डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
सुकून का शहर देहरादून आज बेहद व्यस्त है. यहां चौक-चौराहों से लेकर मोहल्लों की गलियों तक में ढूंढे से भी शांति मिलना मुमकिन नहीं, लेकिन यादों के ब्लैक एंड वाइट में हालात इससे बेहद जुदा थे. यहां बसना हर किसी का सपना था. खासतौर पर उनका जो रिटायरमेंट के बाद जीवन की भागम भाग से दूर बाकी जिंदगी सुकून से जीना चाहते थे. जानिए रजत जयंती वर्ष पर देहरादून के छोटे से शहर से महानगर बनने तक के सफर की कहानी.देहरादून में पिछले दो दशक के दौरान सुविधाओं और विकास का खूब बोलबाला रहा है. विकास जिसमें सड़कें, फ्लाई ओवर, एक्सप्रेस वे को गिना जाता है. विकास जिसमें बड़े अस्पताल, उद्योग धंधे और शहर के फैलाव को गिना जाता है. राज्य स्थापना के 25 सालों में देहरादून को वो सब मिला है, जिसके लिए एक राजधानी हकदार होती है. वो बात अलग है कि देहरादून स्थायी राजधानी का नाम नहीं ले पाई और इसका स्थायी राजधानी के रूप में अस्तित्व डामाडोल ही रहा. देहरादून भले ही उत्तराखंड की स्थायी राजधानी ना हो, लेकिन यहां पर राजनीतिक, औद्योगिक, सामाजिक समेत दूसरी हर तरह की गतिविधियां स्थायी राजधानी वाली ही रही है. पिछले 25 सालों में जिस तेजी के साथ यहां निर्माण कार्य हुए इस तेजी के साथ जन दबाव भी बढ़ता हुआ दिखाई दिया है. देहरादून में जनसंख्या दबाव को आंकड़ों के लिहाज से समझें तो बेतहाशा तरीके से इजाफा हुआ है. यह आंकड़ा और भी बढ़ सकता है. क्योंकि, साल 2011 के बाद जनगणना ही नहीं हो पाई है. असल आंकड़ा अगले साल होने जा रहे जनगणना के बाद भी पता लग पाएगा, लेकिन दून में जनसंख्या में लगातार बढ़ रही है. इतिहास के पन्नों में देहरादून का स्वभाव और आकर नए राज्य उत्तराखंड की स्थापना के साथ ही बदलने लगा. जनसंख्या का अचानक भारी दबाव न तो यहां के लोग समझ पाए और ना ही सरकारें. यहां रहने वाले लोगों को पता ही नहीं चला कि कब यह छोटा सा शहर महानगर में तब्दील हो गया. ऐसा इसलिए भी क्योंकि इतने बड़े बदलाव के लिए इस शहर में बहुत कम वक्त लिया. उधर, यहां की सरकारें तो जैसे इन हालातों से पूरी तरह बेखबर रही. शायद यही कारण है कि शहर में अनियोजित विकास होता रहा. नतीजन शहर की शक्ल बदलती रही. जिससे दून घाटी कंक्रीट में तब्दील हो गई. कोई भी सरकार देहरादून की पुरानी पहचान के साथ इसे अस्थायी राजधानी के रूप में विकसित करने पर विचार ही नहीं कर पाई. ऐसा नहीं है कि देहरादून में बड़े संस्थान राज्य स्थापना के बाद ही आए हों. भारतीय सैन्य अकादमी ओएनजीसी सर्वे ऑफ इंडिया, फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट जैसे बड़े संस्थान देहरादून में सालों से काम कर रहे हैं. शिक्षा के क्षेत्र में तो देहरादून के संस्थानों का नाम देशभर में लिया जाता था. स्कूली शिक्षा के लिए देश भर के छात्र बेहतर शिक्षा के चलते दून पढ़ने आते थे. देहरादून की सामाजिक स्थिति भी काफी ज्यादा बदली है. यहां पर न केवल पहाड़ से बड़ी संख्या में लोगों ने आशियाना बनाया है. बल्कि, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, बिहार समेत कई राज्यों के लोग भी बड़ी संख्या में देहरादून आकर बसे हैं. इस तरह देहरादून की जनसंख्या भी मिश्रित रूप में अलग-अलग सामाजिक दृष्टिकोण वाली हुई है. कानून व्यवस्था के रूप में भी देहरादून काफी बदल गया है. कभी बेहद शांत इस घाटी में अब गोलियों की आवाज अक्सर सुनाई दी जाती है. पुलिस से अपराधियों के एनकाउंटर और डकैती, लूट, हत्या, जमीनों की धोखाधड़ी जैसी गंभीर घटनाएं भी अब आम हो गई है. खास बात ये है कि प्रदेश में गंभीर अपराधों को लेकर देहरादून की स्थिति भी चिंताजनक है. महिला अपराध के मामले में देहरादून तीसरा सबसे ज्यादा महिला अपराध वाला जिला है. पिछले तीन सालों के रिकॉर्ड के लिहाज से देहरादून में 684 गंभीर महिला अपराध से जुड़ी घटना हुई. देहरादून ने ऐसी कई यादें या पहचान है, जिन्हें खो दिया है. देहरादून जो कभी नहर का शहर भी माना जाता था. वहां अब नहरें पूरी तरह से गायब हो चुकी है. सिंचाई से लेकर पानी की विभिन्न जरूरत को पूरा करने वाली यह नहरें पाइपों में बंद कर दी गई है. इसी तरह देहरादून की लीची भी अपना रंग खोती जा रही है. यहां की बासमती की पहचान तो अब करीब-करीब पूरी तरह से खत्म हो चुकी है. यहां सड़कों पर दौड़ते तांगे, घंटाघर के करीब 5 मिनट में फोटो तैयार करके देने वाले झटपट और तमाम खेल के मैदान सब अब बिसरे दिनों की बात हो गए हैं. राज्य आंदोलनकारी उन पुरानी यादों को ताजा करते हुए देहरादून के उन दिनों को याद करते हैं. खासकर राज्य निर्माण के बाद देहरादून शहर काफी बदल गया है. 80 के दशक में वातावरण साफ होता था, लेकिन अब वातावरण प्रदूषित हो गया है. ईसी रोड से 6 नंबर पुलिया तक नहर जाती थी. जिसमें गर्मियों के मौसम में डुबकी लगाते थे, उस वक्त एसी और कूलर की जरूरत नहीं पड़ती थी, लेकिन अब सब कुछ बदल गया है. वैसे छोटा सा देहरादून अब 25 सालों में काफी बड़ा भी हो चुका है. राजपुर रोड से धर्मपुर और प्रेमनगर से रायपुर के कुछ इलाके तक देहरादून फैल गया है. जो रानीपोखरी और विकासनगर से भी जुड़ गया है. कभी 15 से 20 हजार रुपए में मिलने वाली 100 गज जमीनें अब 20 लाख में भी नहीं खरीदी जा सकती. हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि देहरादून में सब कुछ बिगड़ा ही हो. भले ही देहरादून की हालत पर्यावरण के लिहाज से खराब हुई हो, जाम की स्थिति घंटों लोगों को सड़कों पर रुकने को मजबूर कर रही हो, आपराधिक घटनाएं बढ़ी हो, नहरें, बाग बगीचे और मैदान खत्म हुए हों, लेकिन कुछ है, जो युवाओं को राहत दे रहा है. देहरादून में खुद में जो बदलाव किया है. उससे कुछ बातें ऐसी भी है, जो राहत देने वाली है. तान्या शैली कहती है कि आज पहाड़ों से पलायन करने वाले युवाओं को देहरादून पहुंचकर रोजगार मिल पा रहा है यानी देहरादून में रोजगार के अवसर पिछले 25 सालों में काफी ज्यादा बढ़ गए हैं.इसी तरह आर्थिक गतिविधियां बढ़ी है और उद्योग धंधे भी यहां स्थापित हुए हैं. स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ने के कारण अब लोगों को दूसरे राज्यों में जाने की जरूरत नहीं पड़ती. तमाम बड़े ब्रांड देहरादून में स्थापित हो चुके हैं. इस तरह रोजगार से लेकर स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा के हालात भी पहले के मुकाबले सुधर गए हैं. उत्तराखंड की राजधानी देहरादून का अपना एक समृद्ध और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है. यह शहर अपनी उपजाऊ भूमि के साथ ही बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी जाना जाता रहा है. यहां की उपजाऊ भूमि का मुख्य कारण कभी यहां नहरों का एक बड़ा जाल होना था, जो आज कहीं खो सी गई हैं. कभी नहरों के नाम से जाना जाने वाला देहरादून शहर आज कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गया है. आज यहां हर ओर बसावट नजर आती है. जिसने इस शहर के इतिहास के साथ खूबसूरती को भी छीन लिया है.किसी जमाने में देहरादून में रिस्पना जैसी बड़ी नदियां होती थी, लेकिन धीरे-धीरे होते आधुनिकरण ने यहां की नहरों की खूबसूरती छीन ली. विशेषज्ञों की मानें तो इसका मुख्य कारण शहर की नदियों का नाले में बदल जाना है. जिससे यहां की नहरों का अस्तित्व भी खतरे में आ गया. बढ़ती आबादी भी इन नहरों के खत्म होने के कारण हैं. देहरादून में जो बगीचे अब भी मौजूद हैं, उनमें भी अब वह गुणवत्ता और उत्पादन नहीं रह गया है. इसके पीछे बड़ी वजह पर्यावरण या मौसम में आए बदलाव को माना जा सकता है. देहरादून का मौसम पिछले 25 सालों में यह ज्यादा बदला है और इसका असर लीची पर भी पड़ा है. स्थिति यह है कि देहरादून की लीची जिसे दूसरे प्रदेशों और विदेशों तक में भेजा जाता था वो आज देहरादून के बाजारों में भी बड़ी मुश्किल से मिलती है..। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*












