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बादल फटने की त्रासदी से त्रस्त होता रहा है उत्तराखंड

04/05/21
in उत्तराखंड, रुद्रप्रयाग
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
विज्ञान के अनुसार, जब बादल बड़ी मात्रा में पानी के साथ आसमान में चलते हैं और उनकी राह में कोई बाधा आ जाती है, तब वे अचानक फट पड़ते हैं। पानी इतनी तेज रफ्तार से गिरता है कि एक सीमित जगह पर कई लाख लीटर पानी एक साथ जमीन पर गिर पड़ता है, जिसके कारण उस क्षेत्र में तेज बहाव वाली बाढ़ आ जाती है। तुमने गंगा.अवतरण की पौराणिक कथा पढ़ी ही होगी, जिसमें गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए भगीरथ ने भगवान शिव का सहारा लिया था, जिन्होंने अपनी एक लट के सहारे गंगा को पृथ्वी पर उतारा था। सोचो, यदि गंगा एक साथ पृथ्वी पर बह जातीं, तो कितनी तबाही मच जाती। इसी तरह बादल फटने पर भी बादलों का पूरा पानी एक साथ पृथ्वी पर गिर पड़ता है। बादल फटने के कारण होने वाली वर्षा लगभग 100 मिलीमीटर प्रति घंटा की दर से होती है। कुछ ही मिनट में 2 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा हो जाती है, जिस कारण भारी तबाही होती है।

यह तो सभी जानते हैं कि जब नॉर्मल बारिश होती है तो धीरे.धीरे धरती उसे सोखती जाती है। लेकिन क्लाउड बर्स्ट में पानी इतनी ज्यादा मात्रा में गिर पड़ता है कि वह गिरते ही तेजी से निचले इलाकों की ओर बहने लगता है। जब उसे जगह नहीं मिलती तो वहां बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। एक तो पानी का वेग बहुत तेज होता है, दूसरे इतने ही वेग से कभी.कभी ओले भी गिरने लगते हैं। पानी के भारी फोर्स के कारण रास्ते में आने वाली चीजें ध्वस्त होती चली जाती हैं। आज हिमालय का मौसम पर्यावरण की दृष्टि से ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव के कारण भारी तनाव के दौर से गुजर रहा है। यहां मौसम की थोड़ी सी भी प्रतिकूलता या वायु प्रदूषण के कारण बादल फटने और जल सैलाब की आपदाओं का सिलसिला शुरु हो जाता है। पिछले कुछ वर्षों से देखने में आया है कि दक्षिण पश्चिमी मानसून जैसे जैसे हिमालय की पर्वतमालाओं की ओर बढ़ते हैं तो देवभूमि उत्तराखंड से बादल फटने जैसी दिल दहलाने वाली प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं होने लगती हैं। परंतु हमारे देश का मौसम विभाग इस प्रकार की आपदाओं के पूर्वानुमान को गम्भीरता से नहीं लेता जिससे कि इन बादल फटने की घटनाओं से होने वाले जानमाल के नुकसान को रोका या कम किया जा सके।

किंतु बादल कब फटेंगेॉ किस क्षेत्र में फटेंगेॉ इसकी सूक्ष्म जानकारी देने का प्रयास मौसम विभाग द्वारा कभी नहीं किया गया और न ही इस दिशा में कोई कार्य योजना बनाई गई। उत्तराखंड के बादल फटने वाले संवेदनशील इलाकों में आब्जर्वेटरी ही नहीं है तो फिर कैसे मौसम विभाग को बादलों के फटने की खतरनाक हरकत का पता चल पाएगा। ऐसे हादसों के मौकों पर प्रायःमौसम विभाग भारी वर्षा होने का अलर्ट जारी करके अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लेता है। उत्तराखंड में लोगों का जनजीवन आज कहीं अतिवृष्टि से तो कहीं सूखे और पेयजल की मार से पहले ही कष्टमय बना हुआ है। उस पर जलवायु परिवर्तन के कारण बादल फटने की घटनाओं ने इस समस्या को बहुत गम्भीर बना दिया है। पर सबसे बड़ा सवाल आज यह है कि इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार कौन है? राज्य प्रशासन/मौसमविभाग, जलवायु परिवर्तन या पर्यावरण विरोधी हमारी विकास योजनाएं, वास्तविकता यह भी है कि उत्तराखंड सरकार ने इन बादलों के फटने से उत्पन्न होने वाली आपदाओं के नियंत्रण और आपदा से पीड़ित लोगों को राहत देने की किसी स्थायी योजना पर कभी गम्भीरता से विचार ही नहीं किया।

उत्तराखंड में एक बार फिर बादल फटने की खबर सामने आई है। उत्तराखंड के टिहरी, उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जिले में बादल फटने की खबर सामने आई है। उत्तराखंड के दो जिलों में बादल फटने से काफी नुकसान हुआ है। पहली घटना रुद्रप्रयाग जिले के नरकोटा की है। जहां बादल फटने से 12 घरों में मलबा घुस गया, जबकि खांकरा में एक ढाबा बह गया। बदरीनाथ हाइवे नरकोटा और खांकरा के बीच कई स्थानों पर मलबा आने से क्षतिग्रस्त हो गया है। वहीं, अतिवृष्टि से एक बुलेरो वाहन और मोटरसाइकिल की भी हाइवे के किनारे धस कर नीचे खाई में जा गिरी। इन घटनों में किसी भी प्रकार की जन हानि की सूचना नहीं है।

दूसरी ओर उत्तरकाशी के चिन्यालीसौड़ में कुमराड़ा और बल्डोगी गांव के पास बादल फटा। कुमराड़ा गांव में एक मकान पूरी तरह जमींदोज हुआ, जिसमें दो भैंस और एक बकरी की मौत हुई। चार मकान आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हुए और खेतों को भी भारी नुकसान हुआ। पहाड़ों में अतिवृष्टि के लिए वनों के असमान वितरण को भी एक बड़ा कारण मानते हैं। वे कहते हैं कि उत्तराखंड के 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में वन हैं, लेकिन मैदानी क्षेत्रों में वन नाममात्र के ही हैं। ऐसे स्थिति में मानसूनी हवाओं को मैदानों में बरसने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाता और पर्वतीय क्षेत्रों में घने वनों के ऊपर पहुंचकर मानसूनी बादल अतिवृष्टि के रूप बरस जाते हैं। आज जरूरत सिर्फ पर्वतीय क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि मैदानी क्षेत्रों में भी तीव्र वनीकरण की आवश्यकता है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के हवाले से संसदीय समिति ने जो रिपोर्ट राज्यसभा को सौंपी है, उसमें बादल फटने जैसे मौसमी विपत्तियों की सूचना दो दिन पहले ही मिल जाने की उम्मीद जताई गई है। वैज्ञानिक नई और उन्नत तकीनक पर काम कर रहे हैं और माना जा रहा है कि 2022 तक हमें काफी पहले इस तरह की त्रासदियों की जानकारी मिल जाएगी, जिससे जानमाल के नुकसान को टाला जा सकेगा।

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