डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने की मांग साठ के दशक में पहली बार उठी थी। इस मांग को उठाने वाले कोई और नहीं, बल्कि पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली थे। यही वजह रही कि उत्तराखंड क्रांति दल ने उस दौर में गैरसैंण को गढ़वाली के नाम पर चंद्रनगर रखा था।उत्तरप्रदेश से एक अलग राज्य उत्तराखंड बनाने के साथ ही उसकी राजधानी गैरसैंण को बनाने की मांग उठने लगी थी। राज्य आंदोलनकारियों और उत्तराखंड क्रांति दल ने समय-समय पर इसकी मांग के लिए आंदोलन तेज किया। उनका अलग राज्य गठन का ये संघर्ष 9 नवंबर 2000 को खत्म हुआ और उत्तराखंड को राज्य का दर्जा मिला। हालांकि फिर उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण न होकर देहरादून(अस्थाई) बन गई। इसको लेकर फिर से आंदोलन शुरू हुए और राज्य आंदोलनकारियों ने ‘पहाड़ी प्रदेश की राजधानी पहाड़ हो’ का नारा बुलंद किया। इसलिए गैरसैण को जनभावनाओं की राजधानी भी कहा जाने लगा। अलग राज्य बनने के बाद गैरसैंण की धरती पर भी राजधानी के लिए कई आंदोलन शुरू हुए और समय के साथ इसकी मांग भी तेज होने लगी। इसके बाद प्रदेश में सरकारें बदली और गैरसैंण राजधानी का सपना भी जनता को दिखाया गया, लेकिन ये हकीकत नहीं बन पाया। इसे मुद्दा बनाकर राजनीतिक दल हमेशा अपनी राजनीति चमकाते रहे। फिर 2014 सरकार के शासनकाल में गैरसैंण राजधानी की उम्मीदें एकबार फिर प्रबल हुई और तत्कालीन सीएम ने यहां विधानसभा भवन, सचिवालय, ट्रांजिट हॉस्टल और विधायक आवास का शिलान्यस किया। इसके बाद पूर्व सीएम के कार्यकाल के दौरान ये बनकर तैयार हुए, जिसके बाद से अब तक यहां छह सत्र आयोजित हो चुके हैं। देवभूमि उत्तराखंड राज्य आज अपने स्थापना दिवस के 24 साल पूरे कर चुका है । लेकिन आज भी राज्य की स्थायी राजधानी का सबसे प्रमुख सवाल ज्यों का त्यों ही बना हुआ है। पहाड़ों के डानों कानों से लेकर भाभर तराई तक हर व्यक्ति गैरसैंण को राजधानी बनते देखना चाहता है। गैरसैंण के लिए देखे गए इस सपने को साकार करने के लिए पिछले कई सालों में कमेटियां बनी, आंदोलन हुए और सरकारों ने आश्वासन भी दिए लेकिन सब का रिजल्ट शून्य ही रहा। गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग राज्य बनने से भी पहले की है। तकरीबन 1960 के दशक की ये मांग तब और तेज हो गई जब उत्तराखंड एक अलग राज्य बना। हालांकि इसके बाद कई सरकारें आई और गई। हर किसी ने गैरसैंण के मुद्दे पर अपनी सियासी रोटियां भी सेंकी लेकिन आज-तक किसी ने गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने के लिए एक कदम भी नहीं बढ़ाया। उत्तराखंड राज्य के गठन को 24 साल पूरे होने के बाद भी गैरसैंण के स्थायी राजधानी बनने का सपना आज भी सपना ही है। गैरसैंण का नाम सुनते ही पहली चीज जो दिमाग में आती है स्थाई राजधानी। इसी के साथ सवाल भी आता है कि क्यों उत्तराखंड के वासी गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाना चाहते हैं ? इसका जवाब आपको राज्य आंदोलनकारियों के इस नारे में पहाड़ी प्रदेश की राजधानी पहाड़ हो में ही मिल जाएगा। दरअसल राज्य आंदोलन के दौर से ही उत्तराखंडवासी चाहते थे की पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड की राजधानी पहाड़ों में ही हो ताकी सरकार पहाड़ चढ़कर पहाड़ों की पीड़ा को समझ पाएं और यहां का विकास हो सके। इसी तर्ज पर तो हमारा राज्य बना था।. गैरसैंण राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त जगह गैरसैंण इसलिए है क्योंकि ये कुमांऊ और गढ़वाल दोनों मंडलों का केंद्र है। जिस वजह से दोनों तरफ के लोगों के लिए यहां आना-जाना आसान है। उत्तराखंड के बीचों-बीच में होने की वजह से गैरसैंण में स्थानीय तौर पर गढ़वाली और कुमाऊंनी दोनों ही बोलियां बोली जाती हैं और यहां दोनों ही संस्कृति का समावेश भी है। गैरसैंण निर्विवादित रुप से स्थाई राजधानी के लिए पहाड़ियों की पहली पसंद था। इस वजह से गैरसैंण को जनभावनाओं की राजधानी भी कहा जाने लगा। 1960 के दौर में उस वक्त उत्तर प्रदेश सरकार में भाजपा के पर्वतीय विकास मंत्री के पद पर डॉनिशंक’ तैनात थे। उनकी अगुवाई सात कैबिनेट मंत्री गैरसैंण पहुंचे और वहां शिलान्यास के तीन सरकारी पत्थर लगा कर आए। इसके बाद साल 1992 में उत्तराखंड क्रांति दल ने गैरसैंण को प्रस्तावित उत्तराखंड राज्य की राजधानी घोषित किया गया। यही नहीं साल 1994 में उत्तराखंड क्रांति दल ने गैरसैंण को राजधानी बनाने के अपने संकल्प को मजबूती देने के लिए एक बड़ी फ्ईंट-गारा रैलीय् का आयोजन किया। लेकिन कुछ ही दिनों बाद वहां लाई गई ईंटें और रोड़ी गायब हो गई। इसके साथ ही इस दौरान 157 दिनों का क्रमिक अनशन भी किया गया था। चार जनवरी 1994 को ततकालीन उत्तरप्रदेश सरकार की कैबिनेट बैठक में अलग उत्तराखंड राज्य के हर पहलू पर विचार करने के लिए नगर विकास मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में कौशिक कमेटी बनाई गई। इस कमेटी ने 5 बैठकें कर 13 सुझावों के साथ 68 पन्नों की एक रिपोर्ट तैयार की। 12 जनवरी 1994 को लखनऊ में इस समिति की पहली बैठक हुई। इसके बाद 30-31 जनवरी को दूसरी बैठक अल्मोड़ा में की गई। 7-8 फरवरी को तीसरी बैठक पौड़ी में, 17 फरवरी को चौथी काशीपुर में और 15 मार्च को पांचवी बैठक लखनऊ में हुई। कौशिक कमेटी ने पूरे उत्तराखंड का भ्रमण किया और 30 अप्रैल 1994 को अपनी रिपोर्ट जमा कर दी। 9 नवंबर, 2000 को उत्तरांचल का हुआ गठन: कौशिक समिति कि सिफारिशों के एक हिस्से को स्वीकार करते हुए 9 नवंबर, 2000 को उत्तरांचल के नाम से एक नए पर्वतीय राज्य का गठन हुआ। लेकिन राजधानी का सवाल राज्य सरकार पर छोड़ दिया गया। फिर केंद्र सरकार ने उत्तरांचल के पहले मुख्यमंत्री के रुप में हरियाणा के नित्यानंद स्वामी को कार्यभार सौंपा और अस्थायी राजधानी देहरादून बना दी। अब एक तरफ प्रदेश वासियों के मन में अलग राज्य बनने की खुशी तो थी तो वहीं दूसरी ओर उत्तराखंड का नाम उत्तराचंल और देहरादून को अस्थाई राजधानी बनाने का गम भी था। जिसके लिए पृथक राज्य बनने के बाद भी प्रदेश में आंदोलन होते रहे और कई रैलियां निकाली गई। बाबा मोहन उत्तराखंडी ने तो राजधानी के लिए 13 बार अमरण अनशन किया और अपनी जान भी गंवा दी। स्थायी राजधानी की समस्या को सुलझाने के लिए नित्यानंद स्वामी ने एक आयोग का गठन किया। 11 जनवरी 2001 को स्थायी राजधानी तय करने के लिए एक सदस्यी आयोग बनाया गया और जन विरोध के चलते इसे भंग भी कर दिया गया। नवंबर 2002 में इस आयोग एक बार फिर सक्रिय किया गया। एक फरवारी 2003 को आयोग का कार्यभार संभाला। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट तैयार करने में सालों का समय लगा दिया। कमेटी ने तीन चरणों में अपनी रिपोर्ट दी लेकिन इसके बादजूद गैरसैंण स्थायी राजधानी नहीं बन पाई। बता दें कि गैरसैंण को भारतीय भू वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के साथ-साथ फ्रांस के टाउन प्लानर ने भी राजधानी के लिए उपयुक्त बताया था। लेकिन सरकारों ने देहरादून में जिस स्तर पर निर्माण करवाना शुरु कर दिया था। वो भी तब जब स्थायी राजधानी डिसाइड की ही जा रही थी। उससे ये साफ था की सरकार देहरादून को ही राजधानी बनाना चाहती है। हालांकि पक्ष और विपक्ष गैरसैंण को राजधानी बनाने का राग जरूर अलाप रहा था। राजधानी के तौर पर गैरसैंण का नाम सबसे पहले साठ के दशक में वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने आगे किया था। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के साथ ही गैरसैण को प्रस्तावित राजधानी माना गया। उत्तराखंड क्रांति दल ने 1992 में गैरसैंण को उत्तराखंड की औपचारिक राजधानी तक घोषित कर दिया था। यही नहीं, यूकेडी ने पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के नाम पर गैरसैंण में एक पत्थर रख इसका नाम चंद्रनगर रख दिया था। 1994 में गैरसैंण राजधानी को लेकर लेकर क्रमिक अनशन भी किया गया और फिर इसी साल तत्कालीन सरकार की रमाशंकर कौशिक की अगुआई वाली एक समीति ने उत्तराखंड राज्य के साथ-साथ गैरसैंण राजधानी की भी अनुशंसा की थी। जरा सा याद कर लो अपने वायदे जुबान को, गर तुम्हे अपनी जुबां का कहा याद आए ये लाइनें उन राजनेताओं और राजनीतिक दलों के लिए सटीक बैठती हैं, जो सत्ता में आने के लिए तो तमाम वादे कर देते हैं. लेकिन धरातल पर उतारने के लिए प्रयासरत नहीं दिखाई देते हैं. उत्तराखंड में भी कुछ ऐसे ही मुद्दे और वादे हैं, जो साल दर साल वक्त के साथ पुराने तो हो रहे हैं. लेकिन उन पर सियासत की रोटियां सेकने के सिवाय कभी गंभीरता से कोई काम नहीं हो पायावैसे तो 24 साल का समय कुछ कम नहीं होता, लेकिन राजनेताओं को अपने वादों को लेकर ये समय भी कम ही नजर आता है. उत्तराखंड में पिछले 25 सालों में 5 निर्वाचित सरकारें रही हैं. इस दौरान ऐसे कई मुद्दे राजनीतिक दलों के एजेंडे में रहे हैं, जिसने जनता को चुनावी दौर में रिझाने की कोशिश तो की. लेकिन आज तक इन पर गंभीर प्रयास नहीं हो पाए. इसकी वैसे तो अपनी अलग-अलग कई वजह हो सकती हैं. लेकिन प्रदेश निर्माण को लेकर सड़कों पर आंदोलन करने वाले राज्य जानकारी मानते हैं कि इसकी सबसे बड़ी वजह उत्तराखंड में सरकारों का रिमोट कंट्रोल केंद्र के हाथों में होना हैउत्तराखंड में गैरसैंण राज्य आंदोलन से लेकर सरकार के घोषणा पत्र तक में शामिल रहा है. पहाड़ी प्रदेश की राजधानी पहाड़ पर हो और इससे पहाड़ों में विकास की रफ्तार को तेज किया जाए. कुछ इसी सोच के साथ गैरसैंण को ही स्थाई राजधानी बनाने की हमेशा से ही मांग रही. लेकिन पहले कम जानकारी और सत्ता पाने तक का मकसद लिए राजनीतिक दलों ने देहरादून को ही स्थाई राजधानी घोषित किया. इसके बाद राजनीतिक दलों के एजेंडे में गैरसैंण रहा, लेकिन इस पर प्रयास नहीं हुए. हालांकि, ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया है. लेकिन गैरसैंण केवल नाम की ही राजधानी रही और ना तो ग्रीष्मकाल में यहां पर सरकार जाने की हिम्मत जुटा पाई और ना ही स्थाई राजधानी की दिशा में कोई काम हो पाया. भराड़ीसैण (गैरसैंण) को ग्रीष्मकालीन राजधानी बना दिया गया। क्या इसे केवल एक घटना मात्र के तौर पर लिया जाना चाहिए। राज्य बनने के 20 साल बाद गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने के क्या मायने हैं। सबसे पहले जानना होगा कि गैरसैंण क्या है और अगर गैरसैंण को जानना है तो लम्बे समय तक चले राज्य आंदोलन और इसकी भावनाओं को समझना होगा।उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की लड़ाई लगभग पांच दशक से अधिक समय से लड़ी जाती रही है। तब पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की परिकल्पना की गई थी। पर्वतीय क्षेत्रों के विकास की उम्मीद को केन्द्र में रखकर ही उत्तराखण्ड के निर्माण की लड़ाई लड़ी गई थी। राज्य निर्माण आन्दोलन के शुरूआती दौर से ही गैरसैंण को राजधानी बनाये जाने की संकल्पना हर आंदोलनकारी के मन में रही। वीर चंद्र सिंह गढवाली की तपोभूमि और जन भावनाओं से जुड़ा यह क्षेत्र उत्तराखण्ड वासियों के लिये केवल एक स्थान नहीं बल्कि एक विचार भी है। यह गढ़वाल और कुमाऊ की सांस्कृतिक परम्पराओं के समन्वय स्थल है। गैरसैंण, उत्तराखण्ड की अस्मिता से जुड़ा विषय भी रहा है। गैरसैंण शब्द का उच्चारण करते ही राज्य आंदोलन की तमाम घटनाओं के दृश्य हर उत्तराखण्डी के मन-मस्तिष्क में चलने लगते गैरसैंण हरेक राज्य आंदोलनकारियों की आत्मा में बसता है।गैरसैंण राजधानी के नाम पर उत्तराखंड के लोगों को बेवकूफ बनाना बंद करो’ उत्तराखंड की अस्थाई राजधानी गैरसैंण पर नैनीताल हाईकोर्ट के जज जस्टिस श्री राकेश थपलियाल जी ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा नैनीताल हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस राकेश थपलियाल की कोर्ट की लाइव स्ट्रीमिंग की एक फुटेज सामने आई है। जिसमें वह राजधानी गैरसैंण के मुद्दे पर बेहद तल्ख नजर आ रहे हैं। वह कड़ी टिप्पणी करते हुए सवाल कर रहे हैं कि उत्तराखंड की पब्लिक क्या बेवकूफ है? चुनाव जीतने के लिए उन्हें गैरसैंण स्थाई राजधानी का झुनझुना थमाओ और फिर सो जाओ। यह टिप्पणी उन्होंने एक मामले में सुनवाई करते हुए कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री के ताजा बयान पर की। जिसमें कहा कि अगर वर्ष 2027 में जनता कांग्रेस को सत्ता में लाती है तो वह गैरसैंण को उत्तराखंड की स्थाई राजधानी घोषित कर देंगे। विकास में असमानता पर जस्टिस थपलियाल ने कहा कि यदि शुरू से ही यह प्रदेश हिल कैपिटल वाला होता तो पहाड़ की सूरत बदल जाती। गांव-गांव में अस्पताल, स्कूल, बिजली आदि सुविधाएं होती। लेकिन, अफसोस कि विकास का पैमाना बस देहरादून बन गया है। सारा विकास केवल देहरादून में किया जा रहा है। गैरसैंण के मुद्दे पर जस्टिस राकेश थपलियाल की तल्खी महज एक सख्त टिप्पणी नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक दलों की ओछी मानसिकता पर भी करारी चोट है। इस टिप्पणी के बहाने यह बात भी बेपर्दा हो चुकी है कि स्थाई राजधानी गैरसैंण सिर्फ एक राजनीतिक मुद्दाभर रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि हाई कोर्ट से निकली यह बात राजनीतिक दलों को भीतर तक झकझोरेगी और जनता के भीतर दबी हुई टीस को नई दिशा मिलेगी। सरकार पर भी कटाक्ष पर कहा कि “इन लोगों को बस अटैची लेकर जाना है। अगर हिल में राजधानी होती तो आज ये उत्तराखंड स्टेट कुछ और होता। गांव-गांव में हॉस्पिटल होते, गांव-गांव में स्कूल होते और गांव-गांव में लाइट होती। क्यों ना हम गैरसैंण में होने वाला विधानसभा सत्र को ही रोक दें।” उत्तराखंड की सरकार विकास के नाम पर विनाश करती जा रही है. सरकारों की नीतियों में विकास के नाम पर सबसे पहले पेड़ों का कटान किया जा रहा है, ये नेताओं और नीति नियंताओं की सबसे बड़ी कमी है. पर्यावरणविद् का कहना है कि आज हम सबको इस बारे में सोचने की जरूरत है. उन्होंने कहा हम अपने आनी वाली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़कर जा रहे हैं? ये सोचे जाने की जरूरत है. दोनों प्रमुख दलों ने प्रदेश को मुख्यमंत्री तो दिए, लेकिन जननेता नहीं। सत्ता के सिंहासन पर बारी-बारी से दल तो बदले, लेकिन तौर-तरीके नहीं। इन वर्षो में राज्य की राजधानी का मसला तक नहीं सुलझ पाया। आज राज्य के पास गैरसैंण में शीतकालीन राजधानी है व देहरादून में अस्थायी राजधानी। भावनाओं की कीमत पर जमीनी हकीकत से किनारा न किया गया होता तो 24 सालों में स्थायी राजधानी तो मिल ही गई होती। नौकरशाही का खामियाजा आमजन ने भुगता, लेकिन सत्ताधारी तो इसमें भी मुनाफा कमा गए। हर विफलता के लिए नौकरशाही को कोसने वाले सफेदपोश व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थी ही रहे हैं।जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं। आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, बाकी सारी तिकड़म की राजनीति वहां भी है और यहां भी। राजनीतिक दलों ने स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर भी एक से बढ़कर एक दावे किए. भाजपा ने तो एयर एंबुलेंस तक की शुरुआत करने की बात कही लेकिन जनता की अपेक्षाओं के अनुसार पहाड़ पर स्वास्थ्य सुविधाओं को जुटाने में कोई भी सरकार कामयाब नहीं हो पाई. हालात यह हैं कि मामूली सी बीमारी के लिए भी पहाड़ के लोगों को हजारों लाखों रुपए खर्च कर मैदानों में आना पड़ता है. उधर, सामान्य मेडिकल से जुड़ी मशीनें भी पहाड़ी जनपदों में मौजूद नहीं है. इसके लिए भी लोग हल्द्वानी या देहरादून पर ही निर्भर दिखाई देते हैं. यानी स्वास्थ्य के मामले पर भी राजनीतिक दलों ने अपने वादों को पूरी तरह से भुला दिया. उत्तराखंड की डेमोग्राफी चेंज हो रही है. प्रदेश से पलायन होने के बावजूद 40 लाख बाहरी लोग उत्तराखंड के स्थायी निवासी बन गए हैं. जिस कारण आज हमारे रोजगार पर भी बाहरी लोगों द्वारा डाका डाला जा रहा है. । दिक्षित समिति की रिपोर्ट आज पड़े-पड़े धूल फांक रही है और जनता अभी भी उस दिन का इंतजार कर रही है जब उनके सपनों की राजधानी पहाड़ों में आकार लेगी।लेकिन सवाल तो यही है की योजनाएं धरातल पर क्यों नहीं उतरती है.। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*