डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का एक गीत है- गंगा जमुना जी का मुल्क मनखी घोर प्यासा… कहने को तो ये गीत सालों पहले पिछली शताब्दी में गाया गया था। लेकिन इसकी बातें अब पूरी तरह सच साबित हो रही हैं। जी हां… देश के अनेक राज्यों की प्यास बुझाने वाली गंगा और यमुना नदियों के प्रदेश के लोगों के हलक पानी के बिना सूख रहे हैं उत्तराखंड में भी पानी की किल्लत चिंता का सबब बन चुकी है. उत्तराखंड का जल संकट इसलिए भी बड़ा है क्योंकि दिल्ली की प्यास बुझाने के लिए यहां से भी पानी की सप्लाई होती है. आलम ये है कि उत्तराखंड में 477 जल स्रोत सूखने की कगार पर है. उत्तराखंड जल संस्थान के ताजे आंकड़े बेहद चिंताजनक है और इसकी वजह बारिश का ना होना और भीषण गर्मी कारण बताई जा रही है. उत्तराखंड में पानी की कमी का इसका सबसे बड़ा कारण अंधाधुंध पेड़ों का कटान और पहाड़ों में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य है. देहरादून का शिखर फॉल बड़े पैमाने पर शहर की आदि से ज्यादा आबादी की प्यास बुझाता है, लेकिन इसमें भी अब पानी कम हो गया है. उत्तराखंड इस वक्त पेयजल संकट से गुजर रहा है. 450 से ज्यादा झरने छोटी नदियां जिनका गदेरे कहा जाता है, उनमें पानी की कमी हो गई है. जल संस्थान के आंकड़ों के मुताबिक 50% से लेकर 80% तक इनमें पानी की कमी हो रही है. बारिश ना होने इसकी प्रमुख वजहों में से एक है. ऊपर से भीषण गर्मी ने समस्या और बढ़ा दी है. गढ़वाल रीजन में 263 जल स्रोत सूखने की कगार पर है. वहीं कुमाऊं रीजन में 214 स्रोत की संख्या है. जिनमें अल्मोड़ा 92, पौड़ी 72, चमोली 69 पिथौरागढ़ 47, उत्तरकाशी 36 टेहरी 37 नैनीताल 35 देहरादून 31 बागेश्वर 21 चंपावत 19 रुद्रप्रयाग 18 शामिल है. सिर्फ शहर बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी अब पानी की किल्लत हो रही है. 400 से ज्यादा बस्तियां पेयजल संकट से जूझ रही है. सरकार अब स्रोतों को बचाने के लिए अथॉरिटी बनाने की बात कर रही है. पेयजल विभाग के सचिव ने कहा कि सारा का गठन किया गया है जलागम विभाग के अंतर्गत स्प्रिंगशेड और रिवर रिजुवेनेशन एजेंसी बनाई गई है. यह एजेंसी पूरे सोर्सेज की मैपिंग करेगी, हमारे स्रोत पूरे सूखने की कगार पर नही बल्कि कुछ 25 तो 50 प्रतिशत है. इसके लिए फ्यूचर के लिए ट्रीटमेंट कैसा होना है, सारा के अंदर एक्सपट्र्स देख रहे हैं. जल स्रोतों का सूखना का कारण अंधाधुंध पेड़ों का काटना और पहाड़ों में बड़े निर्माण कार्य है तो जंगलों में वॉटर बॉडी का न बनाना भी है. निर्देशक उत्तराखंड मौसम विज्ञान केंद्र के निर्देशक बिक्रम सिंह ने कहा कि लैंडयूज़ चेंज होता है या डिफोरेस्टेशन होता है, उसे दिक्कत जरूर होती है. पहाड़ों में रोड कंस्ट्रक्शन जिसमें ब्लास्टिंग होती है जो पानी के स्रोत है वह रास्ता बदल देता है. सोशल एक्टिविस्ट ने कहा कि इसका मुख्य कारण है कि पहले पहाड़ो में चाल खाल का निर्माण होता था जिनमे पानी रूकता था और अंडरग्राउंड वॉटर रिचार्ज हो जाता था. जंगलों में आग लगने की वजह से अभी काम पूरी तरह से बंद हो गया और स्रोत रिचार्ज नहीं हो पा रहे. उत्तराखंड सरकार अब एक एक्शन प्लान ला रही है और एक कमेटी बना रही है. जिसे उत्तराखंड में पेयजल संकट को दूर किया जा सकेगा और जल्द ही जल स्रोतों को बचाने का काम भी शुरू किया जाएगा. लेकिन अगर सरकार पहले से ही एक्शन प्लान यह कमेटी लाती तो शायद उत्तराखंड में ये संकट ना खड़ा होता और नहीं लोगों को प्यास बुझाने के लिए धरने प्रदर्शन करने पड़ते. अब सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इस कमेटी की रिपोर्ट को लागू करें और जल्दी एक एक्शन प्लान तैयार करें ताकि आने वाले समय में पेयजल संकट से बचा जा सके. लिहाजा, फिर भी तमाम उपभोक्ताओं को रोज पानी नहीं मिल पाता और उन्हें पेयजल आपूर्ति के लिए पानी के टैंकर खरीदने पड़ते हैं। वहीं, आगामी मई-जून में भीषण गर्मी के दौरान घटने वाले पेयजल उत्सर्जन को लेकर लेकर जल संस्थान की चिंताएं अभी से बढ़ने लगी हैं। हाल ही में जल संस्थान की सभी शाखाओं ने अपने-अपने संभावित पेयजल समस्याग्रस्त क्षेत्रों की रिपोर्ट दी है। जिनमें भीषण गर्मी के दौरान उपभोक्ताओं काे पेयजल किल्लत का सामना करना पड़ है। गर्मी का पारा जहां धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है, वहीं जल संकट ने आमजन की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। कई इलाकों में नलों का पानी समय पर नहीं आ रहा, तो कई जगहों पर नल पूरी तरह सूख चुके हैं। ऐसे में राहत के नाम पर अब सिर्फ टैंकर ही सहारा बने हैं, लेकिन उनकी संख्या आवश्यकता के मुकाबले काफी कम है। राज्य में जिन स्रोतों में पानी की कमी आई है, उनमें खासकर गदेरे और झरने शामिल हैं. जाहिर है कि छोटे-छोटे इन पानी के स्रोतों को विकास कार्यों ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है. इसीलिए गधेरा और स्प्रिंग आधारित पेयजल योजनाओं के स्रोतों में बड़ा संकट आ चुका है. जबकि देहरादून में ही ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां एक समय जल स्रोत लोगों की पेयजल समस्या को खत्म करने के लिए अहम योगदान रखते थे, लेकिन अब टैंकरों से गर्मियों के समय पानी की आपूर्ति करना मजबूरी हो गया है. प्रकृति के साथ ज्यादा छेड़छाड़ सही नहीं है. जब ऐसा होता है तो प्रकृति खुद के स्वरूप को पुनर्स्थापित करने के लिए कुछ ऐसे बदलाव करती है जो इंसानों पर भारी पड़ सकते हैं. लिहाजा जो संकेत पेयजल को लेकर मिल रहे हैं, उन पर जल्द से जल्द गंभीर विचार कर कदम उठाना बेहद जरूरी है. नहीं तो पहाड़ से नीचे नदी तो दिखेगी, लेकिन पहाड़ पर पीने का पानी नहीं होगा. प्रदेश के 436 इलाके ऐसे हैं, जहां पानी का संकट उत्तराखंड जल संस्थान की नजर में संभावित है. जबकि ऐसे दूसरे कई और क्षेत्र भी हैं, जहां गांड गदेरे सूखने की कगार पर हैं और यहां भी पेयजल एक बड़ी समस्या बन रहा है. उधर पहले ही लेखक ये बात साफ करते रहे हैं कि अंडरग्राउंड वाटर धीरे-धीरे कम हो रहा है. जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में भी पानी के तमाम सोर्स सूख रहे हैं. इस तरह देखा जाए तो राज्य में पेयजल की समस्या एक गंभीर चिंता के रूप में सामने आई हुई दिखाई दे रही है. हाल ही में मुख्यमंत्री भी इस मामले में विभाग की समीक्षा बैठक कर चुके हैं, जिसमें राज्य में मौजूदा हालात पर चिंता जाहिर की जा चुकी है. उत्तराखंड जल संस्थान की मुख्य महाप्रबंधक नीलिमा गर्ग कहती हैं कि गर्मी में पेयजल की समस्या को देखते हुए जल संस्थान की तरफ से सभी संभावित पेयजल संकट वाले क्षेत्रों का चिन्हीकरण किया जा चुका है. इसके लिए तमाम दूसरी व्यवस्थाएं भी बनाई जा रही हैं. उधर दूसरी तरफ सरकार की दूसरी बड़ी चिंता चारधाम यात्रा भी है. जहां न केवल श्रद्धालुओं को पेयजल के संकट से दूर रखने की चुनौती है, बल्कि आसपास के क्षेत्र में रहने वाले लोगों को भी पेयजल की उपलब्धता करना जरूरी है. उसके लिए उत्तराखंड जल संस्थान ने चारधाम मार्ग में 199 टैंक टाइप स्टैंड पोस्ट, 371 पिलर टाइप स्टैंड पोस्ट, 1066 हैंडपंप और 62 चरही लगाए हैं. इसके अलावा यात्रा मार्गों पर 47 वाटर प्यूरीफायर और 39 वाटर एटीएम भी स्थापित किए गए हैं. जल संस्थान का दावा है कि पेयजल की व्यवस्था बनाने के लिए 20 टैंकर भी लगाए गए हैं और बाकी किराए के 74 टैंकर भी चिन्हित किए गए हैं. इस तरह चारधाम यात्रा पर भी उत्तराखंड जल संस्थान का पूरा फोकस है. तमाम समीक्षा बैठकों में पेयजल संकट से बचने के लिए विभिन्न उपायों पर काम करने की बात भी कहीं जा रही है. *लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*