डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
मनुष्य का जीवन प्रकृति के साथ अत्यंत निकटता से जुड़ा है। पहाड़ के उच्च शिखर, पेड़.पौंधे, फूल.पत्तियां, नदी.नाले और जंगल में रहने वाले सभी जीव.जन्तुओं के साथ मनुष्य के सम्बन्धों की रीति उसके पैदा होने से ही चलती आयी है। समय.समय पर मानव ने प्रकृति के साथ अपने इस अप्रतिम साहचर्य को अपने गीत.संगीत और रागों में भी उजागर करने का प्रयास किया है। पीढ़ी दर पीढ़ी अनेक लोक गीतों के रुप में ये गीत समाज के सामने पहुंचते रहे। उत्तराखंड की पावन भूमि विभिन्न तीज और त्योहारों के लिए प्रसिद्ध है। इन्हीं में से एक है चैत्र महीने के पहले दिन मनाया जाने वाला पर्वतीय अंचल का लोकपर्व फूलदेई।
इस त्योहार का खास तौर पर बच्चों को लंबा इंतजार रहता है। बच्चे सुबह घर.घर जाकर घरों और मंदिरों की देहरी पर रंगबिरंगे फूल, चावल आदि बिखेरते हैं। इसी दिन से भिटोली का महीना भी शुरू होता है। होली के फाग की खुमारी में मस्त होल्यार ऋतुरैण और चैती गायन में डूबने लगते हैं। उत्तराखण्ड के पर्वतीय लोकगीतों में वर्णित आख्यानों को देखने से स्पष्ट होता है कि स्थानीय लोक ने प्रकृति में विद्यमान तमाम उपादानों यथा ऋतु चक्र, पेड़.पौधों, पशु.पक्षी, लता, पुष्प तथा नदी व पर्वत शिखरों को मानवीय संवेदना से जोड़कर उसे महत्वपूर्ण स्थान दिया है। पर्वतीय लोक जीवन में प्रकृति के समस्त पेड़ पौधों, फूल पत्तियों और जीव जन्तुओं के प्रति अनन्य आदर का भाव समाया हुआ है। खासकर फूलों के लिए तो यह भाव बहुत पवित्र दिखायी देता है। यहां के कई लोकगीत भी इसकी पुष्टि करते हैं।
बसन्त ऋतु में खिलने वाले पंय्या अथवा पदम के वृक्ष को गढ़वाल में अत्यंत शुभ माना जाता है और इसे देवताओं के वृक्ष की संज्ञा दी जाती है। पंय्या का नया वृक्ष जब जन्म लेता है तो लोग प्रसन्न होते हैं फूलों के प्रति देवत्व की इसी उद्दात भावना के प्रतिफल में उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकों में फूलों का त्यौहार फूलदेई अथवा फुलसंग्राद बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है। दरअसल फूलदेई नये वर्ष के आगमन पर खुसी प्रकट करने का त्यौहार है जो बसन्त ऋतु के मौसम में चैत्र संक्रान्ति को मनाया जाता है। गांव के छोटे बच्चे अलसुबह उठकर टोकरियों में आसपास खिले किस्म.किस्म के फूलों को चुनकर लाते हैं और उन्हें गांव घर की हर देहरी पर बिखेर कर परिवार व समाज की सुफल कामना करते हैं। सामूहिक स्वर में बच्चे जब फूलदेइ से जुड़े गीतों को गाते हैं तो पूरा गांव गुंजायमान हो उठता है। सुबह की पहली किरण के साथ बच्चे बुरांश, भिटोर, फ्यूँली, आड़ू, खुमानी के फूल लेकर गांव में घर.घर की देहरी पूजने निकल पड़ेंगे। फूलों को थालियों व रिंगाल की छोटी. छोटी टोकरियों में सजाकर बच्चों की टोलियां गांव के हर परिवार के आंगन में जाकर उसके लिये आशीष मांगेंगे और घर की बुजुर्ग महिला बच्चों को आशीष देते हुए चावल, गुड़, रुपए देगी।
बच्चों का यह उत्साह देखते ही बनता है। उत्तराखंड के गांवों में साल दर साल घर खाली हो रहे हैं। गांव की देहरी भी सूनी हो रही हैं। गावों में जो देहरी आबाद हैं उनके भीतर बस बुजुर्ग बसे हैं। उदासी की चादर में सिमटे इन गावों में फूलदेई के दिन गांव के बुजुर्ग अपनी देहरी में फूल और चावल चढ़ा कर त्यौहार के शगुन को पूरा करते नज़र आ ही जाते हैं। शहर और कस्बों में बस चुके पहाड़ी परिवारों के पास इतना समय नहीं की गांव के इस त्यौहार के लिये समय निकाल सकें। जो सक्षम हैं उनके बच्चों को गांव के बच्चों का यह त्यौहार मनाने में लाज अधिक आती है। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में मनाई जाने वाली आज भी अपनी गहरी परंपरा को साथ लेकर चल रही है। प्रकृति संरक्षण को बढ़ावा देना चाहते हैं।












