डॉ हरिश चंद्र अन्डोला। बारहनाजा हमारी खाद्य सुरक्षा और पोषण के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही यह खेती और पुशपालन के पारंपरिक रिश्ते को भी मजबूत बनाता है। इन फसलों को अवशेष चारा-भूसा पशुओं की चारा सुरक्षा का प्रतीक है। धरती मां की गोद में ही तरह-तरह की फसलें लहलहाती हैं। वह सबका पोषण करती है। एकल फसलें तो पोषण के साथ-साथ धरती का अत्यधिक शोषण भी करती हैं, किंतु बारहनाजा में शामिल कई प्रजातियों धरती मां को वापिस पोषण देती हैं। ये फसलें मिल जुल कर अपना फसल समाज भी बनाती हैं। धरती के पर्यावरण को मजबूत बनाने वाली यह पद्धति वैज्ञानिक कृषि से कहीं कम नहीं है। यह समृद्ध परंपरा सदियों से चली आ रही है। बारहनाजा खरीफ के महत्वपूर्ण फसल चक्र के अंतर्गत उगाया जाता है। यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो पता चलता है कि जब आधुनिक माने गए कृषि विज्ञान का विकास नहीं हुआ था, तब उत्तराखंड के किसान पारंपरिक खेती और जैव विविधता के बल पर संपन्न और स्वावलंबी थे। उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध इतिहासकार एक शताब्दी पूर्व के गढ़वाल के इतिहास का वर्णन करते हुए यहां की खेती के बारे में लिखते हैं ’’परिवार के सभी व्यक्ति व्यस्त रहते थे। कृषि और पशुपालन से संबंधित कार्य इतने अधिक थे कि परिवार में किसी को निठल्ले रहने का अवसर नहीं मिलता था। पुरुष के लिए कार्य की भरमार थी। पुरुष रात गोठ या छनों (गोशाला, घास-फुस से बने कच्चे आवास) मंे बिताते थे और दिन में खेती के कार्यों में व्यस्त रहते थे, शीतकाल में भीड़ों (दिवालों) का निर्माण कर अपने सीढ़ीदार खेतों का विस्तार करते थे।’’ इस कथन की पुष्टि कर्नल फिशर की सन 1883 की रिपोर्ट से भी होती है। उनके अनुसार गढ़वाली किसान के पास पैसा तो नहीं था, लेकिन उसे खेती से भोजन, वस्त्र के लिए भांग का रेशा और भेड़ों से कंबल के लिए ऊन मिल जाती थी। अनाज के बदले वह नमक ले लेता था। अकुशल भूमिहीन तो थे ही नहीं। जिनके पास भूमि नहीं थी वे कला और दस्तकारी के साथ बटाई पर खेती करते थे। कुमाऊं के संदर्भ में भी इस प्रकार के विवरण ले. कर्नल पिचर और वाल्टन की रिपोर्टों से उपलब्ध है। पिचर ने सन् 1838 में लिखा कि गढ़वाल और कुमाऊं के किसान विश्व के किसी भी भाग के किसानों से कोई कम नहीं हैं। इनके पास रहने के लिए सुदर मकान हैं और अच्छी पोशाक हैं, आस-पास के वनों में प्रचुर मात्रा में जंगली फल और सब्जियां उपलब्ध हैं। सन् 1825 में ट्रेल ने पर्वतीय क्षेत्र से मैदान मंडियों में बिक्री के लिए जाने वाली वस्तुओं की एक सूची तैयार की थी। इसमें सभी प्रकार के अन्न गेहूं, चावल, ओगल व मंडुआ दालें, तिलहन, हल्दी, अदरख, केशर, नागकेशर, पहाड़ी दालें, चीनी, कुटकी, निरबिशी, आर्चा, चिरायता, मीठा विश, वृक्षों की छालें, जड़ी-बूटियां, चमड़ा कपड़ा रंगने की वस्तुएं, औषधियां, लाल मिर्च, दाड़िम, अखरोट, पांगर, चिलगोजा, भांग, चरस, घी, चुलू तेल, मधु-मोम, कस्तूरी, बाज पक्षी, सुहागा, शिलाजीत, खड़िया, मिट्ठी-कमेड़ी, भोजपत्र, पहाड़ी कागज, रिगांल, भावरी बांस, लकड़ी के बर्तन, खाले, चंवर, टट्ठू, गाय-बैल, सुवर्ण चूर्ण, कच्चा लोहा, तांबे की छड़ें और ऊनी वस्त्र को शामिल किया था। इन वस्तुओं को बेचने के लिए लोग दल बनाकर पैदल भाबर की मंडियों में जाते थे और वहां से नमक, गुड़ व कपड़ा आदि खरीदकर लाते थे। यह समृद्धि उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दिनों तक भी कायम रही। इसका मतलब यह नहीं कि हम अट्ठारहवीं सदी की ओर लौट चलें। किन्तु तब की समृद्धि यदि आज के युग में लौट आए तो यहां के निवासियों का जीवन कितना खुशहाल होगा? हम आधुनिक संसाधनों का उपयोग भी करें और जैव विविधता से भी हमारे भंडार भरे रहें तो यह वास्तविक और स्थाई विकास होगा। इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं। एक जमाने में उत्तराखंड के लोग निस्संदेह समृद्धशाली थे। विविधता के मामले में धन-धान्य से भरपूर पहाड़ों के अधिकांश हिस्से में हर एक किसान का अपना बीज भंडार या बीजुंडा था। घर का बीज, घर की खाद, घर के बैल, घर की गाय, घर के कृषि औजार, खेती पर कुछ भी बाह्य लागत नहीं लगानी पड़ती थी। यह एक स्वावलंबी कृषि पद्धति थी, और सचमुच यह पहले नंबर पर किसान की जीवन पद्धति और संस्कृति थी। इसमें खाद्य सुरक्षा और पोषण की गारंटी थी। कायदे से आधुनिक कृषि विज्ञान के आगमन से इसे और मजबूत होना चाहिए था। किंतु आज हम जैव विविधता क मामले में कंगाल हो गए हैं और उपज में भी खस्ता हाल हैं। ऐसी फसलों का ज्यादा विस्तार होना चाहिए था जो कुदरती खनिज लवण, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और ऊर्जा देती हैं और हमें अनके बीमारियों से बचाती हैं। किंतु हरित क्रांति आने के बाद खेती की स्वावलंबी जीवनधारा टूटने लगी। वैज्ञानिकों ने उपज बढ़ाने पर जरूर जोर दिया, उपज बढ़ी भी किंतु यह क्रांति एकल प्रजातियों पर केंद्रित हो गई। इसने विविधता से किसानों का ध्यान हटा कर लालच की ओर मोड़ कर एकल फसलों पर जोर दिया। किसान बारह के बीज, रासायनिक खादें, कीटनाशक, खरपतवार नाशक, जहरों पर आश्रित हो गए, खेती रासायनिक उपकरणों से नशेबाज हो गई, पहाड़ों में सदियों से चली आ रही बारहनाजा कृषि-पद्धति के स्थान पर एकल सोयाबीन उगाने पर जोर दिया जाने लगा। अब उत्तराखंड के कुछ अनुभवी किसानों ने एकल प्रजातियों के दुष्प्रभाव से सीख लेकर बारहनाजा की विविधता को पुनः लौटाने के अपने प्रयास प्रारंभर किए हैं। निस्संदेह बारहनाजा खुशहाली, समृद्धि और भविष्य की आशा का प्रतीक है। यह विविधतायुक्त फसलों का ऐसा परिवार है, जो अनेक क्षेत्र की जलवायु व पर्यावरण के अनुसार एक दूसरे के साथ जुड़ा है। ये फसलें एक दूसरे की मित्र और सहयोगी हैं। सिर्फ खेत में नहीं, खान-पान में भी ये एक दूसरे की पूरक हैं और खाद्य सुरक्षा व पोषण के लिए सभी तरह के तत्व इसमें विद्यमान हैं। यह खान-पान आरोग्य की कुंजी भी है। ऐसी फसलों का ज्यादा विस्तार होना चाहिए था जो कुदरती खनिज लवण, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और ऊर्जा देती हैं और हमें अनके बीमारियों से बचाती हैं। किंतु हरित क्रांति आने के बाद खेती की स्वावलंबी जीवनधारा टूटने लगी। वैज्ञानिकों ने उपज बढ़ाने पर जरूर जोर दिया, उपज बढ़ी भी किंतु यह क्रांति एकल प्रजातियों पर केंद्रित हो गई। इसने विविधता से किसानों का ध्यान हटा कर लालच की ओर मोड़ कर एकल फसलों पर जोर दिया। अभी चार-पांच दशक पहले हर एक गावं में पंचायती अनाज भंडार हुआ करते थे। आज की भाषा में एक तरह से अनाज बैंक या यूं कहें स्वयं सहायता समूह की परंपरा यहीं से शुरू हुई। गांव के पंच एक व्यक्ति को गांव के अन्न भंडार के लिए भंडारी पद पर नियुक्त करते थे। उसके पास भंडार की चाबी होती थी, उसे गांव में फाकी प्रतिष्ठा मिलती थी। उसकी सहायता के लिए एक लिखने वाला (लिख्वार) तथा एक मठपति(खजांची) रहता था। लेखा-जोख लिख्वार के पास तथा अनाज की पूरी जिम्मेदारी भंडारी की होती थी। गांव में एक परि प्रहरी रहता था जो बैठकों की जानकारी के लिए आवाज लगा कर सूचना देता था। कहीं-कहीं यह प्रहरी ’डाल हांकन’ (तंत्र-मंत्र के द्वारा ओला वृष्टि को रोकन) का कार्य भी करता था। लोगों को भंडार में अनाज देना पड़ता था। निश्चित मात्रा में पाथा (नाली) का हिसाब होता था। नई फसल आने पर 1 पाथा धान, 2 पाथा मंडुआ, 2 पाथा झंगोरा,1 सेर दाल, 1 माणा मिर्च, 1 पाथा गेहूं और घी-तेल आदि जमा किया जाता था। इस तरह गांव के भंडार में दोणों या खारों अनाज जमा हो जाता था। जरूरतमंद लोग इस अनाज को उधार लेे जाते थे। उधार में डेढ़ गुणा करके वापस देना पड़ता था। कभी -कभी बहुत कम समय के लिए जब अनाज या अन्य सामग्री दी जाती थी तो इसे पैछा करते थे। इसमें जितना ले जाते थे उतना ही वापस करते थे। अनाज की जरूरत विशेष उत्सव, शादी या अन्य कार्यों के लिए होती थी। दूसरे गांव के लोग भी इसका लाभ उठाते थे। किसी-किसी गांव में धन भी जमा होता था और उधार दिया जाता था। इस तरह गांव का अनाज कोष व धन बढ़ता जाता था। पंचायती अन्न भंडार हर तरह से दुख-दर्द, विवाह-उत्सव श्राद्ध में तो काम आता ही था, साथ ही दैवी आपदा, सूखा या अकाल के आड़े वक्त काम आता था। तब असली ग्राम स्वराज्य था। किंतु आज यह व्यवस्था इतिहास की वस्तु बन गई है। अब बाजार नजदीक आ गया है, जगह-जगह खाद्यान्न की दुकानें खुल गई हैं और स्वयं सहायता समूह नए अंदाज में खूब बन रहे हैं। लेकिन इनमें वह आत्मा गायब हो चुकी है।उत्तराखंड में परंपरागत खेती को अभी तक तकनीक का सहारा नहीं मिल सका है. यही वजह है कि यहां की खास फसलों को पहचान नहीं मिल सकी है.
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में खेती के परंपरागत तौर तरीके अब सिमटते जा रहे हैं. लिहाजा मंडुआ, झंगोरा और सोयाबीन जैसी फसलों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी है, जबकि कभी उत्तराखंड की परंपरागत खेती में बारहनाजा पद्धति अपनाई जाती थी. यानी साल भर में बारह किस्म की फसलें खेतों से मिल जाती थी. आज राज्य में भले ही नकदी फसलों के उत्पादन के साथ खेती में पूरे बदलाव की बात भी की जा रही है लेकिन पौष्टिक और औषधीय गुणों वाली परंपरागत फसलों को अगर बाजार उपलब्ध कराया जाए तो ये भी आजीविका का बेहतर साधन हो सकती है. परंपरागत खेती के सामने सबसे बड़ी समस्या तकनीक की कमी है. खेती की आधुनिक तकनीक अधिकांश किसानों की पहुंच से फिलहाल दूर है. अब हालत ये है कि इस खेती के कई बीज अब लुप्त होने लगे हैं. औजारों से लेकर खेत जोतने के तरीके भी फिलहाज पुराने ही हैं, जिसके कारण खेतों में किसानों को हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है. इसके बावजूद कई इलाकों में किसान अपनी परंपरागत खेती को बचाए हुए है. उत्तराखंड की खास आबो हवा में होने वाली फसलों के लिए बाजार की कमी नहीं है. ये फसलें पूरी तरह से जैविक खेती की सोच पर आधारित हैं. जरूरत है तो इनको समय के साथ तकनीक का सहारा देने की, ताकि इनका उत्पादन बढ़ने के साथ ही किसानों को बेहतर आजीविका हासिल हो सके. (इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)।