डा.हरीश चंद्र अंडोला
भारत के अलावा यह नेपाल, पाकिस्तान, पोलैण्ड, सर्बिया, रूस, मेक्सिको, वियतनाम आदि देशों में पाया जाता है। हिसालू केवल खाने में ही स्वादिष्ट होता है, इसके बहुत से औषधीय गुण भी हैं। हिसालू को एंटीआक्सीडेंट प्रभावों से युक्त पाया गया है। इसकी ताजी जड़ों के रस का प्रयोग पेट से जुड़ी बिमारियों के लिये किया जाता है। हिसालू में अनेक पोषक तत्व पाये जाते हैं। हिसालू में कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम मैग्नीशियम, आयरन, जिंक, पोटेशियम, सोडियम व एसकरविक एसिड उपलब्ध होते हैं। इसमें विटामिन सी 32 प्रतिशत, फाइबर 26 प्रतिशत, मैंगनीज़ 32 प्रतिशत तक पाया जाता है। हिसालू में शुगर की मात्रा सिर्फ 4 प्रतिशत तक ही पायी गयी है। हिसालू के दानों से प्राप्त रस का प्रयोग बुखार, पेट दर्द, खांसी एवं गले के दर्द में भी फायदेमंद होता है। तिब्बती चिकित्सा पद्धति में हिसालू की छाल का प्रयोग सुगन्धित एवं कामोत्तेजक प्रभाव के लिए किया जाता है। हिमालयी एरिया में समुद्रतल से 750 से 1800 मीटर तक की ऊंचाई पर बहुतायत में पाया जाने वाला हिंसर (यलो रसबेरी या हिमालयन रसबेरी) बेहद जायकेदार फल है।
उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के पारंपरिक खानपान में जितनी विविधता एवं विशिष्टता है, उतनी ही यहां के फल.फूलों में भी। खासकर जंगली फलों का तो यहां समृद्ध संसार है। यह भी जंगलों व पहाड़ी रास्तों पर अपने आप उगता है। हिंसर का वैज्ञानिक नाम रूबस इलिप्टिकस है, जो रोसेसी कुल का पौधा है। हिंसर में अच्छे औषधीय अवयवों के पाए जाने के कारण इसे विभिन्न रोगों के समाधान में परंपरागत औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है। प्राचीन समय से लेकर वर्तमान तक हिंसर के संपूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण व परीक्षण के उपरांत ही इसे एंटी ऑक्सीडेंट, एंटी ट्यूमर व घाव भरने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। अच्छी फार्माकोलॉजी एक्टिविटी के साथ.साथ हिंसर में पोषक तत्व, जैसे कॉर्बोहाइड्र्रेट, सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम, आयरन, जिंक व एसकारविक एसिड प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें विटामिन सी 32 प्रतिशत, मैगनीज 32 प्रतिशत, फाइबर 26 फीसदी व शुगर की मात्रा चार फीसदी तक आंकी गई है। इसके अतिरिक्त हिंसर का उपयोग जैम, जेली, विनेगर, वाइन, चटनी आदि बनाने में भी किया जा रहा है। यह मैलिक एसिड, सिटरिक एसिड, टाइट्रिक एसिड का भी अच्छा स्रोत है। यही वजह है कि धीरे.धीरे इसके फलों से मार्केट भी परिचित होने लगा है।
हिसालू उत्तराखंड का अद्वितीय और बहुत स्वादिष्ट फल है । यह पहाड़ी क्षेत्र में मुख्य रूप से अल्मोड़ा, नैनीताल और अन्य स्थानों में पाया जाता है, जो कि उच्च ऊंचाई में स्थित हैं। हिसालु जेठ.असाड़ (मई.जून) के महीने में पहाड़ की रूखी.सूखी धरती पर छोटी झाड़ियों में उगने वाला एक जंगली रसदार फल है। जेठ में पकने वाले इस फल को कुछ स्थानों पर हिंसर या हिंसरु के नाम से भी जाना जाता है। इसे हिमालय की रास्पबेरी के नाम से भी जाना जाता है। इसका लेटिन नाम त्नइने मसपचजपबने है, जो कि त्वेंबमंम कुल की झाडीनुमा वनस्पति है हिसालू के दो प्रकार पाए जाते हैं। एक पीला रंग होता है और दूसरा काला रंग होता है। पीले रंग का हिसालू आम है, लेकिन काले रंग का हिसालू इतना आम नहीं है। हिसालू में खट्टा और मीठे स्वाद होता है एक अच्छी तरह से पके हुए हिसालू को अधिक मीठा और कम खट्टा स्वाद मिलता है। यह फल इतना कोमल होता है कि हाथ में पकडते ही टूट जाता है एवम् जीभ में रखो तो पिघलने लगता है।
हिसालू फल ने कुमाऊं के लोकगीतों में एक ख़ास जगह बनाई है। कुमाउंनी गीतों में हिसालू फल के रसीले स्वाद का वर्णन किया जाता है एवम् पहाड़ों में इस फल के आगमन के समय लोक में ख़ुशी की झलक दिखाई देती है। इस फल को ज्यादा समय तक संभाल के नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि हिसालू फल को तोड़ने के 1.2 घंटे बाद ही खराब हो जाता है। यह फल सिर्फ उत्तराखंड के अल्मोड़ा, नैनीताल और अन्य स्थानों में मिलता है और इस फल को अल्मोड़ा, नैनीताल और अन्य स्थानों के पहाडी क्षेत्र के लोगों द्वारा लाया जाता हैं।
हिसालू फलों में प्रचुर मात्र में एंटी ऑक्सीडेंट की अधिक मात्रा होने की वजह से यह फल शरीर के लिए काफी गुणकारी माना जाता है। इस फल की जड़ों को बिच्छुघास ;प्दकपंद ेजपदहपदह दमजजसमद्ध की जड़ एवं जरुल ;स्ंहमतेजतवमउपं चंतअपसिवतंद्ध की छाल के साथ कूटकर काढा बनाकर बुखार की स्थिति में रामबाण दवा है। हिसालू फलो की ताजी जड़ से प्राप्त रस का प्रयोग करने से पेट सम्बंधित बीमारियों दूर हो जाती है एवम् इसकी पत्तियों की ताज़ी कोपलों को ब्राह्मी की पत्तियों एवं दूर्वा ;ब्लदवकवद कंबजलसवदद्ध के साथ मिलाकर स्वरस निकालकर पेप्टिक अल्सर की चिकित्सा की जाती है। इसके फलों से प्राप्त रस का प्रयोग बुखार, पेट दर्द, खांसी एवं गले के दर्द में बड़ा ही फायदेमंद होता है।
इसकी छाल का प्रयोग तिब्बती चिकित्सा पद्धतिमें भी सुगन्धित एवं कामोत्तेजक प्रभाव के लिए किया जाता है। हिसालू फल के नियमित उपयोग से किडनी.टोनिक के रूप में भी किया जाता है एवम् साथ ही साथ नाडी. दौर्बल्य अत्यधिक है। मूत्र आना पोली.यूरिया, योनि स्राव, शुक्र. क्षय एवं शय्या.मूत्र बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करना आदि की चिकित्सा में भी किया जाता है। हिसालू जैसी वनस्पति को सरंक्षित किये जाने की आवश्यकता को देखते हुए इसे आईयूसीएन द्वारा वर्ल्ड्स हंड्रेड वर्स्ट इनवेसिव स्पेसीज की लिस्ट में शामिल किया गया है एवम् इसके फलों से प्राप्त एक्सट्रेक्ट में एंटी.डायबेटिक प्रभाव भी देखे गए हैं। उत्तराखंड के अलावा हिसालू भारत में लगभग सभी हिमालयी राज्यों में उच्च उंचाई पर पाया जाता है। हिसालू के दानों से प्राप्त रस का प्रयोग बुखार, पेट दर्द, खांसी एवं गले के दर्द में भी फायदेमंद होता है। हिसालू जैसी वनस्पति को सरंक्षित किये जाने की आवश्यकता को देखते हुए इसे आईयूसीएन द्वारा वर्ल्ड्स हंड्रेड वर्स्ट इनवेसिव स्पेसीज की लिस्ट में शामिल किया गया है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी हिसालू पर देखा गया है। अमूमन 2500 से 7000 फीट की उंचाई पर सामान्य रुप से पाया जाने वाला हिसालू अब अधिक उंचाई पर पाया जाने लगा है। पहाड़ के फलों को लेकर भारत सरकार कितनी अधिक गंभीर है इसका एक नमूना अक्टूबर 2018 में पत्र सूचना कार्यालय, भारत सरकार की के प्रेस विज्ञप्ति में देखा जा सकता है जिसमे एंटी.ऑक्सिडेंट्स से संबंधित एक लेख में हिसालू को स्ट्राबेरी लिखा गया है। आज भी यह लेख पत्र सूचना कार्यालय, भारत सरकार की वेबसाइट पर जस का तस लगा है। उत्तराखंड में हिसालू का उत्पादन कहीं पर नहीं होता है। इसके बावजूद गर्मियों में नैनीताल जैसे हिल स्टेशन की सड़कों पर 30 रुपया प्रति सौ ग्राम की दर से हिसालू बिकता दिखता हैण् सैलानी जिसे 300 रुपया किलो खरीद कर खा रहे हैं सरकार की नज़र में वह जंगल में उग जाने वाले एक जंगली फल से ज्यादा कुछ नहीं है।