डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तरकाशी के धराली में खीर गंगा से आया मलबा कई जिंदगियों को खत्म कर गया. वैसे तो तमाम विशेषज्ञों ने आपदा के संभावित कारणों को तर्कों के जरिए बताने की कोशिश की है. लेकिन अब कयासों से हटकर धराली आपदा की हकीकत सबके सामने आने जा रही है. दरअसल, विभिन्न संस्थाओं के एक्सपर्ट इन दिनों धराली में प्राकृतिक आपदा की वजह जानने में जुटे हुए हैं. जिसपर जल्द रिपोर्ट तैयार होने की उम्मीद हैधराली में पहाड़ों के बीच से आई मुसीबत को सभी ने तस्वीरों में देखा. लेकिन ऐसा क्यों हुआ? ये राज अब भी सही रूप में खुल नहीं पाया है. हालांकि, अलग-अलग विशेषज्ञ इसके पीछे अलग-अलग कारणों को बता रहे हैं. शुरुआती दिनों में इसे उच्च पर्वतीय क्षेत्र में ग्लेशियर टूटने के रूप में देखा गया. फिर ऊपर बनी झील के टूटने के कारण घटना होने की बात कही गई. जबकि कुछ ने कहा कि ऊपरी क्षेत्र में तेज बारिश के बाद ग्लेशियर का मलबा बहने के कारण यह घटना हुई. ऐसे में अब इन तमाम कयासों और संभावनाओं से हटकर धराली आपदा की हकीकत सबके सामने आने जा रही है.उत्तरकाशी के धराली में खीर गंगा से आया मलबा कई जिंदगियों को खत्म कर गया. वैसे तो तमाम विशेषज्ञों ने आपदा के संभावित कारणों को तर्कों के जरिए बताने की कोशिश की है. लेकिन अब कयासों से हटकर धराली आपदा की हकीकत सबके सामने आने जा रही है. दरअसल, विभिन्न संस्थाओं के एक्सपर्ट इन दिनों धराली में प्राकृतिक आपदा की वजह जानने में जुटे हुए हैं. जिसपर जल्द रिपोर्ट तैयार होने की उम्मीद है.धराली में पहाड़ों के बीच से आई मुसीबत को सभी ने तस्वीरों में देखा. लेकिन ऐसा क्यों हुआ? ये राज अब भी सही रूप में खुल नहीं पाया है. हालांकि, अलग-अलग विशेषज्ञ इसके पीछे अलग-अलग कारणों को बता रहे हैं. शुरुआती दिनों में इसे उच्च पर्वतीय क्षेत्र में ग्लेशियर टूटने के रूप में देखा गया. फिर ऊपर बनी झील के टूटने के कारण घटना होने की बात कही गई. जबकि कुछ ने कहा कि ऊपरी क्षेत्र में तेज बारिश के बाद ग्लेशियर का मलबा बहने के कारण यह घटना हुई. ऐसे में अब इन तमाम कयासों और संभावनाओं से हटकर धराली आपदा की हकीकत सबके सामने आने जा रही है. उत्तराखंड में उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में बादल फटने से आई बाढ़ का दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाला था। पानी और मलबे का बहाव इतना तेज था कि बड़ी-बड़ी इमारतें पलक झपकते ही तिनकों की तरह बिखर गईं। कई लोगों को अपनी जान बचाने का मौका ही नहीं मिल पाया। गांव का करीब आधा हिस्सा मलबे के नीचे दब गया है। पचास से ज्यादा लोग अभी लापता हैं, जिनमें ग्यारह सैन्य कर्मी भी शामिल हैं। इस हादसे में जानमाल का कितना नुकसान हुआ, इसका आकलन तो बचाव एवं राहत अभियान पूरा होने के बाद ही हो पाएगा, लेकिन इस भयावह तस्वीर ने फिर इस बात का अहसास कराया है कि हमने पुराने हादसों से कोई सबक नहीं लिया।इस घटना ने वर्ष 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़ की त्रासदी की याद दिला दी है, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों की जान गई थी। तब पहाड़ी प्रदेशों में नदियों के किनारे और संवेदनशील क्षेत्रों में मानव बसावट तथा अंधाधुंध निर्माण कार्य को लेकर सवाल उठे थे, जो आज भी कायम हैं। बरसात के समय पहाड़ी इलाकों में बादल फटने की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन पिछले एक दशक में इस तरह के हादसों में तेजी आई है। खासकर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं। मौसम विज्ञानियों का मानना है कि इसका एक कारण इन दोनों राज्यों में क्षेत्रीय जलचक्र में हो रहा बदलाव है। बरसात में सामान्य से कम या ज्यादा बारिश होना तो आम है, लेकिन एक साथ तेज बारिश या बादल फटने का क्रम बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पहाड़ी राज्यों में जलवायु परिवर्तन तेजी हो रहा है और जंगलों की कटाई तथा अवैज्ञानिक तरीके से बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य इसका प्रमुख कारण है। यह सही है कि पहाड़ी इलाकों में स्थानीय लोगों को सड़क, पक्के घर और अन्य सुविधाएं मुहैया कराना जरूरी है, लेकिन विकास के इस क्रम में पर्यावरण संरक्षण का ध्यान रखना भी बहुत आवश्यक है। पर्यावरण असंतुलन बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं को जन्म देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पहाड़ी राज्यों में जलवायु परिवर्तन तेजी हो रहा है और जंगलों की कटाई तथा अवैज्ञानिक तरीके से बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य इसका प्रमुख कारण है। यह सही है कि पहाड़ी इलाकों में स्थानीय लोगों को सड़क, पक्के घर और अन्य सुविधाएं मुहैया कराना जरूरी है, लेकिन विकास के इस क्रम में पर्यावरण संरक्षण का ध्यान रखना भी बहुत आवश्यक है। पर्यावरण असंतुलन बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं को जन्म देता है। उत्तराखंड में जो विनाश हम देख रहे हैं, वह केवल प्रकृति का क्रोध नहीं, बल्कि सरकारों की आपराधिक लापरवाही और अंधाधुंध तथाकथित विकास की साजिश है। नेशनल हाईवे प्राधिकरण द्वारा सलाहकार समितियों के मानकों से अधिक चौड़ी सड़कें, पहाड़ों को काटकर सुरंगों का निर्माण, नदियों के किनारे बहुमंजिला होटल और इमारतें यह सब हिमालयी भूगोल को नष्ट करने वाले निर्णय हैं। विशेषज्ञों और भूवैज्ञानिकों की चेतावनियां बार-बार अनसुनी की गईं। ऐसे में जब गांव धंसते हैं, सड़कें टूटती हैं, लोग दब जाते हैं, तो इसके लिए प्रकृति से पहले जिम्मेदार वे नीति-निर्माता हैं जिन्होंने लालच और राजनीतिक लाभ के लिए उत्तराखंड के भविष्य से खिलवाड़ किया। उत्तराखंड में अब तक सत्ता में रही राष्ट्रीय पार्टियां, ने प्रदेश की प्रकृति, संस्कृति और अस्मिता को बर्बाद कर दिया है। दोनों ही दलों ने अपने-अपने कार्यकाल में विकास के नाम पर विनाश को बढ़ावा दिया। पर्यावरणीय जांच के बिना परियोजनाओं को स्वीकृति दी गई, स्थानीय लोगों की राय को महत्व नहीं दिया गया, और पारदर्शिता व जिम्मेदारी का सर्वथा अभाव रहा है। हाल ही में आई धराली और हर्षिल क्षेत्र की आपदा ने फिर से हमारे सामने यह स्पष्ट कर दिया है कि हिमालयी क्षेत्र में कोई भी बड़ा निर्माण कार्य कितना घातक हो सकता है। स्थानीय ग्रामीण, जो दशकों से यहां के निवासी हैं, वे बेघर हो गए हैं। फसलें तबाह हुईं, आवागमन ठप हो गया, और दर्जनों लोगों की जान चली गई। राहत कार्य शुरू हुए पर सरकार प्रकृति के सामने एक बार फिर बेबस और असहाय नजर आई। ऐसे समय में, जब राजनीतिक तंत्र और नौकरशाही निष्क्रिय प्रतीत होते हैं, वहां पूर्व सशस्त्र बलों और अर्धसैनिक बलों के समुदाय की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। हमारा प्रशिक्षण, अनुशासन और नेतृत्व की क्षमताएं हमें आम नागरिकों से अलग बनाती हैं। हमें अब केवल अपने संगठनों की बैठकों और कार्यक्रमों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। यह समय है कि हम आगे बढ़कर पीड़ितों की मदद करें राशन, कपड़े, तिरपाल, दवाइयां, श्रमशक्ति और मानसिक संबल के रूप में कार्य करें।हम सबको चाहिए कि अपने-अपने आंतरिक मतभेद और संगठनात्मक सीमाएं भूलकर एक ‘आपदा सहायता समिति’ का गठन करें। यह समिति एक संयुक्त संचालन तंत्र के रूप में काम करे, जिसका उद्देश्य राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण में सरकार से स्वतंत्र और तेजी से प्रभावी कार्य करना हो। । *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*