डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
वन प्रदेश कहे जाने उत्तराखंड को वनों के स्वास्थ्य की भी चिंता करनी होगी। वनाग्नि से लेकर भू कटाव, लेंटाना, काला बांस आदि का बढ़ना, जल स्रोतों के सूखने, बांज, बुरांश और बुग्यालों पर संकट आदि मुख्य चुनौतियां हैं, जिनका सामना प्रदेश के वनों को करना पड़ रहा है। चिपको नेत्री गौरा देवी के नाम से वन तैयार किया है। मनरेगा के सहयोग से ग्रामीणों ने वर्ष 2015-16 में वन तैयार किया था। इस वन में लगभग 1000 पौधे हैं, जो मिश्रित प्रजाति के हैं। प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को इस मिश्रित वन में बाल पंचायतें आयोजित की जाती हैं, जिसमें बच्चों को पर्यावरण संरक्षण और पौधरोपण की महत्ता के बारे में बताया जाता है। यही वजह है कि इन 25 सालों में कभी भी इस मिश्रित वन में वनाग्नि की घटना नहीं हुई।
इस साल का थीम वनों का पुनरुत्थान रखा गया है, संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया के लगभग 1.6 बिलियन लोग अपने भोजन, आवास और दवाईयों के साथ-साथ आजीविका के लिए सीधे तौर पर वनों पर निर्भर करते हैं। हर साल दुनियाभर में लगभग 10 मिलियन हेक्टेयर वन काम होता है जो कि वायु परिवर्तन का मुख्य कारण है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार हम जिन दवाइयों का इस्तेमाल करते हैं, उनमें से 25 प्रतिशत इन्हीं वनों से मिलती हैं। न्यूयॉर्क, टोक्यो, बार्सिलोना और बोगोटा समेत कई बड़े शहरों का एक तिहाई हिस्सा पीने के पानी के लिए इन संरक्षित वनों पर निर्भर करता है। वनों के बिना हम मानव जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।
स्वतंत्रता से पूर्व औपनिवेशिक भारत में बनी वन नीतियाँ मुख्यतः राजस्व प्राप्ति तक केंद्रित थीं। जिनका स्वामित्व शाही वन विभाग के पास था, जो वन संपदा का संरक्षणकर्त्ता और प्रबंधक भी था। स्वतंत्रता के बाद भी वनों को मुख्यतः उद्योगों हेतु कच्चे माल के स्रोत के रूप में ही देखा गया। जिसके पश्चात् राष्ट्रीय वन नीति, 1988 का निर्माण हुआ जिसमें वनों को महज़ राजस्व स्रोत के रूप में न देखकर इन्हें पर्यावरणीय संवेदनशीलता एवं संरक्षण के महत्त्वपूर्ण अवयव के रूप में देखा गया। साथ ही इस नीति में यह भी कहा गया कि वन उत्पादों पर प्राथमिक अधिकार उन समुदायों का होना चाहिये जिनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति इन वनों पर निर्भर करती है। इस राष्ट्रीय नीति में वनों के संरक्षण में लोगों की भागीदारी बढ़ाने पर भी जोर दिया गया। रिपोर्ट के अनुसार, देश में कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का वनावरण क्षेत्र लगभग 7,12,249 वर्ग किमी है, 21.67 प्रतिशत। गौरतलब है कि बीते कई वर्षों से यह संख्या 21.25 प्रतिशत के आस.पास ही रही है, जबकि राष्ट्रीय वन नीति, 1988 के अनुसार यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग एक.तिहाई होना अनिवार्य है। यह दर्शाता है कि हम वर्ष 1988 में निर्मित राष्ट्रीय वन नीति के अनुरूप कार्य करने में असफल रहे हैं।
देशभर के वनों में आठ माह के अंतराल में आग की करीब पौने दो लाख घटनाएं सामने आई। महाराष्ट्र के जंगलों में आग की सर्वाधिक घटनाएं देखने को मिलीं। इस मामले में उत्तराखंड का स्थान छठा रहा और यहां 16 हजार से अधिक बार आग की घटनाओं को रिकॉर्ड किया गया। वहीं, दो राज्य चंडीगढ़ व लक्षद्वीप ऐसे रहे, जहां आग की कोई भी घटना नहीं दिखी। भारतीय वन सर्वेक्षण एफएसआइ ने जंगलों में लगने वाली आग की घटनाओं का भी अपनी ताजा रिपोर्ट को जिक्र किया है। एफएसआइ के महानिदेशक ने बताया कि सेटेलाइट सिस्टम मॉडरेट रेजोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रो.रेडियोमीटर एमओडीआइएस व विजिबल इंफ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर सुइट एसएनपीपी.वीआइआइआरएस के जरिये जंगलों की आग की मॉनिरिंग की जाती है। एफएसआइ की रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में 25 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक जंगल आग के लिहाज से अति संवेदनशील हैं। इसका आशय यह हुआ कि हर सीजन में इनमें सबसे अधिक आग लगती है। इसके अलावा 39 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक ऐसे जंगल हैं, जिसे बेहद उच्च संवेदनशीलता में रखा गया है। हालांकि कुल वन क्षेत्र में 63.90 फीसद भाग को कम संवेदनशीलता में रखा गया है।
वनाग्नि की समस्या प्रदेश के सामने कई कारणों से बढ़ती जा रही है। मौसम में हो रहे बदलाव के कारण यह समस्या विकराल रूप धारण कर रही है। सर्दियों में भी इस बार जंगल जले और यह सिलसिला लगातार जारी है। लेंटाना, काला बांस जैसी समस्याएं भी वनों की सेहत से खिलवाड़ का कारण बन रही है। वन विभाग के मुताबिक इस तरह की खरपतवार का लगातार फैलाव हो रहा है। लेंटाना और काला बांस आदि को खत्म करने के लिए वन विभाग को लगातार बपना बजट भी बढ़ाना पड़ रहा है। स्वस्थ वनों के सामने एक चुनौती भू कटाव की भी है। शिवालिक में भू कटाव की दर सबसे अधिक पाई गई है। वनाग्नि के बढ़ते मामलों के कारण यह समस्या भी लगातार बढ़ रही है। मौसम में बदलाव के कारण बारिश के पानी से भू क्षरण बढ़ रहा है। एक शोध के मुताबिक प्रदेश में करीब 61 प्रतिशत वन वनाग्नि, भू कटाव सहित अन्य समस्याओं को लेकर अति संवेदनशील हैं। इसी तरह 36 प्रतिशत वन संवेदनशील पाए गए हैं। साफ है कि वनों की सेहत पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में प्रदेश को अपनी बहुमूल्य वन संपदा का नुकसान उठाना पड़ सकता है। वनों पर दबाव बढ़ने से इनकार नहीं किया जा रहा है।
प्रदेश में इस समस्या के समाधान के कोशिश भी की जा रही है। 71 फीसद वन आच्छादित क्षेत्र वाले उत्तराखंड में पर्यावरण और वन संपदा के संरक्षा का मुद्दा हमेशा ही गंभीर रहा है। यहां प्राकृतिक आपदा, वनों की आग और विकास कार्यों के बीच वनों को बचाना चुनौती देता रहा है। हालांकि, वन विभाग के प्रयास और प्राकृतिक वातावरण के कारण उत्तराखंड वन संपदा समृद्ध प्रदेश है, लेकिन वनों का दायरा बरकरार रहने के बावजूद उनकी दशा जरूर बिगड़ रही है। उत्तराखंड में हर साल प्राकृतिक आपदा और आग से वनों को भारी नुकसान होता है। प्रदेशभर में करीब सात सौ से एक हजार आग की घटनाएं प्रत्येक वर्ष होती है। जिसमें औसतन 1200 से 1500 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित होता है। हजारों पेड़ों को नुकसान पहुंचने से हर साल लाखों की वन संपदा खाक हो जाती है। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा भी जंगलों को जख्म दे जाते हैं। हालांकिए वन विभाग के आकलन के अनुसार विकास कार्यों में बेहद मामूली वन क्षेत्र प्रभावित होता है। पर्वतीय क्षेत्रों में वृहद स्तर का भूमि कटाव कम किया जा रहा है। साथ ही पर्यावरणरक्षी तकनीकी का भी पूर्ण प्रयोग किया जा रहा हैए किंतु इस ऑल वेदर रोड परियोजना के अंतर्गत इस तरह की पर्यावरण रक्षक तकनीकों का प्रयोग किया जा रहा हैए यह ज्ञात नहीं है। यह भी ज्ञात है कि पेड़ काटने के बाद भविष्य में जितने पेड़ काटे जाएंगे उससे कई गुना अधिक पेड़ अन्य क्षेत्रों में रोपित भी किए जाएंगे।यह एक ज्ञात तथ्य है किंतु किसी स्थान की पारिस्थितिकी एवं उसमें विभिन्न प्रकार के जंगली जानवरोंए कीट पतंगों एवं सूक्ष्म जीवाणुओं का एसोसिएशन जो इकोलॉजी बनाता है, उसे बनने में हजारों वर्ष लगते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आप किसी स्थान से निर्माण हेतु सौ पेड़ काटते हैं और किसी दूसरे स्थान पर पांच सौ पेड़ भी लगा दें तो भी आप उस नए स्थान की पारिस्थितिकी उन सौ पेड़ वाले स्थान की तरह नहीं बना सकते।सर्वप्रथम नए स्थान पर लगाए पेड़ों को बड़े होने में समय लगेगाए उनके साथ सूक्ष्म जीवाणु एवं जंगली जानवरों का तालमेल बनने में समय लगेगा। नए पेड़ उस स्थान की मिट्टी व जल को संरक्षित करने में भी समय लेंगे लेकिन क्या ये पेड़ उस दूसरे स्थान पर उस तरह की प्राकृतिक पारिस्थितिकी बना पाएंगे। यह लाख टके का सवाल है। सौ पेड़ों को काटने में सौ मिनट भी नहीं लग रहे हैं किंतु उन सौ पेड़ों ने जो पारिस्थितिकी बनाई है, उसको बनाने में हजारों वर्ष लगे होंगे। अतः एक सुनियोजित एवं सामंजस्य पूर्ण विकास एवं सोच की नितांत आवश्यकता है।












