डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला। देश के पर्यावरण को संरक्षित करने में हिमालय की अहम भूमिका है. अगर हिमालय नहीं बचेगा तो जीवन नहीं बचेगा क्योंकि हिमालय न सिर्फ प्राण वायु देता है, बल्कि पर्यावरण को संरक्षित करने और जैव विविधता को बरकरार रखने में भी अहम भूमिका निभाता है. ऐसे में हिमालय के संरक्षण को लेकर हर साल 9 सितंबर को हिमालय दिवस मनाया जाता है. हिमालय में बेशकीमती जड़ी-बूटियां भी पायी जाती हैं. ऐसे में हमें हिमालय का संरक्षण मां के रूप में करना चाहिए.हर साल 9 सितंबर को हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र और क्षेत्र को संरक्षित करने के उद्देश्य से मनाया जाता है। हिमालय प्रकृति को बचाने और बनाए रखने और प्रतिकूल मौसम की स्थिति से देश की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फूलों और जीवों की जैव विविधता में समृद्ध होने के अलावा, हिमालय रेंज देश में बारिश लाने के लिए भी जिम्मेदार है। हिमालय दिवस आम जनता के बीच जागरूकता बढ़ाने और संरक्षण गतिविधियों में सामुदायिक भागीदारी लाने के लिए भी एक उत्कृष्ट दिन है।हिमालय सिर्फ बर्फ से आच्छादित भूखंड नहीं, बल्कि वह अपने आप में पूरी सभ्यता व संस्कृति को समेटे हुए है। पानी और शुद्ध आक्सीजन का भंडार हिमालय समूचे देश की सेवा कर रहा है, लेकिन हिमालय और हिमालयवासियों के हितों की निरंतर अनदेखी हो रही है। यह अपने आप में बड़ी चिंता का विषय है। वह भी तब जबकि, हिमालयी राज्यों के निवासी समाज व पर्यावरण बचाने को निरंतर आवाज बुलंद करते आए हैं। लेकिन, केंद्र ने चाहे वन अधिनियम बनाया हो अथवा जल, जमीन की नीतियां सभी हिमालयवासियों के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुए हैं। उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है। यम बनाया हो अथवा जल, जमीन की नीतियां सभी हिमालयवासियों के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुए हैं। उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है। समस्या इतनी विकराल है कि व्यक्तियों द्वारा संरक्षित प्राकृतिक संसाधन उनके नियंत्रण से बाहर है। कृषि की तस्वीर पर नजर दौड़ाएं तो हिमालय स्वयं में जैविक प्रदेश है। यहां के निवासी एक ही खेत से बारहनाजा की फसल उगाते रहे हैं, लेकिन सरकारी स्तर पर पारंपरिक बीज, जैविक खाद्य, कृषि और पशुपालन के महत्व को नहीं समझा गया। कृषि भूमि की चकबंदी की बजाय कृषि विविधीकरण के नाम पर अजैविक व्यवस्था हिमालय पर थोपी गई है। इसे किसी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता। राज्यभर में हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन व आपदाओं से पड़ रहे असर और इससे निपटने के उपायों पर मंथन होगा और हर साल की तरह आज हिमालय से जुड़े कई कार्यक्रम ,सेमिनारों , गोष्ठियों में हिमालय पर खूब चिन्ता जताई जा रही है, लेकिन क्या हिमालय को संरक्षित करने में किए जा रहे प्रयास सफल हो रहे हैं? ये सवाल इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि हिमालय में पानी के स्त्रोत साल दर साल सूखते जा रहे हैं. वहीं कई अन्य मौसमी बदलाव हिमालय की खराब सेहत की तरफ इशारा कर रहे है . इस वर्ष हिमालय दिवस की थीम हिमालय के ईको सिस्टम को संरक्षित करना है. 6 देशों से होकर गुजरने वाला हिमालय भले ही अपने युवा अवस्था में हो लेकिन इसकी सेहत साल दर साल खराब हो रही है.समूचा हिमालय क्षेत्र जड़ी-बूटियों का विपुल भंडार है, जो यहां की आर्थिकी का बड़ा स्रोत हो सकता है। यह तभी संभव है, जब स्थानीय जन जड़ी-बूटी उगाएं और सरकार इन्हें तत्काल खरीदने का काम करे। यही नहीं, हिमालयी राज्य उत्तराखंड पर्यावरणीय दृष्टि से भी अति संवेदनशील है। विकास और पर्यावरण के मध्य सामंजस्य न होने के फलस्वरूप भूस्खलन, भूधंसाव जैसी आपदाएं आ रही हैं। वैज्ञानिकों, भूगर्भवेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, स्वैच्छिक संगठनों ने समय-समय पर अध्ययन कर महत्वपूर्ण दस्तावेज सरकार को दिए हैं।हिमालयी पर्यावरण (जल, जंगल, जमीन) की संवेदनशीलता और वहां विकास गतिविधियों में सावधानी से संबंधित सुझाव भी दिए गए हैं, जिन्हें तवज्जो दी जानी आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से जंगलों को पनपाने में भी हिमालयवासियों का बड़ा योगदान है। लिहाजा, इसके एवज में हिमालय के निवासी ग्रीन बोनस के हकदार हैं। हिमालय व हिमालयवासियों से जुड़े ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्न फिजां में हैं। इनके समाधान को आवश्यक है कि हिमालय के लिए अलग से नीति बने। इसके लिए सरकारों को गंभीरता से पहल करनी ही होगी।हिमालय ने अपनी आश्चर्यजनक सुंदरता और आकर्षण के कारण पीढ़ियों से मानव कल्पना को मोहित किया है । हाल के दिनों में, हिमालय में आपदाओं की एक श्रृंखला देखी गई है जो इसके अस्तित्व को खतरे में डाल रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण हिमनदों की बर्फ पिघल रही है , इसने मौसम के पैटर्न को बाधित किया है । इसके अलावा अनियंत्रित शहरी विस्तार और अस्थिर विकास पद्धतियों के कारण हिमालय को भारी तबाही का सामना करना पड़ रहा है। हिमालय पारिस्थितिकीय के नाजुक संतुलन को बनाए रखने वाले कारकों को पहचानना क्षेत्रीय चिंता से कहीं अधिक ,एक वैश्विक आवश्यकता बन गया है। हिमालय हमारी प्रकृति की एक शानदार लेकिन जटिल वास्तविकता को पेश करता है। यह दुनिया की सबसे ऊंची चोटियों वाली सबसे युवा पर्वत प्रणाली है। यह क्षेत्र अपने अद्वितीय भूगोल और पारिस्थितिकी के कारण दुनिया के महत्वपूर्ण जैव-विविधता केंद्रों में एक है। यह पर्वत प्रणाली पश्चिम से पूरब तक लगभग 7.5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को कवर करती है। इसकी लंबाई 3,000 किलोमीटर से ज्यादा है और औसत चौड़ाई 300 किलोमीटर तक है। ऊंचाई के मामले में यह निचली घाटियों से लेकर 8,000 मीटर से ज्यादा ऊपर तक है। पश्चिम में हिमालय उत्तरी पाकिस्तान से वाया नेपाल और भूटान भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र तक फैला हुआ है। इस शृंखला में तीन उतनी ही व्यापक उप-शृंखलाएं शामिल हैं, जिनमें सबसे उत्तरी और सबसे ऊंची शृंखला ग्रेट हिमालय या इनर हिमालय के नाम से जानी जाती है। हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र बहुत नाजुक है। हिमालय की भू-विवर्तनिक (जियो-टेक्टोनिक) प्रकृति अच्छी तरह से ज्ञात है लेकिन उसे स्वीकार तो किया जाता है लेकिन ठीक से समझा नहीं जाता। हिमालय का भारतीय खंड अब तक बहुत बड़ी लंबाई तय कर चुका है- वर्तमान मेडागास्कर कहे जाने वाले क्षेत्र से लेकर तिब्बती क्रेटन (महाद्वीपीय स्थलमंडल का पुराना और स्थिर खंड, जो धरती की दो ऊपरी सतहों क्रस्ट और मेंटल से मिलकर बना होता है) तक, जिसके तले वह अब भी सिकुड़ रहा है। इसी वजह से यह एक जटिल, विविध और जोखिम भरी पारिस्थितिकी को जन्म देता है, जिससे “तीसरा ध्रुव” बनता है। उत्तर-दक्षिण के अक्ष पर सौ किलोमीटर से थोड़ा अधिक दूरी तक इसमें तेज बदलाव हुआ है, जिसने संपूर्ण ग्लेशियल भूभाग को सिंधु-गंगा के सपाट मैदानों में बदल डाला है। यही वह बदलाव है, जो हिमालय में चल रही गतिविधियों, खासकर बुनियादी ढांचे के विकास और उसके चरित्र पर गहरी समझदारी की मांग करता है। हिमालय की आबोहवा लगातार खराब हो रही है, हवा में ब्लैक कार्बन , ग्लेश्यिरों का तेजी से पिघलना, बारिश का अनियमित होकर बादल फटने जैसी तमाम घटनाओं का घटना, लगातार हिमालय की खराब सेहत का संकेत दे रहे हैं. प्रदूषण, मानव क्रियाकलाप यहां की पारिस्थिकी पर लगातार प्रभाव डाल रहा है, ऐसे में जल्द प्रभावी कदम नही उठाये जाते हैं तो हिमालय ही मानव अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा होगा. पूरी हिमालय श्रृंखला में उत्तराखंड का हिमालय सबसे अधिक संवेदनशील है. (इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)।