डा.हरीश चंद्र अंडोला
जखिया कैपरेशे परिवार की 200 से अधिक किस्मों में से एक है। पहाड़ में जख्या, जखिया के नाम से जाना जाने वाला यह पौधा अंग्रेजी में एशियन स्पाइडर फ्लावर, वाइल्ड डॉग या डॉग मस्टर्ड के नाम से भी जाना जाता है। इसका वानस्पतिक नाम क्लोमा विस्कोसा है। 800 से 1500 मीटर की ऊँचाई में प्राकृतिक रूप से उगने वाला यह जंगली पौधा पीले फूलों और रोयेंदार तने वाला हुआ करता है। एक मीटर तक की ऊँचाई वाले जखिया का पौधा दुनिया के कई देशों में पाया जाता है। हिमालय की विविध भूस्थलाकृतिक विशेषताओं के कारण यहंा वानस्पतिक संसाधनों का विशाल एवं स्थायी भंडार चिर काल से उपलब्ध रहा है। हिमालयी क्षेत्र ईश्वर प्रदत्त अनेक औषधीय वनस्पतियों का खजाना है यहां मिलने वाली विशिष्ट वनस्पतियों का उपयोग लोग सदियों से पारंपरिक व्यंजनों में करते आ रहे हैं। इनमे से अधिकांश वनस्पतियां खाली बेकार पड़े क्षेत्रों में तथा जंगलों में जानकारी के अभाव में खर पतवार के रूप में मानी जाती रही है। पर्वतीय क्षेत्र के पारंपरिक चिकित्सक वैद्य इन वनस्पतियों का रोगों के उपचार हेतु प्रयोग कराते आ रहे हैं।
एक अध्ययन के अनुसार ऐसी लगभग 124 प्रकार की वनस्पतियां है जिनका प्रयोग पर्वतीय क्षेत्र वैद्य पारंपरिक चिकित्सा में करते हैं। सन्दर्भ एकेडेमिक जर्नल ऐसी ही एक वनस्पति जिसके बीजों का प्रयोग गढ़वाल एवं कुमाऊं में किया जाता है जखिया के नाम से प्रचलित है।लेटिन में क्लियोम विस्कोसा के नाम से लोकप्रचलित इस वनस्पति को 500 से 1500 मीटर की ऊंचाई पर खाली बेकार पड़े पर्वतीय क्षेत्रों में आप देख सकते हैं।इसके बीजों को जीरे के विकल्प के तौर पर भी प्रयोग में लाया जाता है।इसके बीजों का प्रयोग गढ़वाल एवं कुमाऊं क्षेत्र में हरप्रकार की कढ़ी में स्वाद उत्पन्न करने के लिए डाला जाता है।इसे डॉग मस्टर्ड भी कहते हैं।केदारघाटी के इलाकों में लोग जखिया के बीजों की खुशबू से निर्मित हरा साग बड़े चाव से खाते हैं।इसे रूगढ़वाली जीरा ष्के नाम से जाना जाता है।लोग इसकी खुशबू एवं स्वाद के कारण जीरा या सरसों से अधिक पसंद करते हैं।ये तो रही इसके स्वाद एवं पारंपरिक उपयोग की बात अब जानते हैं इसके औषधीय प्रयोग के बारे में रू.1991 में सीएसआईआर में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार इस वनस्पति का प्रयोग सूजन कम करनेएलीवर संबंधी समस्याओं को दूर करने में एब्रोंकाइटिस एवं डायरिया जैसी स्थितियों से निबटने में भी उपयोगी पाया गया है । जखिया के बीजों से प्राप्त तेल भी औषधीय गुणों से युक्त होता है।इसे इंफेन्टाइल कंवलजन एवं मानसिक विकारों की चिकित्सा में काफी उपयोगी माना गया है ।कई शोध अध्ययनों से यह बात सामने आयी है कि जखिया की पत्तियों में व्रण रोधी पाये जाते हैं।1990 में जर्नल इकोनोमिक बोटनी में प्रकाशित शोध के अनुसार जखिया एग्रो.ईकोलॉजिकल महत्व की वनस्पति है क्योंकि इसे पर्वतीय क्षेत्र के लोग इसके बीजों कोस्वयं ही एक दूसरे को अपने यहां लगाने के लिए उपहार स्वरुप आदान प्रदान करते हैं।इसके सुखाये हुए बीज 200 रुपये प्रति किलो की दर से बेचे जाते हैं।
इण्टरनेशनल जर्नल आफ रिसर्च इन फार्मेसी एंड केमेस्ट्री में प्रकाशित शोध के अनुसार इसमें मौजूद उच्च एमिनो एसिड एवं मिनरल इसे हाई इकोनोमिक महत्व की वनस्पति का दर्जा देते हैं।एक अन्य अध्ययन के अनुसार इसके बीजों से प्राप्त तेल जेट्रोफा की तरह ही बायोडीजल का भी एक स्रोत है। इससे बनायी गयी एक पहाड़ी रेसीपी को आप भी बना सकते खिया या जख्या नाम से जाना जाने वाला यह पहाड़ी मसाला महक और जायके से भरपूर है। जखिया उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में तड़के के रूप में खूब इस्तेमाल किया जाने वाला सर्वाधिक लोकप्रिय मसाला है। काली.भूरी रंगत वाले जख्या के दाने सरसों और राई के हमशक्ल होते हैंण् किसी भी पहाड़ी रसोई में इसका दर्जा उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की मैदानी इलाकों में जीरे काण् इसमें पाए जाने वाले फ्लेवरिंग एजेंट इसके अद्भुत स्वाद के लिए जिम्मेदार हैं। आलू, पिनालू, गडेरी, कद्दू, लौकी, तुरई, हरा साग, आलू.मूली के थेचुए और झोई कढ़ी आदि व्यंजनों में इसका तड़का लगाया जाता है। जख्या से छोंके गए चावल दाल की कमी महसूस नहीं होने देतेण् जखिया के बीज का तड़का लगाने के अलावा इसके पत्तों का साग भी खाया जाता है। इसकी महिमा को देखते हुए उत्तराखंड के मशहूर गायक। गीतकार और संगीतकार नरेंद्र सिंह नेगी ने इस पर एक गीत ही रच डाला है। गीत के बोल हैं मुले थिंच्वाणी मां जख्या कु तुड़का, कबलाट प्वटग्यूं ज्वनि की भूख मूली की थिंच्वाणी में जख्या का तड़का पेट में कुलबुलाहट पैदा करता है। आखिर जवानी की भूख जो है, जखिया का स्वाद एक बार जिसकी जुबान पर लग गया वह इसका मुरीद हो जाता है। पहाड़ी रसोइयों से जीमकर गए विदेशी तक इसके स्वाद के दीवाने हैं।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी खबर की तस्वीर में आप नॉर्वे में रहने वाली आयरिश महिला डाइड्री कैनेडी की जखिया के लिए दीवानगी की खबर पढ़ सकते हैं। प्रवासी उत्तराखंडी भी अपने खाने को पहाड़ी आत्मा देने के लिए पहाड़ से जखिया ले जाना कभी नहीं भूलते। पहाड़ की परंपरागत चिकित्सा पद्धति में जखिया का खूब इस्तेमाल किया जाता है।
एंटीसेप्टिक, रक्तशोधक, स्वेदकारी, ज्वरनाशक इत्यादि गुणों से युक्त होने के कारण बुखार, खांसी, हैजा, एसिडिटी, गठिया, अल्सर आदि रोगों में जखिया बहुत कारगर माना जाता है। पहाड़ों में किसी को चोट लग जाने पर घाव में इसकी पत्तियों को पीसकर लगाया जाता है जिससे घाव जल्दी भर जाता है। आज भी पहाड़ में मानसिक रोगियों को इसका अर्क पिलाया जाता है। जखिया पहाड़ों की निचली चोटियों पर नैसर्गिक रूप से पैदा होता हैण् खेतों की मेढ़ों से लेकर, खली पड़े मैदानों, घर.आंगन और बंजर जमीन तक में जखिया आसानी से उग आता है। यह सिंचित जमीन का भी मोहताज नहीं है। बरसात के मौसम में यह किसी खरपतवार की तरह किसी भी जमीन पर पनप जाता है। इसके पौधे में लगने वाली पतली फलियाँ महकदार बीजों को अपनी पनाह में रखे रहती हैं। इन फलियों में से नन्हे.नन्हे बीज निकलकर सुखा लिए जाते है। अब मसाले के रूप में यह आपकी रसोई को लम्बे समय तक महकाने के लिए तैयार हो जाता है। जखिया का स्वाद एक बार जिसकी जुबान पर लग गया वह इसका मुरीद हो जाता है। पहाड़ी रसोइयों से जीमकर गए विदेशी तक इसके स्वाद के दीवाने हैंण् टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी खबर की तस्वीर में आप नॉर्वे में रहने वाली आयरिश महिला डाइड्री कैनेडी की जखिया के लिए दीवानगी की खबर पढ़ सकते हैं। प्रवासी उत्तराखंडी भी अपने खाने को पहाड़ी आत्मा देने के लिए पहाड़ से जखिया का कोटा ले जाना कभी नहीं भूलते। दून विष्वविद्यालय में कार्यरत, डा0 हरीष चन्द्र अन्डोला के अनुसार, के, स्थानीय स्तर पर उपलब्ध प्रकृतिक संसाधनों का संरक्षित सदुपयोग, आधुनिक तकनीकों के प्रयोग से कृशि आधारित व्यवसायिकव ओद्योगिक समृद्धिकारण के माध्यम से पर्वतीय क्षेत्र के युवाओं के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना है, ताकि पर्वतीय क्षेत्र से ग्रामीण युवाओं के पालायन को रोका जा सके और पर्वतीय जनों की जीवन शैली में आवश्यक बदलाव लाया जा सके।












