एक वह दौर था, जब तीर्थ यात्रा के लिए सिर्फ बृद्ध यात्री ही जाते थे और तीर्थ यात्रा में जाने से पहले उनके घर वापसी की संभावनाओं को बहुत कम माना जाता था। तीर्थयात्रा में हुई मौत को स्वर्ग का द्वार माना जाता था। तब यात्रा के बहुत सीमित संसाधन थे, ज्यादातर यात्रा पैदल या रेल-बसों से होती थी। यदि उत्तराखंड के चार धाम यात्रा की बात करें तो वह भी यात्रियों के लिए मारक साबित हो रही है। 3 मई से शुरू हुई चार धाम यात्रा में 17-18 दिन में 56 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं, अधिकांश लोगों की मौत हृदय गति रुकने से हुई है।
चार धाम यात्रा आयोजकों और उत्तराखंड की सरकार के लिए यह एक सबक की तरह है। लेकिन सरकार या फिर आयोजकों को इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। यह कुव्यवस्था का सवाल भी नहीं है। अधिकांश लोगों की जिनकी यात्रा के दौरान मौत हुई है, वह 50 वर्ष से अधिक के हैं, मैदानी क्षेत्रों के रहने वाले हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्र में मौसम परिवर्तन, आक्सीजन की कमी इसके कारण हो सकते हैं। हालांकि चिकित्सा से जुड़े लोग इस मामने में किसी निर्णय तक पहुंच सकते हैं।
वैसे 17 दिन में 56 लोगों की मौत का आंकड़ा चौंकाने वाला जरूर है। एक दिन में सात से दस लोगों तक की मौत हो जा रही है। सिर्फ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ही मौत होती तो मामला और होता। कई यात्रियों की हरिद्वार, ऋषिकेश जैसे स्थानों पर भी मौत हो रही है। इसके बावजूद अधिकांश मौत उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हो रही है।
चार धाम यात्रा में मौतों को कम करने का एक ही जरिया हो सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति की मेडिकल जांच कराई जाए। लेकिन जिस तरह यात्रा के लिए भीड़ उमड़ रही है, उस स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति का चिकित्सकीय परीक्षण संभव है? प्रत्येक व्यक्ति की जांच संभव नहीं है तो लोगों को घर से निकलने से पहले अपनी जांच करनी होगी। हृदय रोगों से पीड़ितों को सबसे अधिक सजग रहना होगा।
जिन 56 लोगों की अब तक यात्रा के दौरान मौत हुई है, सभी हिंदू धर्मावलंबी हैं। हिंदू धर्म में माना जाता है कि तीर्थ यात्रा के दौरान हुई मौत सीधे स्वर्ग का रास्ता खोलती है। इसलिए वृद्धावस्था में ही तीर्थ यात्रा की जाती है। यात्रा के दौरान मौत को प्राप्त हुए लोगों को स्वर्ग मिला कि नहीं यह प्रमाणित तौर पर नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इन मौतों का भार उत्तराखंड की सरकार पर अवश्य पड़ रहा है, जबकि सरकार इसके लिए कहीं से भी जिम्मेदार नहीं है।