजूदा सर्टिफिकेशन सिस्टम में जंगल से मिलने वाली चीजों पर ऑर्गेनिक का लेबल नहीं लग सकता। इसे बदलने की जरूरत है। इंसान जब से धरती पर है कुदरत का लुत्फ ले रहा है। अब हमें सेहत और पर्यावरण दोनों को सुधारने का एक मौका दे रही है। देवभूमि में सेब, नाशपाती, खुमानी व प्लम जैसे फल बहुतायत में होते हैं। इन फलों की वजह से पहाड़ के लोगों की आर्थिकी को मजबूती मिलती है। इन फलों पर व्यापारिक स्तर पर उत्पादन हो, इसके लिए राज्य सरकार की ओर से उद्यान विभाग के जरिए कई योजनाएं भी संचालित की जा रही हैं। जिनके सकारात्मक परिणाम भी सामने की जरूरत है। आज होने वाले तनाव प्रदूषण से पूरा वातावारण प्रदूषित हो रखा है। इस माहौल में अपने परिवार को स्वस्थ रख पाना एक बहुत ही मुश्किल पहलु है, आप इसे ज्यादा से ज्यादा समझ कर ही इसे सुलझा सकते है, क्यों जरुरत पड़ी इस न्यूट्रिशनल पौधों की जो दुनिया में आज अमृत का काम कर रहा है। इन पादपों को इसलिए भी जानने की जरुरत है क्योंकि जिस गति से हम विकास नाम के पागलपन का शिकार हो रहे हैं। आने वाली पीढ़ियों के लिए यह केवल कहानी बन कर रह जाएँगी। सख्त नियमों द्वारा इन गैर.कानूनी गतिविधियों व दोहन पर लगाम लगायें। प्राकृतिक जैव.संसाधनों व पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण मानव जाति को सतत विकास की राह प्रदर्शित करता है।
ये संसाधन अनुसंधान हेतु आवश्यक व महत्त्वपूर्ण आगत के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। अतः विकास की अंध.आंधी से पूर्व इनका संरक्षण करना चाहिए। सांसद बलूनी की माने तो अगर ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती है। प्राकृतिक रूप से जंगलों में पाये जाते है। इसका विस्तृत व्यवसायिक क्षमता का आंकलन कर यदि व्यवसायिक खेती की जाय तो यह प्रदेश की आर्थिकी का बेहतर साधन बन सकती है ।बाजारीकरण, काश्कारों को न्यून प्रोत्साहन, जनमुखी भेषज नीति के अभाव आदि ने हिमालय की इन सौगातों का अस्तित्व संकट में डाल दिया गया।












