डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देश की सेना में हर 100वां सैनिक उत्तराखंड का है। किसी भी सेना का जिक्र होता है तो उसमें कम जनसंख्या घनत्व वाले उत्तराखंड का नाम गौरव से लिया जाता है। आजादी से पहले हो या बाद में, उत्तराखंड का नाम हमेशा सेना के गौरव से जुड़ा रहा है। आलम यह है कि हर साल उत्तराखंड के करीब नौ हजार युवा सेना में शामिल होते हैं। राज्य में 1,69,519 पूर्व सैनिकों के साथ ही करीब 72 हजार सेवारत सैनिक हैं। वर्ष 1948 के कबायली हमले से लेकर कारगिल युद्ध और इसके बाद आतंकवादियों के खिलाफ चले अभियान में उत्तराखंड के सैनिकों की अहम भूमिका रही है। खास बात यह है कि उत्तराखंड के युवा अंग्रेजी हुकूमत में भी पहली पसंद में रहते थे।
चमोली जिले में बिचला नागपुर पट्टी के सरमोला गाँव में नागवंशीय चैहान परिवार में 20 फरवरी 1886 को गढ़वाल राइफल्स के इस नायक का जन्म हुआ था। गढ़वाल रेजिमेंटल सेंटर लैंसडाउन ने 1987 में प्रकाशित शताब्दी स्मारिका में पूरे पृष्ट पर धूम सिंह चैहान जी का चित्र प्रकाशित किया है। इस स्मारिका में ये गौरव प्राप्त करने वाले वे एकमात्र भारतीय ऑफिसर हैं। गढ़वाल राइफल्स की स्थापना 5 मई 1887 को अल्मोड़ा में हुई थी। इसी दिन पहली बटालियन रेज़ की गयी। प्रथम विश्वयुद्ध शुरु होने के समय अर्थात् 1914 में गढ़वाल राइफल्स की दो बटालियन थी। दोनों ने इस महायुद्ध में भाग लिया। दोनों बटालियन्स के शौर्य और बलिदान की कहानी जगत्प्रसिद्ध है। बाद में तीसरी और चौथी बटालियन का गठन भी प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही हुआ पर इन बटालियन्स को इस महायुद्ध में भाग लेने का अवसर नहीं मिल पाया। उत्तराखण्ड की शानदार सैन्य परम्परा और इतिहास में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए ये पुस्तक बहुत ही महत्व की है। गढ़वाल राइफल्स के किसी अधिकारी या सैनिक पर जीवनी के रूप में लिखी गयी है। सेवानिवृत्ति के पश्चात बीस साल के जीवन में भी वे निरंतर सक्रिय बने रहे। शिक्षा और गौचर मेले के लिए उनकी सक्रियता खास तौर पर देखी गयी । ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सर्वाधिक मानवीय क्षति, गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन की ही हुई। बहुत कम सैनिकों का ऐसा भाग्य रहा कि जो प्रथम बटालियन में रहे हों और सकुशल स्वदेश लौट सके हों। धूम सिंह चैहान, ऐसे ही गिनती के सौभाग्यशालियों में से एक थे, न सिर्फ़ प्रथम विश्वयुद्ध के फ्रांस.मोर्चे से बल्कि 1919 के थर्ड एंग्लो.अफ़ग़ान वार के मोर्चे से भी अपनी सेना को विजय दिला कर लौटे। दोनों युद्धों में लड़ते हुए वो घायल भी हुआ पर अपने काम को अंज़ाम देता रहा। पैतृक गाँव सरमोला के प्राथमिक विद्यालय के लिए उनके द्वारा दो नाली ज़मीन दान दी गयी ।
गौचर में बसने के बाद उन्होंने देखा कि यहाँ भी प्राथमिक स्तर से ऊपर की शिक्षा के लिए कोई स्कूल नहीं है ।उनके प्रयासों से ही 1947 में यहाँ जनता जूनियर हाईस्कूल की स्थापना हो सकी । इसके उच्चीकरण के लिए भी वे अपने जीवनकाल में निरंतर प्रयासरत रहे। तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर गढ़वाल से इस सम्बंध में किया गया पत्रव्यवहार इसका प्रमाण है। पृथक बालिका विद्यालय की स्थापना में भी सक्रिय सहयोग दिया और स्थानीय नागरिकों को बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए भी प्रेरित किया। गढ़वाल राइफल्स की स्थापना 5 मई 1887 को अल्मोड़ा में हुई थी। इसी दिन पहली बटालियन रेज़ की गयी। प्रथम विश्वयुद्ध शुरु होने के समय अर्थात् 1914 में गढ़वाल राइफल्स की दो बटालियन थी। दोनों ने इस महायुद्ध में भाग लिया। दोनों बटालियन्स के शौर्य और बलिदान की कहानी जगत्प्रसिद्ध है। बाद में तीसरी और चैथी बटालियन का गठन भी प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही हुआ। पर इन बटालियन्स को इस महायुद्ध में भाग लेने का अवसर नहीं मिल पाया।
ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सर्वाधिक मानवीय क्षति, गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन की ही हुई। बहुत कम सैनिकों का ऐसा भाग्य रहा कि जो प्रथम बटालियन में रहे हों और सकुशल स्वदेश लौट सके हों। धूम सिंह चैहान, ऐसे ही गिनती के सौभाग्यशालियों में से एक थे न सिर्फ़ प्रथम विश्वयुद्ध केए फ्रांस.मोर्चे से बल्कि 1919 के थर्ड एंग्लो.अफ़ग़ान वार के मोर्चे से भी अपनी सेना को विजय दिला कर लौटे। दोनों युद्धों में लड़ते हुए वो घायल भी हुआ पर अपने काम को अंज़ाम देता रहा। ऐतिहासिक महत्व के फोटोग्रैफ्स इस पुस्तक की अतिरिक्त विशेषता है।
1944 में गौचर मेले को राजकीय संरक्षण प्रदान करने में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही। इससे पूर्व सीमांत के भोटिया व्यापारियों के द्वारा को गौचर मैदान को पड़ाव के रूप में इस्तेमाल करते हुए ही ऊनी वस्त्रों व अन्य सामग्री का व्यापार किया जाता थाण् लेडी विलिंग्डन और जवाहर लाल नेहरू के गौचर आगमन के अवसर पर अपर गढ़वाल के गणमान्य व्यक्तियों के साथ उनके द्वारा गौचर मेले को राजकीय संरक्षण प्रदान किए जाने की मांग प्रमुखता से उठायी गयी थीण् ततकालीन सरकार द्वारा उनकी इस तार्किक और जरूरी मांग को 1944 में मान लियाण् साहब को अत्यंत तब से गौचर मेला पूरी शानो.शौक़त से प्रति वर्ष राजकीय औद्योगिक एवं विकास मेले के रूप में प्रति वर्ष मनाया जाता है। सात दिवसीय इस मेले का आयोजन जवाहर लाल नेहरूजी के जन्मदिवस 14 नवम्बर से 20 नवम्बर तक किया जाता है। गौचर के वयोवृद्ध गणमान्य नागरिक, पूर्व मालगुजार 98 वर्षीय आदरणीय दीवान सिंह बिष्ट हाल ही में निधन हो गया है। कप्तान आत्मीयता से याद करते हुए बताते हैं कि गौचर मेले के शुरुआती सालों में उद्घाटन समारोह के प्रमुख स्थानीय संरक्षक कैप्टेन धूम सिंह ही हुआ करते थे। कप्तान धूम सिंह चैहान की 85 वर्षीय पुत्री श्रीमती गोदावरी चैहान कंडारी पिता को याद करते हुए बताती हैं कि वे प्रातःकाल संध्यावंदन में हमेशा गीतापाठ किया करते थेण्आधुनिक समय के महाभारत ;प्रथम विश्वयुद्धद्ध में दो बार घायल होने और कबाइली अफगानों को परास्त कर ;तृतीय अफगान युद्ध में, सकुशल घर जो लौटे थे।
सात समंदर पार अनजाने इलाके में भीषण युद्ध में गीता ने ही उनका मनोबल बनाए रखा था। आज के बच्चे शायद ही विश्वास करें कि कैप्टेन की पेंशन पाने वाला कोई व्यक्ति खेती.किसानी भी पूरी तल्लीनता से करता रहा होगा। पर चैहान जी ऐसे ही थे। अपने हाथों खेतों और क्यारियों में निराई.गुड़ाई करते थे। गौचर में खरीद की ज़मीन थी, पिताजी ने घर के सामने के खेतों को अपनी मेहनत से समतल किया था। उत्तराखण्ड की शानदार सैन्य परम्परा और इतिहास में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए ये पुस्तक बहुत ही महत्व की है। गढ़वाल राइफल्स के किसी अधिकारी या सैनिक पर जीवनी के रूप में लिखी गयी है। ऐतिहासिक महत्व के फोटोग्रैफ्स इस पुस्तक की अतिरिक्त विशेषता है। ब्रिटिश इण्डियन आर्मी में 31 साल का सितारों.तगमों से अलंकृत, शानदार सफर रहा धूम सिंह चैहान का। अपर गढ़वाल का साहसी.चतुर.प्रतिभाशाली युवा धूम सिंह एक दिन उबले हुए भुट्टों को साथ लेकर, पैदल घर से भाग निकला। सीधे लैंसडाउन, सेना में भर्ती होने और फिर अपने शानदार सैन्य करियर में कभी रुक कर पीछे नहीं देखा। बमुश्किल हिन्दी लिखने.पढ़ने वाला यही युवा एक दिन अपनी लगन, शौर्य और कर्मठता से ब्रिटिश.साम्राज्य के सम्राट, जॉर्ज पंचम के शाही आवास, बकिंघम पैलेस तक पहुँचा। भारतीय सैन्य इतिहास में किसी सैनिक के उत्कृष्ट योगदान को गर्व से सलाम करने के लिए इतना ही काफी है। पर धूम सिंह चैहान के करियर के बारे में बताने को और भी बहुत है। कैप्टेन धूम सिंह चैहान की उपलब्धियों भरी कहानी पर गर्व भी होता है और प्रेरणा भी मिलती है।