डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड राज्य बने भले ही 16 साल हो गए हैं लेकिन यह 16 वर्षों का सफर डगमग भरा ही रहा। राज्य का जो विकास होना चाहिए था वह नहीं हो पाया।कहा कि सत्तासीन सरकारें जो सोच रही हैं उसे धरातल में कर नहीं रही हैं।भ्रष्टाचार पर देवभूमि में भले ही राज्य सरकारों ने लाख डंका बजा लिया हो, परन्तु हकीकत यह है कि प्रदेश में भ्रष्टाचारियो पर नकेल कसने में इन बीस सालो में कोई भी सरकार कामियाब नहीं हो पाई है।
नवोदित उतराखण्ड राज्य गठन से वर्त्तमान तक सैकड़ो करोड के घोटाले घपले हुए जिसकी मार राज्य की आज भी जनता झेल रही है। जिन अफसरों ने इनमे मुख्य भूमिका निभाई और वे जांचो में दोषी पाए गए वे सभी एक के बाद एक जांचों में बरी ही नही हुए बल्कि मलाईदार पदों पर आसीन होते चले गए। आज भी इनके द्वारा किये गए घपले घोटालो की जाँच की फाइलें रसुक के चलते शासन और बिभागो की अलमारियो की शोभा बढ़ा रही है।
राज्य निर्माण से आज तक पहाड़ी राज्य उतराखण्ड में भ्रष्टाचार को बर्दाश्त न करने का ढोंग करने वाली मिलीजुली सरकारों ने भ्रष्टाचारियो को जमकर पनाह दी,नतीजा प्रदेश में एक के बाद एक करोडो की बित्तीय अनिमित्ताये,घोटाले सामने आते रहे। हकीकत यह है कि उतराखण्ड की सरकारें सिर्फ समाचार पत्रों की सुर्खियों के लिए जांच की बात कर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ती रही।
कुम्भ घोटाला ट्रांसफार्मर घोटाला,बिजली मीटर,ढेंचा बीज,चावल घोटाला जैसे सैकड़ो छोटे बड़े घोटाले घपले राज्य में होते रहे।दो हजार सत्रह से जीरो टॉलरेंस का राग अलापने वाली त्रिबेन्द्र सरकार पर भी भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के आरोप लगातार लगते रहे,लेकिन भाजपा भी इस मामले के नाकाम साबित हुए। प्रदेश में सीएम के रूप में को राज्य की कमान भाजपा आलाकमान ने सौप दी है,क्या नए सीएम इनके खिलाफ डंडा चला पाएंगे यह बड़ा सवाल है?
उतराखण्ड की बात करे तो इस प्रदेश में वैसे भी पहले तो कोई भ्रष्ट अधिकारी आसानी से जाल में फसता नहीं, अगर कोई गाये बगाए फंस भी गया तो राजनीतिक सरक्षण सेटिंग गेटिंग से अभयदान पा जाता है। इससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर कब तक भ्रष्ट और दागी लोग सरकार से संरक्षण पाते रहेंगे ?
सवाल सरकार की उस मुहीम पर भी खड़े होते है जिसमे दावा किया जाता है की राज्य में भ्रष्टाचार कत्तई बर्दास्त नहीं किया जायेगा। लेकिन भ्रष्टाचार पर हमारा सिर झुक जाता है. सरकार बदल जाती है, लेकिन भ्रष्टाचार के मामले सामने आते रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों और सीबीआई के प्रयत्नों का बावजूद उच्चतम स्तर पर भ्रष्टाचार के मामले उभरकर सामने आ जाते हैं. सबूतों के अभाव में अधिकांश दोषियों को दंड नहीं दिया जा सका है.
संविधान में कानून के प्रावधान के बावजूद सजा नहीं मिलना भ्रष्टाचार को रोकने की नाकामी और इसके प्रति कमजोर इच्छाशक्ति को दर्शाता है. अभी हाल ही ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के सर्वेक्षण में भ्रष्टाचार की तालिका में भारत का दो पायदान लुढ़ककर 81 वें स्थान पर आना आश्चर्यचकित तो नहीं करता लेकिन शर्मिंदा अवश्य कर रहा है.
उत्तराखंड की राजनीति भले ही भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सिमटी रहती है, लेकिन इस राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित ढाई लाख से ज्यादा शिक्षक-कर्मचारी भी प्रभावित करते हैं। इस वक्त करीब करीब हर शिक्षक और कर्मचारी संगठन सरकारी सिस्टम से नाराज हैं। तबादला, प्रमोशन, ग्रेड पे, चयन-प्रोन्नत वेतनमान समेत कई विसंगतियां हैं, जिन्हें सीएम को हल कर शिक्षक-कार्मियेां का विश्वास जीतना होगा।
इन 21 वर्षों में उत्तराखंड में बार मुख्यमंत्री बदले गए हैं और अनगिनत लुभावने नारे आ गए हैं, जैसेः देवभूमि, पर्यटन प्रदेश, हर्बल प्रदेश, जैविक प्रदेश, ऊर्जा प्रदेश आदि-आदि. लेकिन ये नारे सिर्फ छलावा साबित हुए. इनके पीछे ठोस समझ, सुचिंतित योजना और अमल में लाने की इच्छाशक्ति नहीं बनी है.पहाड़ को अपना राज्य इसलिए भी चाहिए था कि लोग कहते थे कि लखनऊ दूर है.अलग राज्य की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए उत्तराखंड के जनकवि और अलग राज्य निर्माण आंदोलन में सक्रिय रहे संस्कृतिकर्मी अतुल शर्मा कहते हैं, “अलग राज्य इसलिए ज़रूरी था, क्योंकि गोरखपुर की और गोपेश्वर की एक ही नीति नहीं बन सकती है. इसलिए राज्य अलग बनता है और उसकी व्यवस्था उसी के अनुसार से होती है तो वो सही हो पाएगा वरना नहीं हो पाएगा.”
उत्तराखंड बनने से एक फ़ायदा ये हुआ है कि पानी, पलायन, पर्यावरण, पर्यटन और पहचान जैसे सवाल सामने आए हैं. हां ये ज़रूर हुआ कि राजनीतिक दृष्टि से और राजनीतिक इच्छाशक्ति न होने से वे सारी की सारी बातें नेपथ्य में चली गई हैं.” आज भी उत्तराखंड की सबसे बड़ी टीस उसकी पहचान है. पहचान का आधार उसकी सामाजिक भौगोलिक संरचना है. पर्वतीय क्षेत्र होने के बावजूद राज्य की राजधानी को पहाड़ ले जाने का सवाल लटका हुआ है. क्षेत्रीय राजनीतिक दल टूट बिखराव और वर्चस्व की राजनीति का शिकार होकर दम तोड़ रहे हैं. इन चुनावों में तो क्षेत्रीय पार्टी ने अपने हाथों ही अपनी ज़मीन गंवा दी है
उत्तराखंड की हालिया वर्षों की विकास नीतियां सबके सामने हैं, जिनके केंद्र में हिमालय के जीव, वनस्पति और प्रकृति का संरक्षण कोई मुद्दा नहीं. हिमालयी जन के लिए मूलभूत शिक्षा, चिकित्सा और रोज़गार भी मुद्दा नहीं. वे पूरे उत्तराखंड को पर्यटन केंद्र, ऐशगाह और सफ़ारी में बदल रहे हैं.” उत्तराखंड सरकार ने मैदानी व पहाड़ी जिलों में हो रहे जनसांख्यकीय परिवर्तन (डेमोग्राफिक चेंज) को लेकर जिला प्रशासन को सतर्क रहने के निर्देश दिए हैं।
जिला व पुलिस प्रशासन को जिला स्तरीय समितियों के गठन, अन्य राज्यों से आकर बसे व्यक्तियों के सत्यापन व धोखा देकर रह रहे विदेशियों के खिलाफ कार्रवाई के निर्देश दिए गए हैं। चुनाव से ठीक पहले भाजपा सरकार के इन निर्देशों को समाज व राजनीति के एक वर्ग की ओर जिस तरह के प्रतिरोध की आशंका व्यक्त की जा रही थी, वैसा कुछ दिखने में नहीं आया।
इसकी दो वजह है।एक तो सरकार के इस कदम के पीछे ठोस कारणों की मौजूदगी व दूसरे विरोध करने पर सियासी नुकसान की आशंका। कारण कुछ भी हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि सीमांत राज्य उत्तराखंड में नियोजित या अनियोजित ढंग से हो रहा जनसांख्यकीय परिवर्तन बड़े खतरे की आहट है। राज्य व देश हित चाहने वाला कोई भी व्यक्ति इसे नकार नहीं सकता। राज्य गठन के बाद से कांग्रेस व भाजपा की सरकारें आई व गईं, लेकिन इस आहट को सुनने में नाकाम रहीं या सियासी लाभ के लिए जानबूझ कर नकारती रही हैं।
अब जब स्थिति विकट होने के कगार पर है, तब भी सरकार जिला प्रशासन व पुलिस को सतर्क रहने तक की ही हिदायत दे पाई है। देश में कहीं भी भूमि खरीदने के मूल अधिकार की रक्षा करना बेशक सरकार का दायित्व है, लेकिन किसी मूल अधिकार के दुरुपयोग को रोकना भी तो सरकार का ही दायित्व होगा। इसका बोध राज्य सरकार को अब हुआ है।
सीमांत राज्य उत्तराखंड में जनसांख्यकीय परिवर्तन प्रदेश ही नहीं देश के लिए भी घातक हो सकता है, यह सरकार को भले देर से ही सही, पर समझ में तो आया। अब भी अगर ठोस निगरानी शुरू कर दी जाए तो स्थिति बदतर होने से बच सकती है।जनसांख्यकीय परिवर्तन कोई यकायक होने वाली प्रक्रिया नहीं है। उत्तराखंड में इस परिवर्तन की नींव अविभाजित उत्तर प्रदेश के दौरान पड़ गई थी। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद इस दिशा में तेजी आई है, लेकिन सरकारें जाने-अनजाने इसकी अनदेखी करती रहीं।
प्रदेश में यह परिवर्तन दो तरह का है। देहरादून, हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर जैसे जिलों में बाहरी प्रदेशों से लोग विभिन्न कारणों से आ बसे हैं। यह प्रक्रिया सामान्य है, लेकिन एक समुदाय विशेष के लोग इन जिलों के क्षेत्र विशेष में जमीन खरीद कर या अतिक्रमण कर भी भारी संख्या में बसे हैं। इस कारण वहां पहले से बसे लोगों ने अपनी भूमि औने-पौने दामों पर बेच कर अन्यत्र बसना उचित समझा। अब इन जिलों के कुछ क्षेत्रों में मिश्रित जनसंख्या के बजाय समुदाय विशेष की किलेबंदी जैसी दिखने लगी है।
इन क्षेत्रों व अवैध बस्तियों में बांग्लादेशी भी शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षो में यह प्रवृत्ति पहाड़ी जिलों में भी दिखाई दी है। जहां पहाड़ से लोगों का पलायन रोकना सरकार के लिए चुनौती बना है, वहीं यह भी देखने में आया है कि पहाड़ के कस्बाई क्षेत्रों में समुदाय विशेष के लोग बसने में विशेष रुचि ले रहे हैं। पौड़ी गढ़वाल, चमोली, नैनीताल, उत्तरकाशी में इस तस्वीर को देखने के लिए कोई खोजबीन करने की जरूरत नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में बसने में रुचि लेने वालों में विदेशी भी शुमार हैं।
क्षेत्र विशेष में समुदाय विशेष की नियोजित बसावट को रोका जाना क्यों जरूरी है, इसके तीन ठोस आधार हैं। सबसे पहले देवभूमि के मूल स्वरूप को बचाना आवश्यक है। देवभूमि के मूल चरित्र के कारण जो कभी यहां आए भी नहीं, वे भी इस स्वरूप को संरक्षित रखना चाहते हैं। वहीं, जो भौतिकवादी सोच के लोग हैं, वे भी राज्य की आर्थिकी के लिए इस स्वरूप को कायम रखना चाहते हैं। सब जानते हैं कि उत्तराखंड के पर्यटन उद्योग की रीढ़ तीर्थाटन ही है।
सरकार के इस कदम का एक और ठोस आधार देश की सीमाओं की सुरक्षा भी है। नेपाल व चीन की सीमा से लगने वाले इस राज्य की सीमाओं में मूल निवासियों के पलायन को रोकना जितना जरूरी है उतना ही तर्कसंगत बाहर से आकर बसने वालों की स्क्रीनिंग करना भी है। इस राज्य के सीमांत जिलों के हर गांव-परिवार के स्वजन सीमाओं पर सैनिक के रूप में तैनात है। जो गांवों में हैं वे बिना वर्दी के समर्पित सैनिक हैं। इनकी भूमिका को सेना द्वारा सराहा जाता रहा है। इन क्षेत्रों में सुनियोजित बाहरी बसावट की ओर यूं ही आंख मूंद कर नहीं बैठा जा सकता है। चंद वोटों की लालच में ऐसा होते रहने दिया गया तो सीमा पर संकट खड़ा हो जाएगा। आने वाली पीढ़ियां वोटखोर नेताओं को कभी माफ नहीं करेंगी।