डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दिवाकर भट्ट का जन्म एक जुलाई 1963 को बागेश्वर जिले के कांडा क्षेत्र के पटाडुंगरी गॉव में हुआ था। वह विगत 36 वर्षों से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका आधारशिला का प्रकाशन और सम्पादन कर रहे थे। साथ ही वह अमर उजाला में रानीखेत, अल्मोड़ा व हल्द्वानी में संवाददाता और सम्पादकीय पदों पर भी रहे। पत्रकारिता में वह बैंक की नौकरी से त्यागपत्र देकर आए थे। पत्रकारिता व साहित्य क्षेत्र के सशक्त हस्ताक्षर रहे दिवाकर भट्ट अब हमारे बीच नहीं रहे। सोमवार की शाम को उन्होंने अंतिम सांस ली। कोरोना से ग्रस्त होने के बाद उनका निजी अस्पताल में उपचार चल रहा था। वह दो सप्ताह तक अस्पताल में भर्ती रहे। उनके निधन की सूचना से साहित्य व पत्रकारिता जगत में शोक छा गया है।
पीलीकोठी स्थित आफिसर्स कॉलोनी में रहने वाले 59 वर्षीय दिवाकर भट्ट कई समाचार पत्रों में लंबे समय से काम करते रहे। सक्रिय पत्रकारिता के साथ ही वह साहित्य के क्षेत्र में जुड़े हुए थे । साहित्य, कला, संस्कृति पर आधारित आधारशिला पत्रिका का 36 वर्षों से संपादन कर रहे थे। इस पत्रिका के जरिये वह देश.दुनिया में हिंदी के प्रचार की अलख जगाए हुए थे। वह 18 अप्रैल को कोरोना से ग्रस्त हो गए थे। इसके बाद उन्हें नीलकंठ अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। धीरे.धीरे उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। उन्हें आइसीयू में भर्ती किया गया। सोमवार को दिवाकर भट्ट कोरोना से जंग हार गए। उनके परिवार में उनकी पत्नी, एक बेटा व एक बेटी है। उनके निधन की सूचना फैलते ही देश.दुनिया में उनके शुभचिंतकों में शोक की लहर दौड़ गई।
वहीं भगत सिंह कोश्यारी ने अपनी पोस्ट पर लिखा कि हिन्दी को विश्वभाषा का स्थान देने के लिए समर्पित योद्धा दिवाकर भट्ट के निधन से हिन्दी के प्रचार प्रसार को आघात पहुंचा है। मेरे निजी मित्र दिवाकर का अवसान पीडादायक है। मैं लगातार उनके परिवार से संपर्क में भी रहा, लेकिन नियति को शायद कुछ और मंजूर था। हिन्दी जगत उनके राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिये गए उल्लेखनीय योगदान के लिये उन्हें सदा याद रखेगा। मैं दिवंगत आत्मा की शांति की कामना व शोक संतप्त परिवार के प्रति संवेदना प्रकट करता हूँ।
हिंदी भाषा को विश्व भर में एक विशिष्ट पहचान दिलाने और राष्ट्रसंघ की स्वीकृत भाषा का दर्जा दिलवाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देने वाले दिवाकर भट्ट के असामयिक निधन से इस क्षेत्र में जो शून्य पैदा हुआ है, उसकी भरपाई शायद ही कभी हो सके। हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए उन्होंने विश्व के तमाम देशों में बड़े.बड़े सम्मेलन आयोजित कराए। बहुत कम उम्र से ही बीते दो दशक से वे इतने गंभीर और महत्वपूर्ण मिशन में लगे थे और विश्व के हर प्रमुख देश में हिंदी के लिए कार्यरत बड़ी बड़ी संस्थाओं के पदाधिकारियों सहित अंतरराष्ट्रीय स्तर के दिग्गज साहित्यकारों से उनके बहुत घनिष्ठ संबंध थे। इनके साथ मिलकर उन्होंने हिंदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने को अपने जीवन का मकसद बनाया। मेरे परिवार के रिश्तेदार थे। मुझे आधारशिला का पाठक भी बना गये थे। उनसे अभी काफी अपेक्षाएं थी, लेकिन नियति के क्रूर पंजों ने असमय ही उन्हें हमसे छीन लिया है। आधारशिला पत्रिका चलती रहे तथा साथियों द्वारा उनका मिशन आगे बढ़ाया जाता रहे, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।