शंकर सिंह भाटिया/प्रकाश कपरूवाण
29 फरवरी 2020 को देवस्थानम बोर्ड ने कार्यभार ग्रहण कर लिया था। बोर्ड में शामिल 54 मंदिरों में से अधिकांश के कपाट इस दौरान बंद थे, इसलिए बोर्ड के लिए करने को कुछ खास नहीं था। देवस्थानम बोर्ड के कार्यभार ग्रहण करते ही बदरी-केदार मंदिर समिति अपने आप भंग हो गई, ऐसी एक्ट में व्यवस्था की गई थी। इस दौरान एक्ट के अनुसार बोर्ड का गठन किया जाना था, लेकिन बोर्ड का गठन अभी तक नहीं किया गया। सिर्फ अध्यक्ष मुख्यमंत्री, उपाध्यक्ष पर्यटन मंत्री और सीईओ गढ़वाल कमिश्नर ही बोर्ड के लिए काम कर रहे हैं। बोर्ड का काम चार धामों के कपाट खुलने के बाद शुरू होना था, लेकिन कपाट खुलने से पहले ही बोर्ड को ऐसा निर्णय लेना पड़ा, जिसे सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने जैसा कहा जा रहा है।
देवस्थानम बोर्ड के फरवरी में कार्यभार ग्रहण करने के बाद अभी करीब दो महीने के अंदर पहला निर्णय लेने की बारी आई थी। बोर्ड ने पहला निर्णय यह लिया कि बदरीनाथ के कपाट 30 अप्रैल के स्थान पर 15 मई को खोले जाएंगे। बोर्ड के उपाध्यक्ष पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने तो घोषणा तक कर दी थी कि 14 मई को केदारनाथ के कपाट और 15 मई को बदरीनाथ के कपाट खोले जाएंगे, लेकिन केदारनाथ के रावल भीमा शंकर लिंग तथा केदार सभा के अन्य पदाधिकारियों के विरोध के चलते कपाट खोलने की पूर्व निर्धारित तिथि 29 अप्रैल को ही केदारनाथ के कपाट खोले जाने तय हुए हैं। चूंकि इस निर्णय से सरकार की किरकिरी हो रही थी, इसलिए सरकार ने पर्यटन सचिव दिलीप जावलकर को केदारनाथ के रावल से बात करने को कहा, लेकिन रावल ने उनकी बात मानने से साफ इंकार कर दिया। दूसरी तरफ गंगोत्री और यमुनोत्री मंदिर समितियों की तरफ से भी सरकार को टका सा जवाब मिला है। गंगोत्री और यमुनोत्री मंदिरों की तरफ से कहा गया है कि वह 26 अप्रैल को गंगोत्री, यमुनोत्री मंदिरों के कपाट खोलने की तैयारी में जुटे हैं, उन्हें किसी देवस्थानम बोर्ड की आवश्यकता नहीं है। यहां हम देवस्थानम बोर्ड के समर्थन तथा विरोध पर चर्चा नहीं कर रहे हैं।
सन् 2013 को जब भयावह आपदा ने सारे रास्ते बंद कर दिए थे। पूरे प्रदेश में त्राहि-त्राहि मच गई थी, तब भी बसंत पंचमी और शिवरात्रि के दिन कपाट खोलने की निर्धारित की गई तिथि को ही बदरीनाथ तथा केदारनाथ के कपाट खोले गए थे। इस बार कोरोना संकट से पूरे देश में लाॅकडाउन चल रहा है। लेकिन आवश्यक कार्योें के लिए अनुमति लेकर आने-जाने पर प्रतिबंध नहीं है। अंततः बदरीनाथ तथा केदारनाथ के रावलों को अनुमति लेकर आना ही पड़ा है। यही अनुमति कुछ दिन पहले भी ली जा सकती थी। क्या यह सरकार तथा संबंधित अफसरों की बहुत बड़ी चूक नहीं है?
सरकार पहले चूक करे, फिर पौराणिक परंराओं को ही धता बताए यह कहां का इंसाफ है? यदि दोनों रावल पांच-सात दिन या दस दिन पहले अनुमति लेकर बुला लिए गए होते तो उन्हें नियमानुसार 14 दिन के कोरेंटीन में रखकर सारी औपचारिकताएं पूरी की जा सकती थी। सरकार तथा संबंधित अफसरों को ऐसा करने से किसने रोका था? यदि समय पर निर्णय ले लिया गया होता तो कपाटोद्घाटन की तिथि में बदलाव करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। इस धार्मिक परंपरा में आज तक ऐसा पहली बार होने जा रहा है कि जब निर्धारित कपाटोद्घाटन की तिथि में बदलाव किया जा रहा है। इसलिए बहुत सारे लोग इस निर्णय का विरोध कर रहे हैं। बदरीनाथ कोई सामान्य मंदिर नहीं है, उत्तराखंड के चार धामों के साथ ही देश के चार धामों में इसका सर्वोच्च स्थान है। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित सर्वोत्तम पीठों में इसका स्थान है। ऐसे अद्वितीय मंदिर के प्रचलित कपाटोद्घाटन जैसी मान्य परंपरा को तोड़ने की जरूरत क्यों पड़ रही है? क्योंकि सरकार तथा अफसरों को यह भी याद नहीं रहा कि दोनों रावलों को समय से लाकर कोरोना संकट की क्वारंटीन औपचारिकताएं पूरी की जा सकती थी? लेकिन जिम्मेदारों की गैर जिम्मेदारी का नतीजा यह हुआ कि पहली बाद कपाटोद्घाटन की तय परंपरा को ही बदलने की जरूरत पड़ गई। जिसे देवभूमि के बहुत सारे धर्मपरायण लोग बहुत बड़े अशुभ के रूप में देख रहे हैं।