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गंगाजल कभी खराब नहीं होता, क्या है वजह?

25/07/19
in उत्तराखंड, संस्कृति, हेल्थ
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डा.हरीश चन्द्र अन्डोला
हिन्दू धर्म में गंगा नदी का एक ख़ास स्थान है और इसे सबसे पवित्र नदी माना गया है और इससे जुडी सबसे ख़ास बात ये है की इस नदी का पानी कभी ख़राब नहीं होता। ऐसा माना जाता है की गंगा नदी में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। साधारण पानी को कई दिनों तक रखा जाये तो वो ख़राब हो जाता है लेकिन गंगा जल को चाहे कितने भी समय रखो वो खराब नहीं होता। ऐसा कहा जाता है की पुराने समय में जब अंग्रेज भारत से इंग्लैंड जाते थे तो अपने पीने के लिए पानी ले जाते थे लेकिन वो रास्ते में खराब हो जाता था इसीलिए वो अपने साथ गंगाजल लेकर जाते थे क्योंकि वो ख़राब नहीं होता।
सिर्फ हिन्दू मान्यता ही नहीं बल्कि वैज्ञानिकों के शोध में भी ये पाया गया है की गंगा का पानी कभी ख़राब नहीं होता और इसमें बैक्टीरिया को मारने की क्षमता है। लेकिन ये सवाल आपके मन में भी आता होगा की ऐसी क्या खासियत है की गंगा का पानी कभी ख़राब नहीं होताघ् तो आइये आपको बताते हैं इसके पीछे के वैज्ञानिक कारण के बारे में। दरअसल गंगा नदी हिमालय की कोख गंगोत्री से निकल कर कई चट्टानों से होती हुई हरिद्वार में अलकनंदा से मिलती है और इसमें गंधकए सल्फरए खनिजए खास लवण और जड़ीबूटियां मिल जाती हैं और इसी कारण ये जल कहीं ज्यादा शुद्ध और औषधीय गुणों से परिपूर्ण हो जाता है। वैज्ञानिक शोधों के अनुसार गंगाजल में ऐसे जीवाणु होते हैं जो पानी को सड़ाने वाले कीटाणुओं को पैदा ही नहीं होने देते और इसी वजह से गंगा का पानी लंबे समय तक खराब नहीं होता। वैज्ञानिकों के अनुसार गंगाजल में एक ख़ास बैक्टीरिया पाया जाता है जिसका नाम है बैट्रिया फोस जो पानी के अंदर रसायनिक क्रियाओं के जरिये ऐसे बैक्टीरिया को नष्ट करता रहता है जो पानी को ख़राब करते हैं और ऐसे में ये जल हमेशा शुद्ध बना रहता है। इसके अलावा गंगाजल में कई भू.रासायनिक क्रियाएं भी होती रहती हैं जो इस जल को ख़राब करने वाले कीड़े पनपने ही नहीं देती। देश विदेश के कई महान वैज्ञानिकों ने गंगाजल पर अपना शोध किया और माना की गंगाजल सबसे शुद्ध और पवित्र है। वैज्ञानिकों के अनुसार गंगाजल से स्नान करने और इसे पीने से हैजाए प्लेगए मलेरिया और अन्य बिमारियों वाले कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। इसी कारण वैज्ञानिकों ने भी माना है की गंगाजल सही मायनों में पीने लायक है। गंगाजल की शुद्धता के प्रमाण के लिए एक बार ब्रिटिश सरकार के डॉण् हैकिन्स भारत आये और उन्होंने गंगाजल में हैजे के कीटाणु डाले और परिणामस्वरूप ये कीटाणु मात्र 6 घंटें में ही मर गए जबकि इन्ही कीटाणुओं को साधारण पानी में डाला गया तो कुछ ही देर में इन कीटाणुओं की संख्या बढ़ गई। ऐसे ही कई वैज्ञानिक शोधों से इस बात के प्रमाण मिले की गंगाजल सबसे शुद्ध जल है जो कभी ख़राब नहीं होता और वैज्ञानिकों ने भी माना की ये जल सबसे पवित्र है।
हिंदू धर्म में गंगाजल को अमृत माना गया है जिससे स्नान करने से हमारे सभी पाप और रोग दूर हो जाते हैं। हिन्दू धर्म में माना जाता है की मृत्यु से पहले अगर कोई गंगाजल का सेवन करता है तो उसे मरणोपरांत स्वर्ग में स्थान मिलता है। तो अब आप सभी को भी यकीन हो गया होगा की क्यों गंगाजल सबसे पवित्र और शुद्ध जल है। वो वनस्पतियाँ जो गंगा जल को अमृत बनाती हैं गंगाजल कभी खराब नहीं होता है। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह है कि गौमुख से गंगोत्री तक की गंगायात्रा में हिमालय पर्वत पर उगी ढेर सारी जड़ी.बूटियां गंगा जल को स्पर्श कर अमृत बनाती हैं। साथ ही गंगा जल में बैट्रियाफौस नामक पाये जाने वाला बैक्टीरिया अवांछनीय पदार्थों को खाकर शुद्ध बनाये रखता है। और दूसरा बड़ा कारण है कि हिमालय की मिट्टी में गंधक होता है जो गंगा जल में घुलकर गंगा जल को शुद्ध बनाता है। संस्कार और संस्कृति में हजारों सालों से गंगा को माँ और गंगाजल को अमृत मानने वाले उत्तराखण्ड में पीने के पानी की स्वच्छता पर परम्परागत रूप से विशेष ध्यान दिया जाता था। पानी को मस्तिष्क के लिए सर्वाधिक प्रभावित करने वाला कारक माना जाता है। इसलिए भी द्विज लोग सिर्फ अपने हाथ का स्वच्छ जल ही प्रयोग करते थे। खासकर बौद्धिक कार्य करने वाला ब्राह्मण वर्ग अपने उपयोग में लाने वाले जल को दूसरों को या बच्चों को छूने भी नहीं देता था। इस शुद्धता की महत्ता कृषिए व्यापार या युद्ध प्रिय व्यक्ति अथवा सेवक नहीं समझ सके। खान.पान की शुद्धता भी इसी आधार पर थी। रसोई पूरी तरह स्वच्छ रहे इसके लिए बच्चों तक को रसोई के पास फटकने नहीं दिया जाता था। आज यद्यपि कुछ सतही मानसिकता के लोगों द्वारा इसे मनुवाद के नाम से तिरोहित किया जा रहा है परन्तु इस शुद्धता का यह पक्ष भी देखा जाना अनिवार्य है कि आज भी नैतिकता या मर्यादा के विरूद्ध काम करने वाले व्यक्ति को पानी से अलग कर देते हैं। यह सबसे बड़ा सामाजिक दण्ड है। कहने का आशय यह है कि अपराधी कार्य करने वाला व्यक्ति समाज के साथ भी अपराध कर सकता है इसलिए ऐसे अपराधी से सबसे पहले जल की सुरक्षा करनी चाहिए। यह तथ्य इस बात का प्रतीक है कि प्राचीन समाज पानी की स्वच्छता के प्रति कितना संवेदनशील था।
आज भी उत्तराखण्ड में पानी की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए परम्परागत उपायों को व्यवहार में क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए लम्बी रेशेदार हरी शैवाल कायी पानी को प्राणियों के पाने के अनुकूल बनाने में सहायक सिद्ध होती है और शैवाल से गुजरने वाला पानी मनुष्य आदि सभी जीव जन्तुओं के लिए कम हानिकारक होता है। यह विशेष प्रकार की शैवाल पांच हजार फिट से अधिक ऊँचाई पर पायी जाती है। जबकि इसकी अपेक्षा कम ऊँचाई पर पायी जानी वाली शैवाल कतिपय स्थानों पर खासकर मैदानों में जहरीली भी होती है। उत्तराखण्ड में ऐसी हजारों.हजार जड़ी बूटियां है जो पानी को साफ एवं स्वच्छ रखने में सहायक होती हैं। तुलसीए पुदीनाए पिपरमेंन्टए फर्न घासए बज्रदन्तीए बज आदि जड़ी.बूटियों को प्राचीन काल में लोग पेयजल स्रोतों के आस.पास लगाते थे। हमारे गांवों में आज भी ये जड़ी.बूटियां पेयजल स्रोतों के आस.पास प्राप्त होती है। लेकिन जब से प्राकृतिक स्रोतों को तोड़कर नेचुरल फिल्टरेशन की बात नजरंदाज कर सीमेंट आदि रसायनों से चैम्बरों का निर्माण किया गया तो प्राचीन अवधारणा ही नष्ट हो गयी। ध्यान रखने वाली बात यह है कि शैवाल प्राकृतिक स्रोतों से निकलने वाली बारिक रेत की रोकती है और जीवाणु तथा बारीक जन्तुओं को भीए जबकि पुदीना व पीपरमेन्ट जल से मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्वों को ग्रहण कर उसे उपयोगी और स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद बनाते हैं। इसी प्रकार दूबए ब्राह्मी व बज कीटाणु नाशक होने के साथ.साथ बुद्धिवर्द्धक एवं स्वास्थ्य बर्द्धक हैं। समोया सुगन्ध बाला आदि औषधियां जल में रूचिकर व विरेचक गुणों को उत्पन्न करती हैं जबकि फर्न घास पानी में विचरण करने वाले केकड़ेए मेढ़कए मछलीए सांपए आदि जीव जन्तुओं द्वारा छोड़े गये अवशिष्टों को ग्रहण कर पानी को ताजा व शुद्ध बनाये रखती है। तुलसी आदि वनस्पतियों के गुणों से तो सभी विज्ञ हैं। गंगा जल को अमृत बनाने वालीध्कुछ जड़ी.बूटियों की सूची अतीस जटामांसी रतन जोत अमलीच जोगीपादशाह रूद्रवन्ती अडूसा जंगली इसबगोल लालजड़ी अजगन्धा जंगली कालीमिर्च लांगली अजमोदा जरूग ;मत्ता जोड़द्ध लाटूफरण पांगरी असगन्ध जोंक मारी सतावर अपामार्ग टिमरू सर्पगन्धा आक टंकारी शंख पुष्पी उस्तखट्टूस जेलू आर्चा सतवा इन्द्रायण दूब समोया इन्द्रजटा दुधिया अतीस सालम पंजा कण्डाली दुग्ध फेनी सालम मिश्री कण्चकारी धोय कुणज कपूर 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देवताओं को भी दुर्लभ है। परन्तु आज कुमकुम का वृक्ष धरती से लुप्तप्राय हो रहा है ऐसे में कुमकुम का पेयजल की दृष्टि से भी संरक्षण आवश्यक है।दूसरा महत्वपूर्ण वृक्ष सुराई है। सुराई की जड़ों से निसृत होने वाला पानी न केवल स्वास्थ्य वर्द्धक है बल्कि जिन गॉवों में भी पानी के स्रोतों पर सुराई का पेड़ हैं वहां के लोग गोरे.चिट्टेए साफ रंगए निरोगए सुन्दरए अधिकांश दोहरे बदन के सुडोल आकर्षक एवं दीर्घायु होते हैं। गेरीए पेरीए सुतोलए सणकोटए काण्डाए आदि गांवों में जहां पानी के स्रोतों पर सुराई के विशाल वृक्ष हैं वहां के लोगों को देखकर यह बात स्वयंसिद्ध हो जाती हैए जबकि बॉजए बुरांश व काफल की जड़ों से निसृत होने वाला जल मधुरए सुपाच्यए भूख बढाने वाला निरोगी एवं स्वास्थ्यबर्द्धक तथा अत्यन्त गुणकारी होता है। उत्तराखण्ड हिमालय में ऐसे अनेकों वृक्ष एवं झाड़ियां हैं जो जल की गुणवत्ता बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती हैं। पानी की गुणवत्ता को बढ़ाने वाली दुर्लभ मृदा प्रजातियां महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चाहे जड़ी बूटियां और वृक्षों के रोपण से पानी की गुणवत्ता सुधारी जाय या आधुनिक हाईजनिक फिल्टरों से लेकिन उपभोक्ताओं को मानकों के अनुरूप पेयजल उपलब्ध होना ही चाहिए। इस प्रकार जिन गांवों में पेयजल स्रोतों से जल उपलब्ध होता है वहां के लिए प्राकृतिक पद्धति एवं जिन गांवों में पेयजल की पाइप लाइन है वहां फिल्टर की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। लेकिन इसके ठीक विपरीत आज हो रहा है। उपयोगी जड़ी बूटियों झाड़ियों एवं वृक्षों की कमी के कारण कतिपय स्थानों पर सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। ऐसे स्थानों पर वनस्पति के नाम पर राजस्थानीए मरूस्थली या शुष्क क्षेत्रों की तरह नागफनीए लेन्टाना आदि कैक्टस प्रजाति की झाड़ियां उग रही हैं जिससे पानी के स्वाद व गुणवत्ता में लगातार कमी आ रही है। जल की गुणवत्ता समाप्त करने वाली कुछ मुख्य वनस्पतियों की उपरोक्त वनस्पतियां जो उत्तराखण्ड के मध्य हिमालय में पायी जाती हैंए उनमें यूकेलिप्टसए पौपुलस और सिल्वर ओक ही ऐसे वृक्ष हैं जो पानी वाले स्थानों में आसानी से उग जाते हैं शेष लगभग सारी वनस्पति शुष्क स्थानों में उगती हैं। प्रकृति की व्यवस्था देखिए शुष्क व वनस्पति विहीन क्षेत्रों में वह अंत में ऐसी वनस्पति उगति हैं जिन्हें मनुष्य व पशु हानि न पहुँचा सकें और बाद में इन्ही वनस्पतियों के सहारे उपयोगी वनस्पति भी उगनी प्रारम्भ होती है और प्रकृति पारिस्थितिकीय संतुलन स्थापित करने का प्रयास करती है।

संदर्भ- डॉ भगवती प्रसाद पुरोहित के लेख के आधार पर
लेखक का परिचयः-
लेखक कार्बनिक रसायन शास्त्र में 2009 में डी0फिल की उपाधि हेमवन्ती नन्दन बहुगुणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर, गढ़वाल द्वारा प्राप्त की गयी। लेखक द्वारा पर्यावरण एवं पादप रसायन शास्त्र में 105 शोध पत्रों का अन्तराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय शोध पत्रों में प्रकाशित किये गये इसके अलावा 25 लोकप्रिय लेख विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशितत किये गये हैं। लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के अन्तर्गत वैज्ञानिक बी0 रसायन के पद पर पांच वर्षों का अनुभव प्राप्त किया। विगत 15 वर्षों से औषधीय एवं सुगन्ध पादपों के क्षेत्र में शोध एवं विकास कार्य कर रहे है। वर्तमान दून विश्वविद्वालय में तकनीकी, अधिकारी के पद पर कार्यरत है।

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