डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
सुंदरलाल बहुगुणा ने आजादी आंदोलन में भाग लिया और श्रीदेव सुमन के साथ भी काम किया। खादी ग्रामोद्योग को बढ़ावा देने के साथ ही ग्राम स्वराज की स्थापना करने के लिए बहुगुणा जीवन भर संघर्षरत रहे और महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। राधा बहन कहती हैं कि बहुगुणा मार्गदर्शन और भाषण देने तक सीमित नहीं रहते थे, बल्कि आम जन के साथ धरातल पर काम किया करते थे। उनकी विशेषता थी कि वह टीम भावना को महत्व देते थे। जब दुनिया में उपभोग और तथाकथित विकास की नई परिभाषा गढ़ी जाने लगी थी, तब सुन्दरलाल बहुगुणा के बहुत सारे विचार प्रकृति के बारे में ऐसे थे, जो दुनिया को आसन्न संकटों से निकाल सकते थे। उन्होंने बहुत तार्किक तरीके से इस बात को सत्तर-अस्सी के दशक में ही रखना शुरू कर दिया था कि बेतरतीब विकास योजनाओं से जल, जंगल और जमीन पर खतरा पैदा होने वाला है।
हिमालय के बारे में उनका मानना था कि हिमालय बचेगा तो जीवन भी रहेगा। जब वे हिमालय की बात कर रहे होते थे तो उनकी चिंता सिर्फ हिमालय की नहीं थी, बल्कि एशिया की और भारत की बड़ी आबादी की थी, जिनकी हिमालय और उनकी नदियों पर निर्भरता है। इसके लिये उन्होंने देश.दुनिया के विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों, पार्यावरण से जुड़ी बड़ी संस्थाओं और आम जनता से लगातार लंबे समय तक संवाद बनाया। कहा जा सकता है कि दुनिया भर में पर्यावरण को पाठ्यक्रम तक लाने और उस पर सरकारी विभाग खोलने तक में उनके विचारों की भूमिका रही। चिपको आंदोलन के बाद 1980 में सरकार ने वन अधिनियम लाकर जंगलों को बचाने का सरकारी प्रयास किया। इस अधिनियम के अच्छाई.बुराई पर बातें हो सकती हैं, लेकिन यह कहा जा सकता है कि यह आंदोलन नीति.नियंताओं तक अपनी आवाज पहुंचाने में सफल रहा।
सुन्दरलाल बहुगुणा अस्सी के दशक में फिर चर्चा में आये। टिहरी में प्रस्तावित बांध परियोजना को कार्यरूप दिया जाने लगा तो टिहरी के प्रबुद्ध लोगों ने 1978 में टिहरी बांध विरोधी संघर्ष समिति का गठन किया। इसके संस्थापक अध्यक्ष वीरेन्द्र दत्त सकलानी थे। जब सुन्दरलाल बहुगुणा कोहिमा से कश्मीर की अपनी यात्रा 1981-83 से वापस आये तो उन्होंने इस आंदोलन में गहरी रुचि ली। वर्ष 1990 आते.आते उन्होंने इस आंदोलन को गति दी। हजारों की संख्या में लोग आंदोलन में शामिल हुये। बहुगुणा ने मौन के साथ भूख हड़ताल शुरू कर दी। 1993 में उन्होंने हिमालय बचाओ आंदोलन को फिर से संगठित किया। 1995 में 45 दिन की भूख हड़ताल की, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के आग्रह पर समाप्त किया। बाद में 2001 में गांधी समाधि, दिल्ली में 74 दिन की भूख हड़ताल की। इसे बाद में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के आश्वासन के बाद समाप्त किया। इस प्रकार टिहरी बांध के विरोध में उन्होंने लगभग डेढ़ दशक तक आंदोलन किया। अंतिम समय तक वे अपने निवास गंगा हिमालय कुटीर से इसके खिलाफ लड़ते रहे।
गंगा को मां मानते हुये उन्होंने अपना मुंडन भी किया। हिमालय प्रहरी सुन्दरलाल बहुगुणा के व्यक्तित्व का फैलाव दुनिया भर में था। आम लोगों से लेकर विश्वविद्यालयों तक, बड़े शोध संस्थानों से लेकर गांव.चैपालों तक। जैसा वह हिमालय को देखते.समझते थे, वैसा ही उनका जीवन भी था। दृढ़, विशाल और गहरा। यही वजह है कि आजादी के आंदोलन, टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष और आजाद भारत में जन मुद्दों के साथ खड़े होकर उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक इन सरोकारों को कसकर पकड़े रखा। प्रकृति, पानी, पहाड़ और पर्यावरण के प्रति उनकी संवेदना को इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने चावल खाना छोड़ दिया था। उनका मानना था कि धान की खेती में पानी की ज्यादा खपत होती है। वे कहते थे कि इससे वह कितना पानी का संरक्षण कर पायेंगे कह नहीं सकते, लेकिन प्रकृति के साथ सहजीविता का भाव होना चाहिये।
एक और उदाहरण है 1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा की। उन्होंने इसे यह कहकर लेेने से इंकार कर दिया कि जब तक पेड़ कटते रहेंगे मैं यह सम्मान नहीं ले सकता। हालांकि उनके काम को देखते हुये उन्हें प्रतिष्ठित जमनालाल पुरस्कार, शेर.ए.कश्मीर, राइट लाइवलीवुड पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, आईआईटी से मानद डाक्टरेट, पहल सम्मान, गांधी सेवा सम्मान, सांसदों के फोरम ने सत्यपाल मित्तल अवार्ड और भारत सरकार ने पदविभूषण से सम्मानित किया। इन पुरस्कारों के तो वे हकदार थे ही, लेकिन सबसे संतोष की बात यह है कि हमारी पीढ़ी के लोगों ने उनके सान्निध्य में हिमालय और पर्यावरण की हिफाजत की जिम्मेदारियों को उठाने वाले एक समाज को बनते.खड़े होते देखा है।
पहाड़ के पर्यावरण के प्रति सुंदरलाल बहुगुणा की जागरूकता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि टिहरी बांध के मामले में उन्होंने स्वयं हाईकोर्ट में ग्रामीणों के पक्ष को प्रभावशाली तरीके से रखा था। क्षेत्र के ग्रामीण शुरू से ही टिहरी बांध का विरोध कर रहे थे। तत्कालीन सरकारों ने जब ग्रामीणों की नहीं सुनीं तो इस मामले में हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई। यह वह समय था जब उतराखंड राज्य अलग अस्तित्व में आया था।बताया जाता है कि वर्ष 2004 में टिहरी बांध को लेकर हाईकोर्ट में जनहित याचिका की सुनवाई होनी थी। याचिका की सुनवाई न्यायाधीश न्यायमूर्ति अशोक ए देसाई की खंडपीठ में होनी थी। तब बहुगुणा स्वयं हाईकोर्ट पहुंचे थे। उन्होंने न्यायालय से बांध निर्माण को लेकर ग्रामीणों का पक्ष स्वयं रखने की अनुमति मांगी थी।न्यायालय से अनुमति मिलने के बाद बहुगुणा ने बांध निर्माण से होने वाली दुश्वारियों के साथ.साथ विस्थापन से जुड़े मामलों में पुरजोर तरीके से अंग्रेजी में ग्रामीणों का पक्ष रखा। उनके इस अंदाज को देख मौके पर मौजूद अधिवक्ता भी दंग रह गए थे।हिमालय के ग्लेशियरों की सेहत जानने के लिए प्रख्यात पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा 1978 में गोमुख की यात्रा पर गए। इस दौरान गोमुख में ग्लेशियरों को पीछे हटते देखा, तो हैरान हो गए। फिर क्या था, उन्होंने तत्काल भागीरथी में गोता लगाकर हिमालय और जल संरक्षण का संकल्प ले लिया। इतना ही नहीं, भविष्य में जल संकट के खतरों को भांपते हुए चावलों का भी त्याग कर दिया। तब से लेकर बहुगुणा ने जीवन में कभी भोजन में चावलों को नहीं लिया।पर्यावरण और समाज को जीवन समर्पित कर देने वाले प्रख्यात पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा युगों तक याद किए जाएंगे।