उर्गम घाटी, जोशीमठ। चमोली पंच केदार पंच बद्री श्रीकल्पेश्वर धाम पंच बद्री में श्रीध्यान बद्री की धरती में पांडव नृत्य का अलग महत्व है। आज यहां पांडवों के बनवास के 12 वर्ष पूरे करने के बाद 1 वर्ष अज्ञातवास का बड़ा कठिन था दौर शुरू हुआ। इसी अज्ञातवास के समय में पांडवों ने मोर मोरीण अर्थात दूधवाले के यहां शरण ली। दूध वाले ने पांडवों का भव्य स्वागत किया। खूब दूध दही मक्खन घी पांडवों को दिया। ऐसी लोक मान्यताएं हैं।

आज भी पांडव नृत्य के बीच में मोर मोरीण का दृश्य का मंचन किया जाता है। पांडवों की तरफ से वार्तालाप किया जाता है कि जब हम लोग अज्ञातवास के समय में घूम रहे थे तो आपने हमारा भव्य स्वागत किया। आज भी मोर मोरीण के द्वारा पांडवों को दूध मक्खन खिलाया जाता है। पांडवों के अस्त्र शस्त्र को मक्खन से लेपन किया जाता है। साथ ही वर्षों की भेंट की बात कही जाती है। दो पात्र होते हैं जो मुख्य रूप से मोर मोरीण बने होते हैं। हास्य व्यंग की शैली में नृत्य करते हुए आते हैं। ढोल वालों के द्वारा भव्य रुप से नृत्य कराया जाता है। उसके बाद मुख्य मंच पर आकर के पांडवों के सभी पात्रों से भेंट की जाती है। पांडवों की पत्नी द्रोपदी के द्वारा इनकी पिटाई लगा कर के स्वागत किया जाता है। उसके बाद पांडव के साथ मोर मरीन भी नृत्य करते हैं।
इस आयोजन में महाभारत के समय कीचक महान योद्धा का वर्णन एवं एक पुतला बनाया जाता है। जिसे युद्ध करके मृत घोषित किया जाता है। साथ ही अर्जुन एवं नाक अर्जुन के द्वारा गेंडे का वध का दृश्य दर्शकों को काफी भाव विभोर कर देता है। पांडव नृत्य की अपनी अलग परंपरा है। ऐसा मानते है कि पांडव काफी समय हिमालय में रहे। हिमालय वासियों की अगाध आस्था पांडवों के प्रति रहती है। हर 10, 15 सालों में पांडव नृत्य का मंचन क्षेत्र के लोग करते हैं। पांडव नृत्य में भी विष्णु स्वयं नारायण कृष्ण के रूप में रहते हैं। लगभग 20 से 25 पात्र पांडव नृत्य में होते हैं। मुख्य रूप से धर्मराज युधिष्ठिर महाराज, वीर अर्जुन, भीम, सहदेव, नकुल, द्रोपदी, श्री नारायण कृष्ण नाक अर्जुन मूषक वाहन लोहार लोहारी के अलावा अन्य पात्र होते हैं। देवियों का भी इसमें नृत्य होता रहता है। इस आयोजन में क्षेत्र के क्षेत्रपाल श्री घंटाकर्ण देवियों का भी मुख्य भूमिका होती है।
आज भी उत्तराखंड के कई गांव में शादी विवाह जन्मपत्री जोड़ने की जिम्मेदारी ग्राम देवता से पूछा जाता है और पांडव नृत्य के शुरुआत एवं संपन्न के दिन भी ग्राम देवता ही करते हैं। कल्पेश्वर घाटी में पांडव नृत्य का अपना महत्व है इस कार्यक्रम के अवसर पर देश देशांतर में रहने वाली बहू बेटियां गांव आकर नृत्य का आनंद लेते हैं। आजकल ग्राम क्षेत्रों में भी बच्चों के द्वारा भी पांडव नृत्य नाटिका का आयोजन शुरू हो गया है संस्कृति का प्रचार इन्हीं माध्यमों से होता है। पांडव नृत्य शैली भी वंशानुक्रम से चलता रहता है उरगम घाटी में अभी इस नृत्य के लिए गांव से अलग.अलग पात्रों का चयन किया जाता है। चयन का मानक देवताओं की यात्रा के अनुसार ही तय होता है। जिन जिन गांव से मुख्य पात्र होते हैं यदि उनकी मृत्यु या वृद्ध होने पर उन्हीं के घरों से पात्रों का चयन होता है। यदि पात्र नहीं मिला तो फिर पंचायती लोगों के द्वारा तय होता है कि किस व्यक्ति को किसका पात्र चयन किया जाए। एक से अधिक पात्र तैयार होने लगते हैं, तो ढोल दमाऊ की थाप के साथ पांडव देवता का आह्वान किया जाता है। जिस पर भी देवता अवतरित होगा, वही उसका पात्र होगा।
दिलचस्प कहानी पांडव नृत्य की है गांव में तौर तरीके अलग हो सकते हैं यह नृत्य नाटिका पर एक शोध ग्रंथ लिखा जा सकता है। जो हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। धीरे.धीरे सभ्यता के विकास के साथ ढोल वादन गायन विधा धीरे धीरे समाप्त हो रही है। उसका मुख्य कारण राज्य सरकारों एवं केंद्र सरकार के द्वारा दीर्घ गामी कोई परियोजना नहीं है। इनके संरक्षण के लिए प्रयास किए जाएं। ढोल वादकों को 60 साल के बाद पेंशन योजना उत्तराखंड सरकार चलाती है, किंतु इसमें भी मासिक पंद्रह सौ रुपए रखे गए हैं। एक गरीब का साहित्य शिल्पकार लोक लोक वाद्य यंत्र वादक 1500 मासिक कमाई नहीं कर पाता है। इसका लाभ नहीं ले पाते हैं। धीरे.धीरे लोक कलाकार वृद्ध होते जा रहे हैं और इस तरह की विधाओं को आगे ले जाने में कठिनाई हो रही है। कई जगह पर पहले पांडव नृत्य हर दूसरे साल में होते थे। अब ढोल वादकओं की कमी होने कारण यह आयोजन 10 से 15 वर्ष के अंतराल में हो रहा है। समय रहते हुए ध्यान नहीं दिया गया तो हिमालय क्षेत्र में कई लोक कलाएं विधाएं समाप्त हो जाएगी। सामाजिक संगठन जनदेश के शोध पत्र के अनुसार पैनखंडा क्षेत्र में लगभग 20 मेले ऐसे हैं कि जो समाप्त हो गए हैं।
खोली लोक कला के कलाकार भी लगभग समाप्ति के कगार पर हैं। पहले हर गांव में 2 से 4 लोक काष्ठ शिल्पी हुआ करते थे। अब पूरे ब्लॉक जोशीमठ में मात्र 4 काष्ट शिल्पी जिंदा होंगे। नई पीढ़ी ढोल वादन का काम नहीं करना चाहती है। सरकार ने आज तक किसी भी आईटीआई कॉलेज में ढोल के संबंध में कोई एक विषय शुरू ही नहीं किया। मात्र शोध एवं अध्ययन तक ही लोक कला एवं संस्कृति सीमित रह गई है। लोक कला संरक्षण के लिए काष्ट शिल्पी राजेंद्र सिंह रावत मेला समिति अध्यक्ष उर्गम ने कहा कि सांस्कृतिक संरक्षण के लिए आवश्यक कदम उठाने की आवश्यकता है। उन्होंने बताया कि उत्तरी क्षेत्र सांस्कृतिक कला केंद्र पटियाला के द्वारा फैलोशिप दिया जाता है। उन्हीं लोगों को दिया जाता है, जो पहले से प्रवीण हैं। नए लोगों को भी इस कार्यक्रम से जोड़ने की आवश्यकता है।
लक्ष्मण सिंह नेगी स्वतंत्र लेखक पत्रकार की कलम से












