डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में उत्तराखंड की भी भूमिका अहम रही थी। यह वह दौर है जब धार्मिक एवं सामाजिक विसंगतियों के कारण जनता बंटी हुई थी। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने लोगों को एकजुट करने के लिए उत्तराखंड से ही राष्ट्रीय चेतना यात्रा की शुरुआत की थी। कालू महरा को उत्तराखंड का पहला स्वतंत्रता सेनानी होने का गौरव हासिल है। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक आंदोलन चलाया था। उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन 1815 में हुआ।
देखा जाए तो यहां अंग्रेजों का आगमन गोरखों के 25.वर्षीय सामंती शासन का अंत भी था। 1856 से 1884 तक उत्तराखंड तत्कालीन कमिश्नर हेनरी रैमजे के अधीन रहा। यह कालखंड ब्रिटिश सत्ता के शक्तिशाली होने का दौर माना जाता है। इसी दौर में सरकार के अनुरूप समाचारों के प्रस्तुतिकरण के लिए 1868 में श्समय विनोदश् व 1871 में अल्मोड़ा अखबार की शुरुआत हुई। उधर, धीरे.धीरे विरोध के स्वर भी मुखर होने लगे थे। 1905 में बंगाल विभाजन के बाद अल्मोड़ा में नंदा देवी मंदिर परिसर में विरोध सभा हुई। महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह में भी उत्तराखंड के लोगों ने बढ़.चढ़कर हिस्सा लिया। आंदोलन के दौरान गांधीजी की साबरमती से डांडी तक की यात्रा में उनके साथ जाने वाले 78 सत्याग्रहियों में तीन ज्योतिराम कांडपालए भैरव दत्त जोशी व खड़ग बहादुर उत्तराखंड के ही थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तराखंड के 21 स्वतंत्रता सेनानी शहीद हुए और हजारों को गिरफ्तार किया गया। नतीजा जगह.जगह आंदोलन भड़क उठे। इसी दौरान खुमाड सल्ट में आंदोलनकारियों पर हुई फायरिंग में दो सगे भाइयों गंगाराम व खीमदेव के अलावा बहादुर सिंह व चूड़ामणि शहीद हुए।
महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में सल्ट की सक्रिय भागीदारी के कारण इसे भारत की श्दूसरी बारदोलीश् से गौरवान्वित किया था। इस बीच आजाद ङ्क्षहद फौज की नींव रखी जा चुकी थी, जिसमें शामिल 800 गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों से लड़ते हुए आजादी के लिए प्राणों का उत्सर्ग किया। नेताजी की फौज के 23266 सैनिकों में लगभग 2500 सैनिक गढ़वाली थे। इसी तरह लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह ने 17 मार्च 1945 को अपने 14 जांबाजों के साथ ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ते हुए प्राण न्योछावर कर दिए। उत्तराखंड के आजादी के परवानों में देशभक्ति का जज्बा इतना प्रबल था कि वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में पहाड़ी फौजियों ने पेशावर की आजादी के लिए आंदोलन कर रहे लोगों पर गोलियां चलाने से इन्कार कर दिया। इस पृष्ठभूमि में हम 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को भी नहीं भूल सकते।
इसे गदर का नाम देकर अंग्रेजों ने कई अनाम स्वतंत्रता सेनानियों को नैनीताल में फांसी पर लटका दिया था, जो अभिलेखों में फांसी गधेरे के नाम से दर्ज है। महात्मा गांधी की कुमाऊं यात्रा, पं जवाहर लाल नेहरू का देहरादून जेल प्रवास, चंद्रशेखर आजाद का दुगड्डा में क्रांतिकारियों को युद्धकला का प्रशिक्षण देना, आजादी के आंदोलन के ऐसे स्वर्णिम अध्याय हैं, जिन्होंने अंग्रेजों की चूलें हिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आजादी की लड़ाई में सल्ट क्षेत्र के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का बलिदान कभी नहीं भुलाया जा सकता। 1942 में ब्रिटिश राज्य की दमनकारी नीतियों के खिलाफ जिस बहादुरी से यहां के शहीद आंदोलनकारी लड़े, उनकी वीरता को भारत के साथ.साथ उत्तराखंड के इतिहास में भी हमेशा याद रखा जाएगा। इसी के साथ गांव गांव में महात्मा गांधी के कार्यक्रमों की भी धूम मच गई। 65 में 61 मालदारों ने इस्तीफा दे दिया। तंबाकू व विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया। सभाओं और प्रार्थना के लिये रण सिंह बजाकर सूचना दी जाती थी। 17 अगस्त 1930 को सल्ट के सत्याग्रही संचालक हरगोविंद पंत को गिरफ्तार कर लिया गया। जिससे क्षेत्र के रणबांकुरे आगबबूला हो गए। आंदोलन को दबाने के लिये इलाकाई हाकिम हबीबुर्रहमान गोरी फौज के साथ सल्ट के विभिन्न इलाकों में बर्बरता पूर्ण दमन करता पहुंच गया। और यह दमन आजादी तक चलता रहा। महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब जब आंदोलन चले इससे यह क्षेत्र कभी भी उनसे अछूता नहीं रहा।
हांलाकि इस क्षेत्र में आजादी की लडाई समांतार लड़ी गई। 1922 में महात्मा गांधी के जेल जाने पर क्षेत्र के लोंगों ने इसका जबर्दस्त प्रतिकार किया। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पुरुषोत्तम उपाध्याय 1927 में सरकारी नौकरी छोडकर पूरी तरह संघर्ष में कूद गए। 1927 में नशाबंदी, तम्बाकू बंदी, आंदोलन के दौरान धर्म सिंह मालगुजार के गोदामों में रखा तंबाकू जला दिया गया। पांच सितम्बर 1942 को जब यहां आयोजित सभा को विफल करने के उद्देश्य से एसडीएम जानसन यहां पहुंचा तो आंदोलनकारियों ने उसका रास्ता रोक लिया। जानसन ने गोली चलाने का आदेश दे दिया और दो सगे भाई खीमानंद व गंगाराम ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। जबकि चूडामणि व बहादुर सिंह भी चार दिन बाद शहीद हो गए। खुमाड़ की धरती रक्तरंजित हो गई पर यहां के लोंगों के देश भक्ति के जज्बे में कोई कमी नहीं आई। पराक्रम और त्याग की इस भावना को देखते हुये गांधीजी ने खुमाड को कुमाऊं की बारदोली का नाम दिया और आजादी की लडाई में सल्ट का गौरवशाली इतिहास सदा के लिए स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया।
आज के दिन 5 सितंबर 1942 को शहीद हुए इन वीरों की शहादत पर यहां प्रतिवर्ष पांच सितंबर को शहीद दिवस मनाया जाता है।अठ्ठत्तर साल बाद खुमाड़ गांवों का यह ऐतिहासिक स्थल लावारिस सा हो गया है। प्रत्येक वर्ष 5 सितंबर को कई कदमों की आहट इस स्थल पर सुनाई देती है बस मात्र एक दिन वह भी इस दिन को कुछ लोगों द्वारा याद किए जाने के कारण अन्यथा सरकार कोई भी रही है उन्होंने कभी इस शहीद स्मारक को ऐतिहासिक बनाने में कोई प्रयास नहीं किया है हरीश गोपाल उपाध्याय एश्सल्टियाश्ने यह बात अलग है की बचपन से देखते चले आ रहे उन खंडहरों की जगह पर दो मंजिल भवन जरूर बना दिया है पर वहां जाकर नई पीढ़ी के लोगों को पता नहीं चल पाता है कि कभी यह स्थल हमारे पूर्वजों के आत्मसम्मान का स्थल रहा है।
लेखकएवर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।