डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
हजारों सालों से हिमालय एक अडिग प्रहरी की तरह खड़ा रहा है, जिसके बर्फीले शिखर करोड़ों लोगों के लिए आध्यात्मिक शांति, जीवनदायी पानी और गहरी सांस्कृतिक पहचान का स्रोत हैं। लेकिन, हाल के दशकों में इस शांत छवि ने बार-बार विनाशकारी रूप दिखाया है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में हर मानसून में भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह कोई संयोग नहीं, बल्कि हिमालय के गहरे संकट में होने का स्पष्ट संकेत है।वैज्ञानिक प्रमाण बताते हैं कि हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से प्रेरित आपदाओं का केंद्र बन रहा है। इसका कारण मानवीय दखल से उपजा जलवायु परिवर्तन है, जो इस क्षेत्र को धरती के अन्य हिस्सों से ज्यादा तेजी से गर्म कर रहा है। हिमालय क्षेत्र में बढ़ती मानवीय गतिविधियां पहाड़ों की प्राकृतिक मजबूती को कमजोर कर रही हैं। भारत जैसे देश के लिए, जो पानी, भोजन और ऊर्जा जैसी अपनी जरूरतों के लिए हिमालय पर निर्भर है, इस संकट को समझना और हल करना बेहद जरूरी है।हिमालय में संकट की सबसे बड़ी वजह तेजी से बढ़ता तापमान है। हिमालय में एलिवेशन-डिपेंडेंट वार्मिंग के कारण ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान अधिक तेजी से बढ़ रहा है। जहां दुनिया का औसत तापमान 19वीं सदी से अब तक 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, वहीं हिमालय क्षेत्र इससे ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवेलपमेंट (आईसीआईएमओडी) का कहना है कि वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित रखा जाए, तब भी हिमालय में कम से कम 1.8 डिग्री और कुछ जगहों पर 2 डिग्री से ज्यादा की बढ़ोतरी होगी।बर्फ पिघलने और बढ़ते प्रदूषण से तापमान बढ़ने का क्रम तेज हुआ है। बर्फ पिघलती है, तो नीचे की काली मिट्टी और चट्टानें खुल जाती हैं, जो 90% गर्मी सोख लेती हैं। इससे अधिक बर्फ पिघलती है, और यह चक्र चलता रहता है। मैदानी इलाकों में जंगल की आग, फसल अवशेष जलाना और उद्योगों से निकलने वाली कालिख हवा के जरिए हिमालय तक पहुंचती है। यह कालिख बर्फ को काला कर देती है, जिससे वह ज्यादा गर्मी सोखती है और बर्फ पिघलने की दर बढ़ जाती है। ये प्रक्रियाएं हिमालय की बर्फीली दुनिया को अस्थिर कर रही हैं और भारी बारिश, भूस्खलन जैसी चरम मौसमी घटनाओं का कारण बन रही हैं।हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघलकर सिकुड़ रहे हैं, पतले हो रहे हैं और टुकड़ों में बंट रहे हैं। इससे समुद्र का स्तर तो बढ़ ही रहा है, लेकिन सबसे बड़ा तत्काल खतरा है ग्लेशियर झीलों का बनना। पिघलते ग्लेशियर पीछे गड्ढे छोड़ जाते हैं, जो पानी से भरकर अस्थिर झीलें बनाते हैं। ये झीलें ढीली चट्टानों और बर्फ के मलबे से बनी होती हैं। कोई छोटा भूकंप, भारी बारिश या ग्लेशियर का टुकड़ा टूटने से ये झीलें फट सकती हैं। इससे भारी मात्रा में पानी, मिट्टी और चट्टानें तेजी से घाटियों में बहकर आती हैं और भयानक तबाही मचाती हैं। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा, जहां बादल फटने और ग्लेशियर झीलों ने मिलकर विनाश किया, और वर्ष 2021,2025 की आपदा, जिसमें भूस्खलन और ग्लेशियर पिघलने से बाढ़ आई, इसके उदाहरण हैं।हिमालय में एक बड़ा खतरा पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना है। पर्माफ्रॉस्ट मिट्टी, चट्टान या तलछट की वह परत होती है, जो कम से कम दो साल तक शून्य डिग्री सेल्सियस से नीचे लगातार बर्फ से जमी रहती है। यह हिमालय की खड़ी ढलानों को जोड़े रखने वाले प्राकृतिक ‘गोंद’ की तरह काम करती है। तापमान बढ़ने से यह परत पिघल रही है, जिससे जमीन पानी से भरी और अस्थिर हो रही है। इससे चट्टानों के खिसकने, भूस्खलन और ढलानों के टूटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। बिना किसी बड़ी बारिश के ऐसा हो रहा है। यह स्थिति नीचे बसे इलाकों के लिए बड़ा जोखिम पैदा कर रही है। गर्म हवा हर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि के साथ 7% ज्यादा नमी सोख सकती है। इससे हिमालय में बारिश का पैटर्न बदल रहा है और बादल फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। कम अवधि की यह तेज बारिश (10 सेंटीमीटर/घंटा या ज्यादा) छोटे-से क्षेत्र में भारी पानी छोड़ती है। हिमालय की खड़ी और कीप जैसी घाटियां इस तबाही को और अधिक बढ़ा देती हैं। पहले से पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने या संतृप्त जमीन इस पानी को सोख नहीं पाती। पानी तेज धाराओं में बदल जाता है, जो ढलानों को काटता है, भूस्खलन शुरू करता है और मलबे के साथ मिलकर खतरनाक जल-प्रवाह बनाता है और अपने रास्ते में सब कुछ नष्ट कर देता है।जलवायु परिवर्तन हिमालय में आपदाओं को शुरू करता है, लेकिन मानवीय गतिविधियां इसे और खतरनाक बनाती हैं। हिमालय, दुनिया का सबसे युवा और भूकंप-प्रवण पर्वत होने के कारण पहले से ही नाजुक है। अनियंत्रित विकास इसका बेरहमी से दोहन कर रहा है। खेती, बुनियादी ढांचे और शहरीकरण के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं, जो एक बड़ी गलती है।पेड़ों की जड़ें मिट्टी को बांधे रखती हैं, बारिश का पानी सोखती हैं और सतही बहाव को धीमा करती हैं। जंगल हटने से ढलानें खुली और कमजोर हो जाती हैं, जिससे भूस्खलन और अचानक बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। कमजोर ढलानों और नदी तटों पर सड़कें, सुरंगें, होटल और बस्तियां बिना सोच-विचार के बनाई जा रही हैं। यह निर्माण ढलानों को अस्थिर कर देता है, प्राकृतिक जल-प्रवाह को रोकता है और पानी के सुरक्षित बहाव को बाधित करता है।पर्यटन का बढ़ता दबाव भी हिमालय की नाजुक क्षमता पर बोझ डाल रहा है। भूकंपीय रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में बड़ी पनबिजली परियोजनाओं के लिए व्यापक सुरंग निर्माण, जंगलों कटाई और नदियों के प्रवाह में बदलाव हो रहा है। ये परियोजनाएं भूस्खलन का खतरा बढ़ाती हैं। ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलें फटती है या बड़ी बाढ़ आती है, तो बांध स्वयं तबाही का कारण बन सकते हैं।हिमालय सिर्फ एक भौगोलिक संरचना नहीं, बल्कि एक जीवंत और गतिशील तंत्र है, जो हमारे दबाव का जवाब दे रहा है। बढ़ती आपदाएं इसकी चेतावनी हैं। हमें शोषण से संरक्षण और टिकाऊ प्रबंधन से सक्रिय जोखिम कम करने की ओर बढ़ना होगा। भारत का पानी, ऊर्जा और पर्यावरणीय भविष्य हिमालय की सेहत पर निर्भर है। इसे बचाना विकल्प नहीं, बल्कि वैश्विक आवश्यकता है। जहाँ पारिस्थितिक अस्थिरता के कारण इसकी प्राकृतिक सुंदरता खतरे में है। बादल फटने और भूस्खलन की बढ़ती आवृत्ति जीवन और आजीविका दोनों को खतरे में डाल रही है और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक नाज़ुक विरासत छोड़ने का ख़तरा पैदा कर रही है।यह संकट तत्काल ध्यान और दीर्घकालिक प्रतिबद्धता की मांग करता है। विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच एक संतुलित दृष्टिकोण को संस्थागत रूप दिया जाना चाहिए। नीति निर्माताओं, वैज्ञानिकों, प्रशासकों और समुदायों की समन्वित कार्रवाई से हिमाचल के पहाड़ एक बार फिर शक्ति और स्थायित्व के प्रतीक बन सकते हैं। इससे पहले कि क्षति अपरिवर्तनीय हो जाए, कार्रवाई करने का समय अभी है।हिमालय के सतत विकास के लिए जलवायु जोखिमों, सीमा सुरक्षा और पारिस्थितिकी में संतुलन आवश्यक है। पारिस्थितिक पर्यटन , नवीकरणीय ऊर्जा और स्थानीय क्षमता निर्माण को बढ़ावा देना आवश्यक है। जैव विविधता, सांस्कृतिक विरासत और जल सुरक्षा की रक्षा के लिए बुनियादी ढाँचे की योजना में जोखिम आकलन को एकीकृत किया जाना चाहिए। हिमालय की सुरक्षा भारत के सामरिक और पारिस्थितिक भविष्य को सीधे तौर पर सुरक्षित करती है *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*