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भांग से बनी दवा से कैंसर का अचूक इलाज संभव

04/11/19
in उत्तराखंड, हेल्थ
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
भांग वानस्पतिक नामः कैनाबिस इंडिका एक प्रकार का पौधा है, जिसकी पत्तियों को पीस कर भांग तैयार की जाती है। भांग की खपत मामले में वैश्विक स्तर पर देश की राजधानी दिल्ली को तीसरा स्थान हासिल है। इस लिस्ट में अमेरिका का न्यूयार्क शहर 77.4 टन खपत के साथ पहले स्थान पर और पाकिस्तान 42 टन, दूसरे नंबर पर है। वहीं, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई छठे स्थान पर है।

मुंबई शहर में 32.4 टन भांग की खपत होती है। यह आकड़ा 2018 के अध्ययन के आधार पर निकाला गया है और यह सर्वे जर्मनी की संस्था एबीसीडी ने किया है। सर्वे के मुताबिक, दो भारतीय शहरों दिल्ली और मुंबई, कराची पाकिस्तान के अलावा, अन्य चार शहर काहिरा, लंदन, मॉस्को और टोरंटो हैं। बता दें कि ये दुनिया के ऐसे शहर हैं, जहां भांग का सेवन वैध नहीं है। हालांकि टोरंटो ने इस साल की शुरुआत में इसे वैध कर दिया है।


बता दें कि जंगली भांग अब वाहनों के लिए ईंधन बनाने में काम आने वाली है। इस दिशा में हरकोर्ट बटलर प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय एचबीटीयू, कानपुर के बायो केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. ललित कुमार सिंह ने बड़ी सफलता हासिल की है। एचबीटीयू के डॉ. ललित कुमार सिंह ने जंगली घास कांस से सस्ता एथेनॉल बनाने में सफलता प्राप्त की है। उत्तर भारत में इसका प्रयोग बहुतायत से स्वास्थ्य, हल्के नशे तथा दवाओं के लिए किया जाता है।

भारतवर्ष में भांग के अपने आप पैदा हुए पौधे सभी जगह पाये जाते हैं। भांग विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल में प्रचुरता से पाया जाता है। भांग के पौधे 3.8 फुट ऊंचे होते हैं। इसके पत्ते एकान्तर क्रम में व्यवस्थित होते हैं। भांग के ऊपर की पत्तियां 1.3 खंडों से युक्त तथा निचली पत्तियां 3.8 खंडों से युक्त होती हैं। निचली पत्तियों में इसके पत्रवृन्त लम्बे होते हैं।

भांग के नर पौधे के पत्तों को सुखाकर भांग तैयार की जाती है। भांग के मादा पौधों की रालीय पुष्प मंजरियों को सुखाकर गांजा तैयार किया जाता है। भांग की शाखाओं और पत्तों पर जमे राल के समान पदार्थ को चरस कहते हैं। भांग की खेती प्राचीन समय में पणि कहे जाने वाले लोगों द्वारा की जाती थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कुमाऊँ में शासन स्थापित होने से पहले ही भांग के व्यवसाय को अपने हाथ में ले लिया था तथा काशीपुर के नजदीक डिपो की स्थापना कर ली थी।

दानपुर, दसोली तथा गंगोली की कुछ जातियाँ भांग के रेशे से कुथले और कम्बल बनाती थीं। भांग के पौधे का घर गढ़वाल में चांदपुर कहा जा सकता है। इसके पौधे की छाल से रस्सियाँ बनती हैं। डंठल कहीं.कहीं मशाल का काम देता है।

पर्वतीय क्षेत्र में भांग प्रचुरता से होती है, खाली पड़ी जमीन पर भांग के पौधे स्वभाविक रूप से पैदा हो जाते हैं। लेकिन उनके बीज खाने के उपयोग में नहीं आते हैं। टनकपुर, रामनगर, पिथौरागढ़, हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोडा़, रानीखेत, बागेश्वर, गंगोलीहाट में बरसात के बाद भांग के पौधे सर्वत्र देखे जा सकते हैं।


नम जगह भांग के लिए बहुत अनुकूल रहती है। पहाड़ की लोक कला में भांग से बनाए गए कपड़ों की कला बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन मशीनों द्वारा बुने गये बोरे, चटाई इत्यादि की पहुँच घर.घर में हो जाने तथा भांग की खेती पर प्रतिबन्ध के कारण इस लोक कला के समाप्त हो जाने का भय है। होली के अवसर पर मिठाई और ठंडाई के साथ इसका प्रयोग करने की परंपरा है।

भांग का इस्तेमाल लंबे समय से लोग दर्द निवारक के रूप में करते रहे हैं। कई देशों में इसे दवा के रूप में भी उपलब्ध कराया जाता है।भांग का इस्तेमाल दवा के रूप में भी किया जाता है। इसमें कई औषधीय गुण पाए जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया की क़रीब 2.5 फ़ीसदी आबादी यानी 14.7 करोड़ लोग इसका इस्तेमाल करते हैं। दुनिया में इसका इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ रहा है क्योंकि यह सस्ता मिल जाता है और ज़्यादा नशीला होता है।

कोकिन और दूसरे ड्रग्स इससे कहीं अधिक महंगे और ज़्यादा हानिकारक होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ भांग के सही इस्तेमाल के कई फ़ायदे हैं भांग आपके सीखने और याद करने की क्षमता बढ़ाती है। अगर भांग का उपयोग सीखने और याद करने के दौरान किया जाता है तो भूली हुई बातें आसानी से याद की जा सकती है।

भांग का इस्तेमाल कई मानसिक बीमारियों में भी की जाती है। जिन्हें एकाग्रता की कमी होती है, उन्हें डॉक्टर इसके सही मात्रा के इस्तेमाल की सलाह देते हैं। जिन्हें बार.बार पेशाब करने की बीमारी होती है, उन्हें भांग के इस्तेमाल की सलाह दी जाती है।

कान का दर्द होने पर भांग की पत्तियों के रस को कान में डालने से दर्द से राहत मिलती है। जिन्हें ज़्यादा खांसी होती है, उन्हें भांग की पत्तियों को सुखा कर, पीपल की पत्ती, काली मिर्च और सोंठ मिलाकर सेवन करने की सलाह दी जाती है।


एम्स कीमोथेरपी से गुजर रहे कैंसर मरीजों पर भांग की पत्तियों से बनी दवाओं का इस्तेमाल कर यह पता लगाएगा कि यह कितना कारगर होता है। एम्स के सर्जरी विभाग के डॉक्टर अनुराग श्रीवास्तव ने कहा कि जिसमें मेडिकल गुण भी पाए जाते हैं। भांग के इस मेडिकल गुण वाले पौधे के इलाज में इस्तेमाल को लेकर शुक्रवार राजधानी दिल्ली में आयोजित कांफ्रेंस के दौरान डॉक्टर अनुराग श्रीवास्तव ने कहा कि मंत्रालय को भांग से बनी दवाएं उपलब्ध कराना है, ताकि उसका इस्तेमाल कैंसर मरीजों पर किया जा सके।

उन्होंने कहा कि इस रिसर्च के लिए कैंसर के लगभग 450 मरीजों को शामिल किया जाएगा, जिन्हें कीमोथेरपी दी जा रही है। अभी तक सिर्फ विदेशों में भांग से विभिन्न प्रॉडक्ट तैयार करने पर शोध होते रहे हैं लेकिन अब उत्तराखंड का एक स्टार्टअप भी इस दिशा में कदम बढ़ा चुका है। यमकेश्वर ब्लॉक के कपल नम्रता और गौरव कंडवाल ने भांग की फसल पर फोकस जीपी हेम्प एग्रोवेशन स्टार्टअप शुरू किया है।

वे भांग के के बीजों से तैयार औषधियां, साबुन, बैग, पर्स आदि बाजार में उतारने के साथ ही अब उससे ईंटें भी तैयार कर रहे हैं। उत्तराखंड राज्य में 3.17 लाख हेक्टेयर भूमि बंजर है। यहां सिंचाई के साधन न होने, बंदरों, सुअर व अन्य जंगली जानवरों के कारण सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन बढ़ रहा है। ऐसे में यमकेश्वर ब्लॉक के कपल नम्रता और गौरव कंडवाल ने भांग की खेती पर फोकस जीपी हेम्प एग्रोवेशन स्टार्टअप्स शुरू किया है। वे भांग के के बीजों और रेशे से दैनिक उपयोग की वस्तुएं तैयार कर रहे हैं।


भांग का नाम आते ही अक्सर लोगों के जहन में सिर्फ नशे का ख्याल आता है लेकिन भांग सिर्फ नशे के लिए ही नहीं बल्कि कई अन्य तरह से भी उपयोगी है। भांग पर रिसर्च अभी तक सिर्फ विदेशों में ही होती रही है लेकिन बदलते दौर के साथ अब उत्तराखंड के युवा भी भांग की उपयोगिता को समझने लगे हैं।

यही कारण है कि अब इसे लेकर लोगों में जागरुकता बढ़ने लगी है। फिलहाल, भांग के बीजों से यमकेश्वर के आर्किटेक्ट दंपति रामबाण औषधियां, साबुन, लुगदी के बैग, पर्स आदि बाजार में उतार चुके हैं। पिछले दिनो वे भांग पर आधारित अपने उत्पादों को लेकर आईआईएम के उत्तिष्ठा.2019 में भी पहुंचे। वे उत्पादों की ऑनलाइन मार्केटिंग भी करते हैं।

उनके समूह में आठ लोग हैं। नम्रता बताती हैं कि भांग का पूरा पेड़ बहुपयोगी है। इसके बीजों से निकलने वाले तेल से औषधियां बनती हैं। इस तेल को एनाया नाम दिया गया है, जिसका अर्थ केयर करना है। इसका उपयोग खाद्य तेल के रूप में भी किया जा सकता है।

इसके अलावा अन्य जड़ी.बूटियों के मिश्रण से तैयार तेल जोड़ों के दर्द, स्पाइनल पैन, सिरोसिज जैसे असाध्य बीमारियों के उपचार में इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके पौधे की लुगदी से साबुन भी तैयार किया जा रहा है। भांग के रेशे से धागा बनाकर हस्तशिल्प कारीगरों की ओर से बैग, पर्स, कंडी या अन्य उपयोग की वस्तुएं उत्पादित की जा रही हैं।

कंडवाल दंपति बताते हैं कि भांग के रेशे से ही नोटबुक भी बनाई जा रही है। खास बात यह है कि भांग से निर्मित उत्पादों को सात से आठ बार तक रिसाइकिल किया जा सकता है लेकिन उनके प्रॉडक्शन की शुरुआत छोटे पैमाने पर होने के कारण इसमें मुनाफा कम पड़ रहा है।

देश में जल्द ही भांग के पौधों से बनी ईंटों से बनाए घर और स्टे होम नजर आएंगे। यमकेश्वर के इस आर्किटेक्ट दंपति ने इस दिशा में भी काम शुरू किया है। इससे न केवल लोगों को सस्ते दामों में ईंटें मिलेंगी बल्कि युवाओं को रोजगार के साधन भी उपलब्ध होंगे। नम्रता और उनके पति गौरव का मानना है कि इस दिशा में काम करने से पहाड़ से होने वाले पलायन को रोका जा सकता है।


पहाड़ों में भांग के पौधे बड़े स्तर पर मिल जाते हैं। इसलिए कच्चे माल की कमी नहीं है। वे भांग की लकड़ीए चूने और पानी से ईंट बना रहे हैंए जो समय के साथ.साथ कार्बन डाई आक्साइड को सोख लेती हैं। भांग की ईंट और लकड़ी के पार्टीशन से बने भवन टिकाऊ होने के साथ ही पर्यावरण संरक्षण के लिए भी अनुकूल साबित होते हैं। मध्यप्रदेश में भांग से बनी ईंट का उपयोग किया जा रहा है।

नम्रता बताती हैं कि भांग आधारित उद्योग उत्तराखंड के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। आर्किटेक्ट दंपति का कहना है कि भांग की खेती के लिए बेहद कम पानी और समय की जरूरत होती है। वह बताते हैं जो ईंटें उनके यहां बनाई जा रही हैंए वह एंटी वैक्टीरियल के साथ ही भूकंप रोधी भी हैं।

काम को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने उत्तराखंड हैंप एसोसिएशन बनाई हैए जिसमें करीब 15 लोग जुड़े हैं। नम्रता ने बताया कि अब तक उनकी टीम ने भांग के रेशे से साबुनए तेलए डायरीए झोला और घरों के निर्माण में प्रयोग होने वाले ब्लाक तैयार करने में कामयाबी हासिल की है। इन उत्पादों का ऑनलाइन प्रचार प्रसार भी किया जा रहा हैए जिसका सकारात्मक परिणाम सामने आया है। आर्किटेक्ट गौरव कंडवाल और नम्रता पहले दिल्ली में रहते थे।

नम्रता मूलतरू कंडवाल और गौरव भोपाल के रहने वाले हैं। काफी शोध के बाद उन्होंने पहाड़ पर बहुतायत में उगने वाले भांग के पौधों को सकारात्मक रूप से रोजगार का जरिया बनाने का निर्णय लिया। इससे न सिर्फ भांग के प्रति लोगों का नजरिया बदलेगा बल्कि पहाड़ के गांवों से होने वाले पलायन पर भी रोक लग सकेगी।

एक साल की मेहनत के बाद दंपत्ति ने न सिर्फ स्वरोजगार का जरिया ढूंढा बल्कि भांग के पौधों से ईंट और अन्य सामान बनाने का काम शुरू किया। गौरव ने बताया कि गांवों में रोजगार पैदा करने के लिए एक से 10 लाख रुपए तक में मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाई जा सकती है। पॉलिथीन का इस्तेमाल खत्म करने के लिए भांग के पौधे की भूमिका अहम हो सकती है। इसके रेशे से बायो प्लास्टिक तैयार किया जा सकता है। इससे बनी पॉलिथीन या बोतल फेंक देने पर महज छह घंटे में नष्ट हो जाती हैं।

अभी भांग के रेशे से तैयार उत्पादों की कास्ट थोड़ा ज्यादा है। वृहद स्तर पर इसका उद्योग लगाया जाए तो इसके उत्पाद काफी सस्ते और पर्यावरण के लिहाज से अनुकूल भी होंगे। उन्होंने बताया कि इस समय ऋषिकेश में भांग के रेशे से तैयार टीशर्टए बैगए ट्राउजर आदि नेपाल से आयात हो रहा है। यह प्रदेश में ही तैयार होने लगे तो बेहद सहूलियत होगी।

यमकेश्वर के कंडवाल गांव का युवा दंपति इसी की एक नजीर पेश कर रहा है। इस दंपति ने भांग से तरह.तरह के प्रोडक्ट बनाने शुरू कर दिए हैं। जैसे कि ये दोनों भांग के बीज से साबुन, रेशे से धागा, कपड़े और बैग इत्यादि चीजें बना रहे हैं। वहीं, इसके साथ ही भांग के पौध से बड़े.बड़े ब्लॉक्स बनाए जा रहे हैं, जो आजकल भवनों के निर्माण के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।

इसके अलावा भांग से कई और तरह की वस्तुएं भी बनाई जा सकती हैं जोकि दैनिक जीवन में प्रयोग की जा सकती हैं। आर्किटेक्ट गौरव दीक्षित ने बताया कि भांग के पौधे का इस्तेमाल पहले भी किया जाता रहा है। उन्होंने बताया कि एलोरा की गुफाओं में भी भांग के पेंट से ही पुताई की गई थी जो कि आजतक भी खराब नहीं हुई है।

दरअसल एलोरा की गुफाओं से पहले अजंता की गुफाएं बनाई गई थीं, जहां पर बनाई गई मूर्तियों में कुछ ही सालों में फंगस लग गई थी, जिसे देखते हुए एलोरा की गुफाओं में मूर्ति बनाने से पहले भांग से पेंटिग की गई, यही कारण है कि आज भी एलोरा की गुफाओं में बनी मूर्तियां सुरक्षित हैं। गौरव का कहना है कि भांग से बायोप्लास्टिक तैयार कर प्रदूषण पर भी रोक लगाई जा सकती है।

बायोप्लास्टिक को आसानी के प्रयोग किया जा सकता है। गौरव अपने गांव में भांग के ब्लॉक बना रहे हैं, जिससे वे घर बनाकर होमस्टे योजना शुरू करने पर विचार कर रहे हैं। गौरव ने कंडवाल गांव में एक लघु उद्योग लगाया गया हैए जहां पर भांग से साबुनए शैंपूए मसाज ऑयलए ब्लॉक्स इत्यादि बनाए जा रहे हैं।

उनका कहना है कि इन्हें बनाने के लिए यहां बड़ी संख्या में महिलाओं को रोजगार दिया जा रहा है और महिलाएं अपने ही गांव में रोजगार पाकर खुश हैं। उत्तराखंड में इसका इस्तेमाल दवा के तौर पर भी किया जाता है। ऐसी वनस्पतियों को यदि रोजगार से जोड़े तो शायद इसमें मेहनत भी कम हो सकती हैप्रदेश सरकार ने राज्य में पाए जाने वाली प्राकृतिक वनस्पति बिच्छू घास, भीमल, रामबांस और भांग का रेशा खरीदने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया। क्योंकि यह स्वतः ही पैदा हो जाने वाली जंगली वनस्पति है।

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