डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देश का अन्नदाता खुशहाल हो रहा है अब कुछ किसान परंपरागत खेती से दूरी बनाकर तरक्की का रास्ता निकाल रहे हैंण् इसकी एक बानगी देखिएण् अतीशए कुठए कुटकीए करंजाए कपिकाचु और शंखपुष्पी जैसे हर्बल पौधों की खेती से किसानों का एक छोटा समूह 3 लाख रुपये प्रति एकड़ तक की कमाई कर रहा हैण् देश में नाना प्रकार की जड़ी.बूटियाँ और वनस्पतियाँ उपलब्ध हैं और प्रत्येक जड़ी.बूटी किसी न किसी हेतु के लिए उपयोगी होती है। अतीसए अतिविषए पोदिस यह एक छोटा सा पौधा है जो उत्तर पश्चिम हिमालय में 2ए000 से 4ए000 मी॰ ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। अतीस के बीज ज्वर एवं ज्वर के बाद दुर्बलता दूर करने के लिए उपयोगी बताये जाते हैं। अतीस में बलवर्धक गुण तो अवश्य हैंए किंतु ज्वरनाशक के रूप में इसकी मान्यता अधिक नहीं है। यह अतिसार व पेचिश में भी उपयोगी है। अतीश की खेती से प्रति एकड़ 3 लाख तक कमाई अतीश जड़ी.बूटी को उगानेवाले एक किसान को आसानी से 2ण्5 से 3 लाख रुपये प्रति एकड़ की आमदनी हो जाती हैण्अतीश का ज्यादातर इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाओं में होता हैण् उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के ऊंचाई वाले इलाके में किसान इसकी खेती कर रहे हैं यह 2.3 फीट ऊंचा पौधा होता है और पश्चिमोत्तर हिमालय में कुमाऊंए सिक्किम तथा चम्बा के क्षेत्र में 6 से 15 हजार फीट ऊंची चोटियों पर पाया जाता है। यह जड़ी.बूटी बेचने वाली दुकानों पर उपलब्ध रहती है। यह बहुत कड़वी होती है। इसमें अतीसिन नामक बिना रवेदार क्षाराभ होता हैए जो बहुत कड़वा होता है पर विषैला नहीं होता। इसके अतिरिक्त इसमें दो रवेदार क्षाराभ हेटरेतीसिन और हेतिसिन तथा प्रचुर मात्रा में स्टार्च पाया जाता है। यह जड़ी त्रिदोष शामक है। अत्यंत कड़वा होने के कारण कफ और पित्त का तथा उष्ण होने से वात का शमन करने वाली होती है। इन तीनों गुणों के कारण यह दीपनए पाचनए ग्राहीए अर्शनाशकए कृमिनाशकए आम पाचनए रक्त शोधन तथा शोथ हर के कार्य करने वाली होती हैए अतः इन व्याधियों को दूर करने वाली औषधि बनाने में इसका उपयोग किया जाता है।
अतीस बालकों के कई रोगों में बहुत उपयोगी व लाभप्रद सिद्ध होती है अतः इसे श्शिशु भैषज्यश् कहा जाता है। बच्चों के लिए जितनी भी घुटियाँ बाजार में मिलती हैंए उन सबमें अतीस जरूर होती है। यह एक निरापद जड़ी हैए अतः इसका सेवन निर्भीक होकर किया जा सकता हैण् औषधीय पौधों की खेती के लिए राष्ट्रीय आयुष मिशन के अंतर्गत किसानों के क्लस्टर बनाए जाएंगे। प्रदेश आयुर्वेद विभाग के मुताबिक केंद्र सरकार से मिलने वाली वित्तीय सहायता का लाभ लेने के लिए किसानों के क्लस्टर के पास कम से कम दो हेक्टेयर भूमि होना अनिवार्य है। किसानों के क्लस्टर 15 किलोमीटर दायरे के भीतर साथ लगते तीन गांव हो सकते हैं। खेती के लिए बंधक भूमि का भी प्रयोग किया जा सकता है। राष्ट्रीय आयुष मिशन द्वारा वर्तमान में अतिसए कुटकीए कुठए सुगंधवालाए अश्वगंधाए सर्पगंधा तथा तुलसी औषधीय पौधों की खेती के लिए 100ण्946 लाख रुपए की वित्तीय सहायता प्रदान की जा रही है। लघु विधायन तथा दो भंडारण गोदामों के लिए 40 लाख रुपएए 25 लाख रुपए बीज केंद्र तथा पांच लाख रुपए जैविक परमाणिकता के लिए स्वीकृत किए गए हैं। पिछले साल मोदी सरकार ने औषधीय पौधों के लिए राष्ट्रीय आयुष मिशन के अंतर्गत 75ण्54 लाख रुपए स्वीकृत किए थेए जिसमें से दो छोटी नर्सरियों के लिए 12ण्50 लाख रुपएए अतिस की खेती के लिए 8ण्04 लाख रुपएए कुटकी व कुठ के लिए 25 लाख रुपए तथा 30 लाख रुपए ड्राइंग शैड व गोदामों के लिए स्वीकृत किए गए हैं। उसके बाद ही प्रदेश आयुर्वेद विभाग ने क्लस्टर बनाने की कवायद शुरू कर दी है। इसके अलावा 64 लाख रुपए का एक प्रस्ताव औषधीय पौधों की खेती के लिए भारत सरकार को भेजा गया है। इसके बाद प्रदेश में औषधीय खेती को बढ़ावा मिलेगा। बागेश्वर में चल रहे उत्तरायणी मेले में दारामाए जोहरए व्यासए चौंदासए दानपुर से आए जड़ी बूटी व कालीन व्यापारियों के सामानों की भोटिया बाजार में जबरदस्त मांग हो रही हैण् पेटए सिरए घुटने आदि दर्द के लिए उच्च हिमालयी क्षेत्रों में होने वाली गंदरेणीए जम्बूए कुटकीए डोलाए गोकुलमासीए ख्यकजड़ी आदि जड़ी बूटी को अचूक इलाज माना जाता हैण् इसके साथ ही रिंगाल से बने सूपेए डलियों की भी खूब बिक्री हो रही हैण् बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में पिथौरागढ़ जिले के धारचूलाए मुनस्यारीए जोहारए दारमाए व्यास और चौंदास आदि क्षेत्रों के व्यापारी हर साल व्यापार के लिए आते हैंण् हिमालयी जड़ी.बूटी को लेकर आने वाले इन व्यापारियों का हर किसी को बेसब्री से इंतजार रहता हैण् हिमालय की जड़ी.बूटियां ऐसी दवाइयां हैं जो रोजमर्रा के उपयोग के साथ ही बीमारियों में दवा का भी काम करती हैंण् दारमा घाटी के बोन गांव निवासी जय सिंह बोनाल बताते हैं कि जंबू की तासीर गर्म होती हैण् इसे दाल में डाला जाता हैण् गंदरायण भी बेहतरीन दाल मसाला हैण् यह पेटए पाचन तंत्र के लिए उपयोगी हैण् कुटकी बुखारए पीलियाए मधुमेहए न्यूमोनिया मेंए डोलू गुम चोट मेंए मलेठी खांसी मेंए अतीस पेट दर्द मेंए सालम पंजा दुर्बलता में लाभ दायक होता हैण् उत्तराखंड राज्य के उच्च हिमालयी क्षेत्र में कुटकीए अतीसए सालमपंजाए जटामासीए गंदरायणए वज्रदंतीए कूटए चिरायताए वन तुलसी सहित कई बहुमूल्य जड़ी.बूटियां पाई जाती हैं। ये जड़ी.बूटियां बुखारए पीलियाए मधुमेहए पेट की समस्याओं को दूर करने का काम करती है। प्रदेश के बागेश्वरए पिथौरागढ़ए चमोलीए उत्तरकाशीए रुद्रप्रयाग आदि जिलों में किसानों ने जड़ी.बूटियों की खेती करनी शुरू की है। राज्य में सात मूल्यवान एवं दुर्लभ प्रजाति उत्पादन के लिए चिन्हित की गई हैंए जिनमें से मात्र चार कुटकीए कूठए अतीए एवं पीपलि का ही दस वर्ष पूर्व उत्पादन प्रारंभ किया गया था द्य इसमें से कुटकी की पैदावार वर्ष 2015 में 1ए66ए000 थी जो 2016 से 2018 तक 50ए000 पौध प्रतिवर्ष रही और 2019 में मात्र 5000 ही रह गईद्य की संख्या 2015 के डेढ़ लाख की जगह और आतीस की बीस हज़ार की जगह वर्ष 2019 में पाँच हज़ार की निम्न तक संख्या पर पहुँच गयी आयुर्वेदिकऔषधियों और रसोई घरों में इस्तेमाल होने वाली पिपलीकी संख्या 2015 में 72ए560 से शून्य पर पहुँच गयी द्ययहाँ यह बात दीगर है की वर्ष 2010 में कुटकी के पौधों की संख्या 21ए20ए000 थीए वहीं कूठ की 10ए88ए000तथा आतीस की 12ए95ए000 थी द्य वर्ष 2011 में पीपलिके पौधों की संख्या 92ए000 थी द्य बाकी तीन प्रजातियों के उत्पादन का ख़ाता अभी तक राज्य में नहीं खुल सका हैण् प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आयुष को देश और विदेशों में बढ़ाने की पुरजोर वकालत कर रहे हैं और पिछले पाँच सालों में आयुष मंत्रालय का बजट 1ए260 करोड़ से बढ़कर 1ए746 करोड़ सालाना कर दिया गया हैए वहीं आयुर्वेद का उद्गम स्रोतए चरक ऋषि की जन्मस्थलीए वाले उत्तराखंड राज्य में आयुर्वेद की मूलभूत इकाई जड़ीबूटियों का उत्पादन वर्तमान राज्य सरकार की उदासीनता के कारण दुर्दशा का शिकार हो चुका है यह खुलासा आज भूतपूर्व राष्ट्रपति के मानद चिकित्सक रहेए पदम श्री से सम्मानित वैद्य बालेंदु प्रकाश ने रतनपुरा स्थित विशिष्ट आयुर्वेदिक चिकित्सा केंद्र में पत्रकार वार्ता के दौरान कियाण् गढ़वाल की भिलंगना घाटी में गत एक दशक के दौरान 22 पादप प्रजातियां विलुप्त हो गईए 60 प्रजातियों का जीवन.चक्र सिर्फ 3.4 साल का रह गया है । अनुमान है कि कुमाऊं और पिथौरागढ़ की शारदा नदी के किनारे के वनों से कोई 40 प्रजाति के पौधे आगामी पांच सालों में विलुप्त हो जाएंगे। नेपाल की सीमा पर धनगढ़ीए रक्सौलए वीरगंजए हेटोडाए नेपालगंज के महंगे होटलों में लैपटापए फैक्सए मोबाइल से लैस तस्कर सालों इनकी खरीद.बिक्री में जुटे रहते हैं। ये लोग इन जड़ी.बूटियों के विक्रताओं और उनके खरीदारों के संपर्क में रहते हैं। इनकी मांग अमेकिा व यूरोप में काफी हैए लेकिन भारत में इन पर पाबंदी है । भारत के हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों व दवाइयों की विदेशों में जबरदस्त मांग है। अरब के अय्याश शेखों को यौन.शक्ति बढ़ाने वाली दवाओं के नाम पर केवल भारतीय जड़ी.बूटियां ही भाती हैं व इसके लिए वे कुछ भी भुगतान करने को तैयार रहते हैं। नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट और अमेरिका ;एनसीआइद्ध के एक शोध के मुताबिक भारत के पहाड़ों पर मिलने वाली आयुर्वेदिक वनौषधि टेक्सोल में गर्भाशय का कैंसर रोकने की जबरदस्त क्षमता है। इसकी मांग को देखते हुए नेपाल की सीमा से सटे हिमालयी इलाके के तालीस पत्र नामक पेड़ पर जैसे कहर आ गया। यही तालीस पत्र टेक्सोल है और कभी चप्पे.चप्पे पर मिलने वाला यह पौधा अब दुलर्भ हो गया है। डाबर कंपनी और नेपाल देश ने तो बाकायदा इसकी खेती करके उसे अमेरिका व इटली को बेचने के अनुबंध कर रखे हैं। अरुणाचल प्रदेश की दिबांग और लोहित घाटियों में मिशामी टोटा पाया जाता है।डिब्रूगढ़ के बाजार में अचानक इसकी मांग बढ़ी और देखते ही देखते इसकी प्रजाति ही उजाड़ दी गई। स्थानीय लोग इस जड़ी का इस्तेमाल पेट दुखने व बुखार के इलाज के लिए सदियों से करते आ रहे थे। डिब्रूगढ़ में इसके दाम दो हजार रुपये प्रति किलो हुए तो कोलकाता के बिचैलियों ने इसे पांच हजार में खरीदा। वहां से इसे तस्करी के पंख लगे और जापान व स्विट्जरलैंड में इसके जानकारों ने पचास हजार रुपये किलो की दर से भुगतान किया। ठीक यही हाल अगर नाम सुगंधित औषधि का हुआ। इसके तेल की मांग अरब देशो में बहुत है। यहां तक कि सौ ग्राम तेल के एक लाख रुपये तक मिलते हैं। अरब के कामुक शेख इसके लिए बेकरार रहते हैं। इन सभी जड़ी.बूटियों को जंगल से बाहर निकालने व उन्हें भूटान या नेपाल के रास्ते तस्करी करने के काम में यहां के उग्रवादियों का एकछत्र राज्य है।एड्स और कैंसर जैसे खतरनाक रोगों का इलाज खोज रहे विदेशी वैज्ञानिकों की नजर अब भारत के जंगलों में मिलने वाले कोई एक दर्जन पौधों पर है। अमेरिका व यूरोप के कुछ वनस्पति वैज्ञानिक और दवा बनाने वाली कंपनियों के लेाग गत कुछ वर्षो से पर्यटक बनकर भारत आते हैं और स्थानीय लोगों की मदद से जड़ी.बूटियों के पारंपरिक इस्तेमाल की जानकारियां प्राप्त करते हैं। सन 1998 में मध्य प्रदेश के जंगलों में जर्मनी की एक दवा कंपनी के प्रतिनिधियों को उस समय रंगे हाथों पकड़ा गया जब वे स्थानीय आदिवासियों की मदद से कुछ पौधों की पहचान कर रहे थे। राजस्थान के रणथंभौर अभयारण्य इलाके में विदेशी लोगों द्वारा कतिपय पौधों के बारे में जानकारी मांगने की बात राजस्थान विश्वविद्यालय के एक शोध में भी उल्लिखित की गई है। भारतीय किसानों का एक छोटा सा समूह 3 लाख रुपये प्रति एकड़ तक की कमाई कर रहा है। इस आंकड़े की अहमियत तब समझ में आती है जब आप गेहूं या धान की खेती करनेवाले किसानों की कमाई से इसकी तुलना करेंए जो 30ए000 रुपये प्रति एकड़ से भी कम है। इन किसानों की इस शानदार कमाई के पीछे कुछ जड़ी.बूटियां और सुगंधित पौधे हैंए जिनका इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाइयां और पर्सनल केयर प्रॉडक्ट बनाने में होता है। इन आयुर्वेदिक दवाओं और पर्सनल केयर प्रॉडक्ट्स को डाबरए हिमालयाए नैचरल रेमिडीज और पतंजलि जैसी कंपनियां बेचती हैं। इनमें से कई जड़ी.बूटियों के नाम विदेशी हैं। शहरी उपभोक्ताओं के लिए अतीशए कुठए कुटकीए करंजाए कपिकाचु और शंखपुष्पी जैसी औषधियों के नाम की शायद ही कोई अहमियत होए लेकिन इन्होंने कई किसानों की कमाई के जरिए जिंदगी बदल दी है। एक आकलन के मुताबिकए देश में हर्बल प्रॉडक्ट्स का मार्केट करीब 50ए000 करोड़ रुपये का हैए जिसमें सालाना 15 प्रतिशत की दर से ग्रोथ हो रही है। जड़ी.बूटी और सुगंधित पौधों के लिए प्रति एकड़ बुआई का रकबा अभी भी इसके मुकाबले काफी कम है। हालांकि यह सालाना 10 पर्सेंट की दर से बढ़ रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिकए देश में कुल 1ए058ण्1 लाख हेक्टेयर में फसलों की खेती होती है। इनमें सिर्फ 6ण्34 लाख हेक्टेयर में जड़ी.बूटी और सुगंधित पौधे बोए गए हैं। अतीश जड़ी.बूटी को उगानेवाले एक किसान को आसानी से 2ण्5 से 3 लाख रुपये प्रति एकड़ की आमदनी हो जाती है। अतीश का ज्यादातर इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाओं में होता है और इसे उगानेवाले किसान उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के ऊंचाई वाले इलाके में हैं। लैवेंडर की खेती करनेवाले किसानों को आसानी से 1ण्2.1ण्5 लाख रुपये प्रति एकड़ मिल जाते हैं। जम्मू.कश्मीर के डोडा जिले के खेल्लानी गांव में रहनेवाले भारत भूषण ने बताया कि इसी कमाई के चलते उन्होंने मक्के की खेती छोड़कर लैवेंडर की खेती शुरू कर दी। भूषण ने 2 एकड़ से इसकी शुरुआत की थी। उनका कहना है कि नवंबर तक वह और 10 एकड़ में इसकी बुआई करेंगे। उन्होंने बतायाए ष्मैंने पहली बार 2000 में इसकी बुआई की थी। इस पर मिलने वाला रिटर्न मक्के पर मिलने वाले रिटर्न से चार गुना है।












