डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत के शीर्षस्थ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में शुमार वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में हुआ था। उनका वास्तविक नाम चन्द्रसिंह भंडारी था। उनके पूर्वज चौहान वंश के थे, जो मुरादाबाद में रहते थे, पर काफी समय पहले ही वह गढ़वाल की राजधानी चांदपुर गढ़ी में आकर बस गये थे और यहाँ के थोकदारों के साथ काम करने लगे थे। चन्द्र सिंह गढ़वाली के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। वह एक अनपढ़ किसान थे। इसी कारण अपने पुत्र चन्द्र सिंह भंडारी को भी वो शिक्षित नहीं कर सके। परंतु चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था।
3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह भंडारी सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह भंडारी को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। जहाँ से वे 1 फ़रवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह भंडारी ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया, जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। उन्होंने 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजों ने कई सैनिकों को फौज से निकालना शुरू कर दिया। जिन्हें युद्ध के समय तरक्की दी गयी थी, उनके पदों को भी कम कर दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भंडारी भी थे। उन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण उन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया। पर उच्च अधिकारियों द्वारा उन्हें समझाया गया कि उनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और उन्हें कुछ समय का अवकाश भी दे दिया।
इसी दौरान चन्द्रसिंह भंडारी महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये। कुछ समय पश्चात 1920 में उन्हें उनकी बटालियन समेत बजीरिस्तान भेजा गया। जिसके बाद उनकी पुनः तरक्की हो गयी। वहाँ से वापस आने के बाद उनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीता। और उनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज़्बा पैदा हो गया। पर अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और उन्होंने चंद्रसिंह भंडारी को खैबर दर्रे के पास भेज दिया। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद को पा चुके थे। उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 23 अप्रैल 1930 को चंद्र सिंह को पेशावर भेज दिया गया। उन्हें हुक्म दिया गया था कि आंदोलनरत जनता पर हमला कर दें। पर उन्होंने निहत्थी जनता पर गोली चलाने से साफ मना कर दिया। इसी ने पेशावर कांड में गढ़वाली बटालियन को एक ऊँचा दर्जा दिलाया और इसी के बाद से चन्द्र सिंह को चन्द्र सिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर कांड का नायक माना जाने लगा।
अंग्रेज शासकों की आज्ञा न मानने के कारण बटालियन के सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की पैरवी बैरिस्टर मुकुन्दी लाल द्वारा की गयी जिन्होंने अथक प्रयासों के बाद उनकी मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया। इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली गई और उनकी वर्दी को उनके शरीर से काट.काट कर अलग कर दिया गया। 1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास काला पानी के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। जिसके बाद उन्हें अलग.अलग जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। बाद में उनकी सज़ा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद उन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया गया। परन्तु उनका गढ़वाल में प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण उन्हें यहाँ.वहाँ भटकते रहना पड़ा और अन्त में चंद्र सिंह गढ़वाली वर्धा में महात्मा गांधी जी के पास चले गये।
गांधी जी उनसे बेहद प्रभावित रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने इलाहाबाद में रहकर उस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और फिर से 3 तीन साल के लिये गिरफ़्तार हुए। 1945 में उन्हें आजाद कर दिया गया। वैचारिक रूप से प्रखर वीर चंद्रसिंह गढ़वाली की ख्याति 23 अप्रैल 1930 के पेशावर विद्रोह के कारण अधिक है। पर इससे पूर्व उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में फ्रांस व मेसोपोटामिया में भी भाग लिया था। देशभक्ति समझ चंद्रसिंह गढ़वाली ने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग तो लिया था पर वो ब्रिटेन की स्वार्थी नीति से असहमत भी थे। जैसे युद्ध समाप्ति के पश्चात आधे सैनिकों को वापस घर भेज देना, भारतीय सैनिकों को प्रमोशन्स खत्म कर पूर्व पदों पर ही रखना आदि। भारत सरकार ने 1994 में उनकी फोटू वाला एक डाक टिकट जारी किया और नामकरण किये जाने से छूट गईं एकाध सड़कों के नाम उनके नाम पर रख दिए। उत्तराखंड बनने के बाद जब राज्य सरकार को अपने स्थानीय नायकों की आवश्यकता पड़ी तो इतिहास के पन्ने पलटे गए और चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम खोज निकाला गया। क्योंकि अनेक सरकारी योजनाओं का नामकरण करने को एक नाम की ज़रुरत थी।
अप्रैल 1930 में पेशावर के किस्साखानी बाज़ार में खां अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में हजारों लोग सत्याग्रह कर रहे थे। इसे कुचलने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत ने रॉयल गढ़वाल राइफल्स को तैनात किया गया था। यह भारत के इतिहास के उस दौर की बात है, जब गांधी के दांडी मार्च को बीते तीन.चार हफ्ते ही बीते थे और सारा देश आज़ादी के आन्दोलन में हिस्सेदारी करने को आतुर हो रहा था।
24 दिसंबर 1891 को गढ़वाल की थैलीसैण तहसील के एक सुदूर गाँव में जन्मे चन्द्रसिंह भी पेशावर में तैनात टुकड़ी का हिस्सा थे। बहुत कम पढ़ा.लिखा होने और अंग्रेज़ फ़ौज में नौकरी करने के बावजूद पिछले दस से भी अधिक वर्षों में चन्द्रसिंह ने देश में चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलन से अपने आप को अछूता नहीं रखा था और फ़ौजी अनुशासन की सख्ती के होते हुए भी जब.तब आज़ादी की गुप्त मीटिंगों और सम्मेलनों में शिरकत की थी और देशभक्ति के सबक सीखे। आज पेशावर कांड के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की पुण्यतिथि है। पेशावर विद्रोह के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के सम्मान में उत्तराखंड सरकार ने कई योजनाएं चलाई है और वर्तमान में भी कई योजनाओं के नाम उनके नाम पर चलाई जा रही है, लेकिन उनके वंशजों को जो सम्मान मिलना चाहिए था वो आज तक नहीं मिल पाया। उत्तरप्रदेश सरकार के वन विभाग ने गढ़वाली के वंशजों को अतिक्रमणकारी करार दिया है। दरअसल आजादी में गढ़वाली के अहम योगदान को देखते हुए उत्तरप्रदेश सरकार ने 1975 में वीर सिंह गढ़वाली को आवास निर्माण के लिए बिजनौर वन प्रभाग क्षेत्र में 10 एकड़ भूमि दी गई थी, जिसकी लीज राशि आज तक जमा नहीं हुई। लीज राशि जमा नहीं करने को लेकर यूपी सरकार ने गढ़वाली के वंशजों को अतिक्रमणकारी घोषित करते हुए लीज राशि जमा कराने के निर्देश जारी किए हैं। साथ ही अगर लीज राशि जारी नहीं करने पर जमीन खाली करने का नोटिस भी दिया है। आजादी में गढ़वाली के अहम योगदान को देखते हुए उत्तरप्रदेश सरकार ने 1975 में वीर सिंह गढ़वाली को आवास निर्माण के लिए बिजनौर वन प्रभाग क्षेत्र में 10 एकड़ भूमि दी गई थीए अप्रैल 1930 में पेशावर के किस्साखानी बाज़ार में खां अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में हजारों लोग सत्याग्रह कर रहे थेण् इसे कुचलने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत ने रॉयल गढ़वाल राइफल्स को तैनात किया गया था।
यह भारत के इतिहास के उस दौर की बात है जब गांधी के दांडी मार्च को बीते तीन.चार हफ्ते ही बीते थे और सारा देश आज़ादी के आन्दोलन में हिस्सेदारी करने को आतुर हो रहा था। 24 दिसंबर 1891 को गढ़वाल की थैलीसैण तहसील के एक सुदूर गाँव में जन्मे चन्द्रसिंह भी पेशावर में तैनात टुकड़ी का हिस्सा थे। बहुत कम पढ़ा.लिखा होने और अंग्रेज़ फ़ौज में नौकरी करने के बावजूद पिछले दस से भी अधिक वर्षों में चन्द्रसिंह ने देश में चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलन से अपने आप को अछूता नहीं रखा था और फ़ौजी अनुशासन की सख्ती के होते हुए भी जब.तब आज़ादी की गुप्त मीटिंगों और सम्मेलनों में शिरकत की थी और देशभक्ति के सबक सीखे। ब्रिटिश हुकूमत के दांत खट्टे करने वाले देवभूमि उत्तराखंड के वीर सपूत वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली की कहानी पहाड़ की आबो हवा में हमेशा गूंजती रहेगी। महात्मा गांधी ने कहा था कि मुझे एक चन्द्र सिंह गढ़वाली और मिलता तो भारत कभी का स्वतंत्र हो गया होता। 23 अप्रैल, 1930 को अफगानिस्तान के निहत्थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर गोली चलाने से इनकार करने वाले चन्द्र सिंह गढ़वाली ने उसी समय ये अहसास करा दिया था कि ब्रिटिश हुकूमत के अब ज्यादा दिन शेष नहीं बचे हैं। यह अलग बात है कि हम सब लोगों का उस सच से भी साक्षात्कार हुआ कि जिन लोगों ने अपनी निहत्थी जनता पर गोलियां चलाई वे लगातार आजाद भारत में हमारे प्रतिनिधि रहे। आज भी उन सत्ताओं के साथ खड़े हैं जो जल, जंगल और जमीन से लोगों को अलग करने की नीतियां बना रहे है, दूसरी तरफ वीर चन्द्रसिंह गढवाली की वह धारा जो लगातार यहां के संसाधनों को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे वे कहीं नहीं हैं।