डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
जंगल में मोर नाचा किसने देखा। वन क्षेत्रों में होने वाले पौधारोपण के मामले में यह कहावत एकदम सटीक बैठती है। जंगलों में पौधे रोपित कर इन्हें भूलने की परिपाटी पौधारोपण पर भारी पड़ रही है। निगरानी व रखरखाव के प्रति अनदेखी का ही नतीजा है कि पौधे असमय ही काल कवलित हो रहे हैं। यही नहीं, पौधों के संरक्षण में जनसहभागिता सुनिश्चित करने के मोर्चे पर भी विभाग को अब तक खास सफलता नहीं मिल पाई है। यद्यपि, अब इन सभी विषयों पर विभाग का ध्यान गया है और वह पौधारोपण के संरक्षण पर विशेष जोर दे रहा है, ताकि रोपित पौधों के जीवित रहने की दर में वृद्धि हो सके। जंगलों में हर साल ही बड़े पैमाने पर पौधारोपण होता है, लेकिन रोपित पौधों के जीवित रहने की दर को लेकर हर बार ही वन विभाग की कार्यशैली सवालों के घेरे में रहती है। रोपे गए पौधों में से 75 प्रतिशत के जीवित रहने की दर को आदर्श माना जाता है, लेकिन इस दृष्टि से स्थिति बेहद चिंताजनक है। यहां 35 से 40 प्रतिशत पौधे भी जीवित नहीं रह पाते हैं। यह हालात, तब हैं, जबकि पौधारोपण के लिए नियम-कायदों के साथ ही निगरानी को विभाग के पास अच्छा-खासा तंत्र भी है। ऐसे में पौधे मर रहे हैं, तो प्रश्न उठेंगे ही। जानकारों का कहना है कि रोपित पौधों में से 50 प्रतिशत भी जीवित रहकर वृक्ष में तब्दील जो जाएं तो जंगलों के लिए यह बेहतर स्थिति होगी। इसके लिए पौधों के संरक्षण के लिए तो वन विभाग को प्रभावी कदम उठाने ही होंगे, इसमें आमजन की सहभागिता भी सुनिश्चित करनी होगी। पौधारोपण के लिए नियम है कि वन विभाग जो पौधे लगाएगा, उनकी तीन साल तक देखरेख करेगा। इसी तरह कैंपा के तहत होने वाले पौधारोपण में 10 साल तक रखरखाव का प्रविधान है। बावजूद इसके, निगरानी और रखरखाव के मामले में सुस्ती का आलम पौधारोपण के नुकसानकारी साबित हो रहा है। इस साल राज्य में हरेला पर 5 लाख पौधे लगाने का लक्ष्य तय किया गया. हालांकि, वन विभाग की सक्रियता और आम लोगों के उत्साह को देखते हुए लक्ष्य को बढ़ाकर 7 लाख कर दिया गया. इसमें कोई शंका नहीं कि विभाग के अफसरों से लेकर कर्मचारियों ने इस दिन के लिए खूब तैयारी की. शायद यही कारण है कि विभाग लाखों पेड़ लगाने में इसलिए कामयाब भी हुआ. लेकिन सवाल पौधारोपण को लेकर नहीं, बल्कि उनके जीवित बचने या सर्वाइवल रेट को लेकर उठते हैं. खुद वन मंत्री ने अपने बयान से सवाल खड़े किए हैं. उत्तराखंड में उत्सव के रूप में मनाए जाने वाले हरेला पर्व पर जो पौधे लगाए जाते हैं, उनका सर्वाइवल रेट 80% या इससे भी ज्यादा रहने का दावा किया गया है. विभागीय मंत्री सुबोध उनियाल ने ईटीवी भारत से बात करते हुए ये स्पष्ट किया कि हरेला के मौके पर लगने वाले पौधों का सर्वाइवल रेट 80% तक रहता है और इसके लिए वह विभाग को बधाई देते हुए भी नजर आते हैं. लेकिन इसी का दूसरा पहलू यह है कि वन विभाग में साल भर पौधारोपण की गतिविधियों के दौरान पौधों का सर्वाइवल रेट केवल करीब 35% तक ही सीमित रह जाता है. हरेला पर्व और बाकी अन्य दिनों में पौधारोपण को लेकर सर्वाइवल रेट में इतना अंतर क्यों है, यह समझ से परे है. इस मामले पर वन मंत्री से सवाल किया तो उन्होंने जवाब देते हुए कहा कि 80% सर्वाइवल रेट उनके द्वारा हरेला के दौरान लगने वाले पौधों के लिए कही गई है, जहां तक साल भर लगने वाले पौधारोपण की बात है तो इसमें सुधार करने के लिए लगातार प्रयास किया जा रहे हैं. यह भी दावा किया जाता है कि हरेला पर्व के दौरान आम लोगों की सहभागिता होने के कारण पौधारोपण के बाद सर्वाइवल रेट 80% तक रहता है. जबकि वन विभाग साल भर जो पौधारोपण करता है उसमें जन सहभागिता नहीं रहती है. वन विभाग में पौधारोपण के दौरान जियो टैगिंग के साथ सोशल मीडिया पर भी इन जानकारी को अपलोड करने के निर्देश दिए हैं, लेकिन इसका कितना पालन हो रहा है, ये विभाग भी जानता है. वन विभाग में पौधारोपण के दौरान थर्ड पार्टी मॉनिटरिंग करने की भी कोशिश की है. हालांकि, इसके परिणाम क्या रहे कभी विभाग द्वारा यह सार्वजनिक ही नहीं किया गया. जाहिर है कि इस मामले में पारदर्शिता तभी आ पाएगी जब पौधारोपण को लेकर स्पष्ट तथ्यों और तकनीकी रूप से तैयार की गई रिपोर्ट्स को सार्वजनिक किया जाएगा, ताकि आम लोग भी पौधारोपण की स्थिति को मौके पर खुद मॉनिटर कर सकें. हरेला केवल एक पर्व नहीं, बल्कि प्रकृति से जुड़ाव और पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारी का प्रतीक है. यह पर्व हमें हरित क्षेत्र को बढ़ाने और जलवायु संतुलन बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है. इस अवसर पर प्रख्यात पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट ने भी अपने विचार व्यक्त किए. उन्होंने कहा कि युवा, महिलाएं और छात्र आज पर्यावरण संरक्षण के सबसे बड़े सहयोगी बनकर सामने आ रहे हैं. उनके प्रयासों से पर्यावरण को मजबूती मिली है. उन्होंने कहा आमजन को यह समझाना होगा कि जंगल में आग लगने से सबसे पहला नुकसान स्वयं जनता को ही होता है, इसलिए सभी को मिलकर वनों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदारी लेनी होगी. इस वर्ष का उत्सव “एक पेड़ माँ के नाम” और “हरेला का त्यौहार मनाओ, धरती माँ का रिन चुकाओ” थीम पर मनाया जाएगा। इस अभियान के तहत इस महीने के अंत में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए हरेला पर्व उत्तराखंड की उस जड़ से जुड़ा पर्व है जो लोगों को प्रकृति के साथ जुड़ने, उसे समझने और उसके संरक्षण की प्रेरणा देता है। इस पर्व को केवल एक औपचारिकता से बाहर निकालकर यदि हम इसकी आत्मा के साथ मनाएं, तो यह पर्व उत्तराखंड को फिर से देवभूमि की हरियाली में चमकाने का माध्यम बन सकता है। इस हरेला पर्व पर हम सब एक-एक पौधा लगाकर, उसकी देखभाल करने का संकल्प लें – ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी हरियाली की इसी विरासत को गर्व के साथ आगे बढ़ा सकें। हरेला केवल एक पर्व नहीं, बल्कि उत्तराखंड की संस्कृति, प्रकृति और चेतना से जुड़ा एक गहरा भाव है जो पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारियों की याद दिलाता है ।
*लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*