डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत और चीन के बीच तनावपूर्ण रिश्तों से इतर एक नई उम्मीद की किरण जगी है. भारत सरकार ने उत्तराखंड के लिपुलेख दर्रे के रास्ते चीन के साथ व्यापारिक गतिविधियों को दोबारा शुरू करने का ऐतिहासिक फैसला लिया है. यह कदम न केवल दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देगा. बल्कि उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र विशेष रूप से पिथौरागढ़ जिले में रोजगार और समृद्धि के नए अवसर पैदा करेगा. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद बंद हुए इस मार्ग का दोबारा खुलना, उत्तराखंड के लिए एक नया आर्थिक युग शुरू करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है. लिपुलेख के साथ ही हिमाचल के शिपकी ला और सिक्किम के नाथु ला दर्रे से भी व्यापार बहाली पर सहमति बनी है. लिपुलेख दर्रा समुद्र तल से लगभग 17 हजार 500 फीट की ऊंचाई पर उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में भारत, तिब्बत और नेपाल के त्रि-जंक्शन पर स्थित है. यानी ये वो स्थान है जहां तीनों देशों की सीमाएं मिलती हैं. बताया जाता है कि ये प्राचीन काल से व्यापारियों और तीर्थयात्रियों का प्रमुख मार्ग रहा है. यह दर्रा भारत को तिब्बत के तकलाकोट (पुरंग) बाजार से जोड़ता है और यहीं से गुजरती है कैलाश-मानसरोवर की पवित्र यात्रा. 1954 से भारत और तिब्बत के बीच इस मार्ग से व्यापार होता रहा है. इस मार्ग से भारतीय व्यापारी ऊनी कपड़े, जड़ी-बूटियां और हस्तशिल्प निर्यात (एक्सपोर्ट) करते थे. जबकि तिब्बत से नमक, ऊन और अन्य सामान आयात (इंपोर्ट) किए जाते थे. 1962 के युद्ध के बाद यह मार्ग बंद हो गया, जिसने उत्तराखंड के सीमावर्ती गांवों की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई.लिपुलेख के अलावा, उत्तराखंड के नीती और बड़ाहोटी जैसे दर्रों से भी पहले व्यापार होता था. इन मार्गों के बंद होने से स्थानीय समुदायों को भारी नुकसान हुआ. जिसके बाद बड़े पैमाने पर पलायन की समस्या बढ़ी. अब लिपुलेख दर्रे के दोबारा खुलने से न केवल व्यापार बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक आदान-प्रदान को भी बढ़ावा मिलेगा. चीन के साथ नया व्यापारिक समझौता एक आर्थिक क्रांति ला सकता है. 18-19 अगस्त 2025 को चीनी विदेश मंत्री वांग यी की भारत यात्रा के दौरान भारत और चीन ने लिपुलेख दर्रे, हिमाचल प्रदेश के शिपकी ला और सिक्किम के नाथू ला मार्गों से सीमा व्यापार को फिर से शुरू करने पर सहमति जताई. इस समझौते के तहत भारतीय व्यापारी तिब्बत के तकलाकोट बाजार में स्थानीय उत्पाद जैसे हस्तशिल्प, जड़ी-बूटियां और कृषि उत्पाद निर्यात करेंगे. जबकि चीन से इलेक्ट्रॉनिक्स, कपड़े और अन्य वस्तुएं आयात की जाएंगी. बताते हैं कि, साल में एक बार अभी भी ये रास्ता खुलता है और व्यापार होता है. आखिरी बार साल 2018 में लिपुलेख मार्ग से 6.55 करोड़ रुपये का व्यापार हुआ था. इसके लिए बाकायदा पिथौरागढ़ में एक ट्रेड ऑफिसर भी बैठता है, जो पास जारी करता है, जिसके बाद ही लोग व्यापार कर पाते हैं. लिपुलेख दर्रे के खुलने से उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र, विशेष रूप से पिथौरागढ़ में आर्थिक समृद्धि की नई संभावनाएं खुलेंगी. यह क्षेत्र दशकों से पलायन और आर्थिक उपेक्षा का शिकार रहा है. व्यापारिक गतिविधियों के शुरू होने से स्थानीय व्यापारियों, परिवहन सेवाओं और छोटे उद्यमियों को रोजगार के अवसर मिलेंगे. साथ ही कैलाश-मानसरोवर यात्रा के लिए इस मार्ग के उपयोग से पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेग, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को और बल मिलेगा.जय सिंह पत्रकार का कहना है कि यह उत्तराखंड और भारत के लिए एक ऐतिहासिक कदम है. लिपुलेख जैसे मार्गों के खुलने से न केवल आर्थिक समृद्धि आएगी बल्कि पलायन की समस्या पर भी अंकुश लगेगा. हमारे सीमावर्ती गांव जो खाली हो चुके हैं, फिर से आबाद हो सकते हैं. कई लोगों के मकान और जमीनें आज भी तिब्बत के उन बाजारों में हैं, जहां पहले व्यापार होता था. यह पहल उन गांवों को फिर से जीवंत कर सकती है, जो सीमा से सटे हैं और खाली हो चुके हैं. इनको आज हम वाइब्रेंट विलेज के नाम से भी विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं. व्यापार खुलने से सरकार ही नहीं, खुद वो लोग गांव को आबाद कर लेंगे, जिनके वो गांव हैं. लिपुलेख दर्रा न केवल व्यापारिक बल्कि सामरिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है. यह भारत को तिब्बत और चीन के साथ सीधे जोड़ता है, जिससे रणनीतिक संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है. 2020 में भारत द्वारा निर्मित 80 किलोमीटर लंबी सड़क जो कैलाश-मानसरोवर यात्रा को सुगम बनाती है, इस क्षेत्र की सामरिक अहमियत को और बढ़ाती है. इस सड़क ने यात्रा के समय को घटाकर दो से तीन दिन कर दिया है. 1962 के युद्ध के बाद से भारत ने कालापानी क्षेत्र में इंडो-तिब्बतन बॉर्डर की तैनाती कर रखी है, जो इस क्षेत्र की सामरिक निगरानी करती है. लिपुलेख दर्रे का उपयोग न केवल व्यापार बल्कि सीमा सुरक्षा को मजबूत करने में भी सहायक होगा. भारत और तिब्बत के बीच व्यापार के लिए उत्तराखंड के दर्रे सबसे उपयुक्त हैं. दिल्ली या सहारनपुर जैसे शहर तिब्बत के बाजारों से महज 550 से 700 किलोमीटर से अधिक दूर हैं. जबकि लिपुलेख, नीती या माणा जैसे मार्ग तिब्बत के तकलाकोट जैसे बाजारों के बेहद करीब हैं. यह नजदीकी व्यापार को तेज और लागत प्रभावी बनाती है. हम हमेशा कहते हैं कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’, लेकिन हकीकत में हमें ‘हिंदी-चीनी बाय-बाय की सोच अपनानी होगी. यह उत्तराखंड के दर्रों का सामरिक और आर्थिक महत्व को दर्शाता है. लिपुलेख दर्रे से भारत-चीन व्यापार की शुरुआत न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक और सामरिक दृष्टिकोण से भी एक क्रांतिकारी कदम है. यह उत्तराखंड के लिए समृद्धि का नया युग ला सकता है. बशर्ते, इसे कूटनीतिक संवेदनशीलता और स्थानीय भागीदारी के साथ लागू किया जाए. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने भी भारत चीन व्यापार के शुरू होने से खुशी जताई है. उनका कहना है कि इससे उत्तराखंड की आर्थिकी को मजबूती मिलेगी. उत्तराखंड में जिस तरह से सीमा तक अब सड़कें पहुंच गई हैं, तो ये व्यापार हमारे प्रदेश के रास्ते से बेहद सुगम और सुरक्षित होगा. भारत तिब्बत व्यापार संघ के अध्यक्ष मौजूदा समय में 78 साल के हैं. वह साल 1993 से तिब्बत के बाजारों में सामान बेचने जाते रहे हैं. भारत और तिब्बत के बीच व्यापार खुलने की खबर से वह भी बेहद खुश हैं और इस उम्र में भी व्यापारिक गतिविधियां करने के लिए दोबारा से तिब्बत जाना चाहते हैं. उन्होंने बताया कि वह साल 2004 तक व्यापार करते रहे हैं. रेशम, ऊन, कंबल और अन्य सामान भारत से तिब्बत के बाजारों में जाता और आता रहा है. लिपुलेख से व्यापार का महीना मई में शुरू होता है. जबकि अक्टूबर में हम सभी लोग वापस आ जाते हैं. उन्होंने बताया कि साल 2004 साल 2005 तक तिब्बत जाने के लिए हमें कुछ पैदल भी चलना पड़ता था. लेकिन अब सड़क इतनी बेहतर हो गई है कि भारत की सीमा तक भारत की गाड़ियां पहुंचती हैं और उसके बाद तिब्बत के बाजार तक पहुंचाने के लिए वहां की गाड़ियां हमें मिल जाती हैं. हमारे व्यापारियों के लिए तिब्बत में लगभग 180 दुकानें और मकान मौजूद हैं. हम इस व्यापार के लिए हर साल उन्हें यानी चीन को लगभग 48 हजार रुपए देते हैं. इसमें आना-जाना और रहना शामिल होता है. वह चाहते हैं कि भले ही साल 2026 से पूरी तरह से व्यापारिक गतिविधियां शुरू हो, लेकिन इस साल भी अगर 2 महीने के लिए बाजार खुलता है तो वहां जाकर न केवल अपनी व्यवस्थाएं देख लेंगे, बल्कि कुछ सामान लेना या देना है, उसको भी तैयार कर सकते हैं. ताकि 2026 में व्यवस्थाएं दोबारा न बनानी पड़े. नेपाल के विदेश मंत्रालय ने आपत्ति जताई और कहा कि लिपुलेख नेपाल का अविभाज्य हिस्सा है और इन्हें नेपाल के आधिकारिक नक्शे और संविधान में शामिल किया गया है। मामले में भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि लिपुलेख दर्रे के जरिए भारत और चीन के बीच सीमा व्यापार 1954 से चल रहा है और यह लंबे समय से प्रचलित है। हाल के वर्षों में यह व्यापार कोविड-19 महामारी और अन्य कारणों से बाधित हुआ था। अब दोनों देशों ने इसे फिर से शुरू करने पर सहमति दी है।उन्होंने आगे कहा कि नेपाल के क्षेत्रीय दावे न तो न्यायसंगत हैं और न ही ऐतिहासिक तथ्यों और प्रमाणों पर आधारित है। उन्होंने कहा कि इस तरह के दावे केवल बनावटी और एकतरफा बढ़ोतरी हैं, जो स्वीकार्य नहीं हैं। साथ ही मंत्रालय के प्रवक्ता ने ये भी कहा कि भारत नेपाल के साथ सीमा से जुड़े सभी मुद्दों को बातचीत और कूटनीति के माध्यम से सुलझाने के लिए हमेशा तैयार है। नेपाल द्वारा पहला सीमा दावा 1962 में किया गया था। पिछले साल, नेपाल ने कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को दर्शाने वाला एक नया मुद्रा नोट जारी किया। भारत ने मानचित्र को खारिज करते हुए कहा कि “एकतरफा कार्रवाई” जमीनी हकीकत को नहीं बदलेगी। नेपाल की राजनीति में लिपुलेख जैसे मुद्दों का उपयोग अक्सर राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काने के लिए किया जाता है. यहां वामपंथी हो या दूसरी पार्टियों की सरकर है । *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*