डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखण्ड आदि काल से ही महत्वपूर्ण जड़ी.बूटियों व अन्य उपयोगी वनस्पतियों के भण्डार के रूप में विख्यात है। इस क्षेत्र में पाये जाने वाले पहाड़ों की श्रृंखलायें, जलवायु विविधता एवं सूक्ष्म वातावरणीय परिस्थितियों के कारण प्राचीनकाल से ही अति महत्वपूर्ण वनौषधियों की सुसम्पन्न सवंधिनी के रूप में जानी जाती हैं। प्राचीन काल से ही वनस्पतियों का उपयोग विभिन्न रोगों के उपचार हेतु किया जाता है। इसका प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद 3500 ईण् पूर्व में मिलता है। देश में उपलब्ध वनस्पति प्रजातियों में से लगभग 1000 किस्म के पौधे अपने विशेष औषधीय गुणों के कारण विभिन्न औषधियों में प्रयुक्त होते हैं और इनसे लगभग 8000 प्रकार के मिश्रित योग कम्पाउण्ड फारमुलेन्सस बनाये जाते हैं। जिनका विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयोग किया जाता है।
देशी चिकित्सा पद्धति जैसे आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, होम्योपैथी व प्राकृतिक चिकित्सा में प्रयुक्त दवाओं में उपयोग किये जाने वाले औषधीय पौधे विभिन्न जलवायु में फलते.फूलते हैं। इन पौधों के विभिन्न भाग जैसे जड़, तना, छाल, पत्तियां, फल, फूल व बीज आदि जंगलों से ही एकत्र किये जाते हैं। अभी तक अधिकांश वनौषधियों का प्राकृतिक स्रोतों से ही दोहन किया जा रहा है, फलस्वरूप अनेक महत्वपूर्ण औषधीय पौधे विलुप्त होने की कगार पर आ गये हैं। अगर अभी भी इनके संरक्षण हेतु उचित कदम नहीं उठाये गये तो ये वनस्पतियां सदैव के लिए विलुप्त हो जायेंगी।
इन औषधीय पौधों को उगाने से ही इन्हें विलुप्त होने से बचाया जा सकता है। आज समय की मांग है हिमालयी क्षेत्रों में विद्यमान वनौषधियों के सम्वर्धन एवं संरक्षण की, जिनसे कृषिकरण द्वारा इन बहुमूल्य वनस्पतियों का संरक्षण किया जाय तथा इन्हें व्यवसायिक तथा अनुपूरक आय के अनुकूल विकसित किया जाय। ताकि क्षेत्र में जड़ी.बूटियों के कृषिकरण से वनाें पर पड़ने वाले संग्रहण के दबाव को कम किया जा सके तथा बाजार मांग की आपूर्ति में सुनिश्चित हो सके।
च्यवनप्राश का जिक्र च्यवन संहिता में है जिसको च्यवन ऋषि ने रचा था। च्यवनप्राश आयुर्वेद का सबसे बेहतरीन व्यंजन है। यह सेहत की अधूरी जरूरतों को पूरी करता है, खासकर सर्दियों के मौसम में इसका महत्व बढ़ जाता है क्योंकि इस मौसम में शरीर की रक्षा प्रणाली कुछ कमजोर रहती है। पोषण से भरा हुआ यह रसायन शरीर में नई ऊर्जा का संचार करता है और तीनों दोषों को संतुलित करता है जड़ी.बूटियों का इस्तेमाल करके बनाया जाने वाला च्यवनप्राश एक आयुर्वेदिक उत्पाद है। सर्दी.जुखाम से बचने और इम्यूनिटी सिस्टम को बेहतर करने के लिए भी अक्सर च्यवनप्राश खाने की सलाह देती रही हैं च्यवनप्राश की शक्तियां कमजोर पड़ती जा रही हैं। ऐसा च्यवनप्राश के निर्माण में प्रयोग होने वाली 54 औषधियों में से कई के विलुप्त होने की वजह से हो रहा है।
नई दिल्ली स्थित केंद्रीय आयुर्वेद विज्ञान अनुसंधान परिषद सीसीआरएएस ने देश के सभी 32 केंद्रीय आयुर्वेद रिसर्च सेंटरों के डायरेक्टर्स और आयुर्वेद कॉलेजों को पत्र लिखा है। इसमें उन्हें आगाह किया गया है कि अष्ट वर्ग आठ औषधियों का समूह की सात औषधियों समेत कुल 32 औषधियां विलुप्तप्राय हैं। जिन इलाकों में पहले यह पर्याप्त मात्रा में मिलती थीं वहां भारी दोहन और रखरखाव के अभाव में ये विलुप्तप्राय स्थिति में पहुंच गई हैं। च्यवनप्राश में लगती हैं 54 औषधियां च्यवनप्राश बनाने में अष्ट वर्ग के साथ अग्नि मंथ, ब्रिहाती, करकट संगी, मांस पर्णी सहित करीब 54 प्रकार की औषधियां प्रयोग में लाई जाती हैं। अष्ट वर्ग शरीर को स्वस्थ रखने में सहायक होता है। अष्ट वर्ग आठ हिमालयन औषधियों रिद्धि, वृद्धि, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, छीरकाकोली से मिलकर बनता है। ये औषधियां जो नहीं मिल रहीं अग्निमंथ दो प्रकार, ब्रिहाती, भारंगी, चव्य, दारूहरिद्रा तीन प्रकार, गजपीपली, गोजीहवा, ऋषभक, जीवक, काकोली दो प्रकार, क्षीरकाकोली, करकटसरंगी, ममीरा, मासपर्णी, मेदा, मुदगापर्णी, परपाटा, दक्षिणी परपाटा, प्रसारणी, प्रतिविषा, रेवाटेसिनी, रिद्धि, सलामपंजा, सप्तारंगी, रोजा सेंटीफोलिया, उसवा व विधारा प्रमुख हैं।
अष्ट वर्ग दूर रखता है बुढ़ापा च्यवनप्राश में प्रयुक्त होने वाला अष्ट वर्ग हिमालयन प्लांट का एक समूह है। अष्ट वर्ग मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करने के साथ रक्त संचार और श्वसन तंत्र को व्यवस्थित करता है। इसके सभी अवयव शक्तिवर्धक हैं। यह बुढ़ापे को दूर रखता है। इसके लगातार सेवन से बुढ़ापा लंबी उम्र तक नहीं छू पाता। विकल्प खोजने की कोशिश अष्ट वर्ग की औषधियां विलुप्तप्राय हैं। इन दवाइयों के विकल्प का प्रयोग हो रहा है। जिन दवाइयों के विकल्प नहीं हैं उन्हें खोजने के प्रयास किए जा रहे हैं। च्यवनप्राश का प्रमुख अंग अष्ट वर्ग अब नहीं मिल पा रहा है। अष्ट वर्ग के विकल्प के रूप में सिदारीकल का उपयोग च्यवनप्राश कंपनियां कर रही हैं, लेकिन यह इसका पूर्ण विकल्प नहीं है। सिदारीकल मप्र के अमरकंटक के ढालों और सागर के आसपास के क्षेत्र में खूब पाया जाता था। भारी दोहन के कारण यह भी अब दुर्लभ स्थिति में पहुंचता जा रहा है वर्तमान आंकड़ों के तहत मूसली, अश्वगंधा, प्लाश, शंखपुष्पी, भूमि आंवला, खेर के बीज, गांद, कसीटा, धावड़ा, कमरकस जड़ी.बूटी विलुप्त हो गई हैं।
केंद्र सरकार ने औषधीय पौधों सफेद मूसली, लेमन, मेंथा, पाल्मारोजा, अश्वगंधा जैसी औषधियों को बचाने के लिए औषधीय उद्योगों के मध्य समन्वय की आवश्यकता महसूस की। इसके बाद केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय औषधीय वनस्पति समिति का गठन किया गया। समिति ने 32 औषधियों के विकास को प्राथमिकता में रखा है। इनमें आंवला, अशोक, अश्वगंधा, अतीस, बेल, भूमि अम्लाकी, ब्राह्मी, चंदन, चिराता, गुग्गल, इसबगोल, जटामांसी, कालमेघ, कोकुम, कथ, कुटकी, मुलेठी, सफेद मूसली, पत्थरचुर, पिप्पली, दारुहल्दी, केसर, सर्पगंधा, शतावरी, तुलसी, वत्सनाम, मकोय प्रजाति के विकास की योजना बनाई। इनमें कुछ विशेष प्रकार की जड़ी.बूटियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। हालात यह हैं कि जागरूकता के अभाव में लोग इन औषधीय पेड़.पौधों को नष्ट कर रहे हैं। इससे इन पेड़ों का विकास अवरुद्ध हो रहा है। कई छोटे पेड़ तो छाल निकलने के कुछ समय बाद उखड़ जाते हैं। संरक्षण की दृष्टि से प्रकृति में पेड़.पौधों एवं जीव.जन्तुओं के अस्तित्व पर नजर रखने वाली अन्तरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन अॉफ नेचर ने इस पौधे को अति संकट ग्रस्त श्रेणी में रखा हैण् कोरोना वायरस का असर उन्ही में एक है च्यवनप्राश जिसका सेवन करने से हमारा इम्यूनिटी सिस्टम मजबूत होता हैण् इम्यूनिटी सिस्टम बढ़ाने के साथ.साथ यह हमारे शरीर को कई रोगों से भी छुटकारा दिलाने में मदद करता है। उत्तराखंड को औषधि प्रदेश, यानी हर्बल स्टेट भी कहा जाता है। यहां पाई जाने वाली औषधीय गुणों की वनस्पतियों के सही उत्पादन व मार्केटिंग पहुंचना बहुत ही मुश्किल है।