उत्तराखंड में जैविक खेती के क्षेत्र में किसान नरेंद्र मेहरा
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत में जैविक खेती में जैविक उत्पादकों के लिए अपार संभावनाएं हैं. आईएमएआरसी समूह की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के जैविक खाद्य बाजार में पर्याप्त वृद्धि देखी गई है, जो 2022 में 1,278 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है. इसके और बढ़ने और 2028 तक 4,602 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की संभावना है, जो 2023 से 2028 तक 23.8% की सीएजीआर प्रदर्शित करेगा. आईएफओएएम ऑर्गेनिक्स की एक अन्य रिपोर्ट की मानें तो पता चलता है कि भारत समर्पित भूमि क्षेत्र में महत्वपूर्ण वृद्धि का अनुभव करने के लिए 2020 में शीर्ष तीन देशों में से एक था. कुमाऊं अंचल के प्रवेश द्वार हल्द्वानी शहर से सटा हुआ गौलापार क्षेत्र खेती, बागवानी और पशुपालन की दृष्टि से बहुत समृद्ध माना जाता है। प्रशासनिक इकाई की दृष्टि से गौलापार क्षेत्र नैनीताल जनपद स्थित गौलापार क्षेत्र हल्द्वानी विकासखण्ड/तहसील के अन्र्तगत आता है। काठगोदाम-हल्द्धानी शहर के किनारे बहने वाली गौला नदी के पार बसे होने के वजह से ही इस क्षेत्र का नाम गौलापार पड़ा। इसके उत्तर में भीमताल व ओखलकांडा विकास खण्ड की सीमाएं लगी हुई हैं जबकि दक्षिण में ऊधमसिंह नगर व पूर्व में चम्पावत जनपद की सीमा तथा पश्चिम में गौला नदी इसे काठगोदाम-हल्द्वानी महानगर व उससे संलग्न उपनगरीय संरचनाएं इस क्षेत्र को पृथक करती है। शिवालिक पहाड़ी के पाद प्रदेश में बसा गौलापार साल, खैर, शीशम, सागौन, हल्दू के मिश्रित वन प्रान्त से घिरा हुआ है और जिसका विस्तार तकरीबन 15 किमी. चैड़ी व 22 किमी.लम्बी पट्टी में दिखायी देता है। गौलापार का क्षेत्र समुद्र सतह से औसतन 425 मी. से लेकर 500 मी. की ऊंचाई के मध्य अवस्थित है। मुख्य विषय पर आने से पूर्व गौलापार के भौगोलिक परिवेश पर भी बात करना प्रासंगिक होगा।गौलापार मूलतः भाबर प्रदेश का एक उप क्षेत्र है। वस्तुतः भाबर प्रदेश का निर्माण पर्वतीय क्षेत्र की नदियों द्वारा लाये गये निक्षेपण पदार्थों यथा- मिट्टी, बालू, कंकड़, पत्थर, बोल्डर आदि से हुआ है। ंभू-आकृति विज्ञानियों के अनुसार विभिन्न काल खण्डों में जब हिमालयी पर्वत श्रंृखंला निर्माण की प्रकिया गतिमान थी तब शिवालिक की तलहटी में स्थित भाबर पट्टी का स्वरुप वर्तमान जैसा नहीं था तब यह एक ऊबड़-खाबड़ व खड्ड प्रदेश के रुप में था। कालान्तर में इस खड्ड को लघु हिमालय व शिवालिक की नदियों ने अपने साथ बहाकर लाये सिल्ट पदार्थों से भरकर एक जलोढ़ मैदान के रुप में परिवर्तित कर दिया। दरअसल पहाड़ी नदियांे के मैदानी भाग में प्रवेश करने पर उनकी प्रवाह और वहन क्षमता में कमी आने से पहाड़ से बहकर आये कंकड पत्थर आगे बढ़ने मे असमर्थ रहे और दीर्घ समय तक यहीं जमा होते रहे। पहाड़ की तलहटी में स्थित इस तरह के भौगोलिक संरचना वाले प्रदेश को भू-विज्ञानियों द्वारा ’भाबर’ नाम दिया गया। वर्तमान में नैनीताल जनपद के भाबर प्रदेश में गौलापार क्षेत्र सहित हल्द्वानी महानगर, हल्दूचैड़, लालकंुआ, देवलचैड़, लामाचैड़, व कालाढंूगी परिक्षेत्र के अनेक स्थान-गांव बसे हुए हैं। यथार्थ में देखा जाय तो भाबर प्रदेश की संरचना में मौरनौला की पहाड़ी से उद्गमित होने वाली गौला व उसकी सहायक नदियों तथा कैलास, नंधौर, बेहगुल व भाखड़ा जैसी नदियों के साथ ही तमाम अन्य छोटी-बड़ी बरसाती नदियों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। भाबर प्रदेश की मुख्य विशेषता यह है कि यहां भूमिगत जल बहुत गहराई में मिलता है क्यांेकि पहाड़ से आने वाली नदियों का जल यहां पहुंचने के बाद शनैः-शनैः भूमिगत हो जाता है जो आगे तराई प्रदेश में प्रकट होकर पुनः दिखाई देने लगता है।मुख्य संदर्भ में जाने से पूर्व थोड़ा बहुत गौलापार भाबर की कृषि अर्थव्यवस्था पर भी संक्षेप में प्रकाश डालना प्रासंगिक होगा। स्थानीय पर्वतीय लोगों द्वारा जब भाबर प्रदेश को खेती और बसासत के लायक बना लिया तो आम बोलचाल में वे इस क्षेत्र को ’माल’ अथवा ’म्वाव’ के नाम से भी पुकारते थे। वस्तुतः ’माल’ शब्द यहां स्थानीय स्तर पर उपलब्ध होने वाले प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों ,समृद्ध खेती और दूध-घी की इफरात का पर्याय रहा होगा। वहीं ’म्वाव’ का आशय मुख द्वार/प्रवेश द्वार अथवा आंगन से लगाया जा सकता है भौगोलिक बनावट की दृष्टि से देखा जाय तो गौलापार सहित अन्य भावर प्रदेश की स्थिति पर्वतीय प्रदेश के लिए आंगन अथवा प्रवेशद्वार की तरह ही है। भाबर से सटे हुए पहाड़ के बहुत से काश्तकार लोग जाड़ों में घाम तापने के लिए अपने मवेशियों के साथ माल भाबर की तरफ चले आते थे। उस दौर में पहाड़ से आये लोग यहां छानियांे (झोपड़ी) में रहते हुए छुटपुट तौर पशुपालन व खेती का काम किया करते थे। मार्च के बाद जब गरमी शुरु हो जाती थी तो ये लोग पुनः पहाड़ लौट आते थे। अस्थायी प्रवसन का यह दौर आज से छःह-सात दशक पूर्व तक देखने को मिलता था परन्तु बाद में काश्तकार लोगों द्वारा यहीं पर स्थायी घर बना लिए जाने तथा आवागमन, संचार व अन्यान्य साधनों की सुविधा हो जाने के कारण यह परम्परा अब लगभग समाप्त सी हो गयी है।जल संरक्षण की महत्ता को देखते हुए नरेन्द्र सिंह मेहरा ने प्रर्दशन के तौर पर हौज व टैंक का निर्माण भी किया है। यही नहीं जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए वर्मी कम्पोस्ट और बे-मौसमी सब्जियों के उत्पादन के लिए पाॅली हाउसों का निर्माण भी किया है। उन्नत नस्ल की गाय भैंसों द्वारा वे कई सालों से निरन्तर दुग्ध उत्पादन भी कर रहे हैं। स्थानीय क्षेत्र में की जाने वाली बागवानी यथा आम, केला, लीची, पपीता और अमरुद के व्यावसायिक उत्पादन व उनके विपणन की दिशा में भी वे सक्रियता से काम कर रहे हैं। किसान को उनकी मेहनत और उपज का पर्याप्त मूल्य मिल सके इसके लिए भी मेहरा निरन्तर सक्रिय हैं किसान हितों के लिए वे समय-समय पर सरकार और किसान संगठनों के साथ ही तमाम गोष्ठियों व सेमिनारों में अपनी बात रखते रहे हैं।गौलापार भाबर का यह प्रगतिशील किसान समय-समय पर स्थानीय पर्यावरण, खेती-किसानी व पशुपालन से जुड़े तमाम सामयिक व महत्वपूर्ण मुद्दों पर गोष्ठी, सेमिनार, परिचर्चा और वार्ताओं के माध्यम से भी सक्रिय रहता है। दूरदर्शन, टी.वी. चैनलों, रेडियो, अखबार व पत्रिकाओं के जरिये उनके विचार किसान भाईयों के बीच पहुंचते रहते हैं।ब्रिटिश काल के दौरान भाबर के खेतों की सिंचाई के लिए काठगोदाम में गौला नदी में बन्ध बनाकर दो-तीन नहरें भी निकाली गयीं थीं। इसमें से एक नहर गौलापार के लिए भी बनायी गयी थी। यह नहर खेती के लिए वरदान तो साबित हुईं ही साथ में सिंचाई की सुविधा हो जाने से धीरे-धीरे यहां की पारम्परिक खेती के तौर तरीकों में भी बदलाव आने लगा। इसी दौर में यहां के निवासियों को थोड़ा बहुत स्कूल, अस्पताल और कच्ची सड़क जैसी सुविधाएं भी मिलने लगीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात गौलापार की खेती-किसानी निरन्तर रुप से समृद्धता की ओर कदम बढ़ाने लगी। पंचवर्षीय योजनाओं के क्रियान्वयन होने से देश के किसानों के साथ ही गौलापार भाबर के किसानों में भी जागरुकता का प्रसार होने लगा। फलस्वरुप यहां के काश्तकार खेती में उन्नत बीज, रासायनिक खाद व कीट नाशकों के प्रयोग करने, जुताई के लिए टैªक्टर का उपयोग करने तथा उन्नत नस्ल की गाय, भैंसों से दुग्ध उत्पादन करने की ओर उन्मुख होने लगे। आधुनिक कृषि प्रणाली के उपयोग की वजह से यहां की कृषि अर्थ व्यवस्था को मजबूत आधार मिलने लगा। काश्तकार लोगों की इसी अथक परिश्रम की बदौलत गौलापार क्षेत्र की खेती-किसानी को आज सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।इसी गौलापार क्षेत्र में कंुवरपुर के समीप 153 परिवारों का एक गांव है देवला मल्ला। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक इस गांव की कुल जनसंख्या 804 है। जिसमें 54.22 प्रतिशत हिस्सेदारी पुरुषों की है जबकि शेष 45.78 प्रतिशत हिस्सेदारी महिलाओं की है। हांलाकि हमेशा से इस गांव की पहचान यहां पैदा होने वाली मुख्य फसलों धान, गेहूं, चना, मक्का, सोयाबीन के अलावा प्याज, टमाटर, मटर व लहुसन जैसी नकदी सब्जियों के साथ ही आम, लीची व आंवला की पैदावार तथा प्रचुर दुग्ध उत्पादन के तौर पर रही है परन्तु इधर कुछ सालों से यहां के एक प्रगतिशील किसान योद्धा नरेन्द्र सिंह मेहरा के नाम से भी इस गांव की नई पहचान बन रही है।देवला मल्ला के इस किसान ने बगैर किसी बड़ी सरकारी योजना से मिले सहयोग के स्वंय की खोज,मेहनत, जुनून, और लगन की बदौलत उन्नत व जैविक खेती-किसानी के कई नये आयाम स्थापित करने में सफलता पायी है। वर्तमान में स्थानीय किसानांे से लेकर प्रदेश और बाहरी प्रदेशों के सैकड़ों किसान नरेन्द्र सिंह मेहरा की नई-नई खोजों व खेती में कारगर तमाम उन्नत तकनीकों से प्रत्यक्ष लाभ उठा रहे हैं। ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की दिशा में उनके यह कार्य तमाम किसान भाईयों के लिए नजीर बनते जा रहे हैं।खेती-किसानी के सन्दर्भ में नरेन्द्र सिंह मेहरा द्वारा किये गये कामों की चर्चा से पहले उनके व्यक्तित्व की जानकारी भी जान लेते हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय के नैनीताल परिसर से वर्ष 1983 में भूगोल विषय से परास्नातक की परीक्षा पास कर चुकने के बाद नरेन्द्र सिंह मेहरा ने इसी विश्वविद्यालय पर्यटन विषय में डिप्लोमा भी लिया है। पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरी पाने के लिए दौड़-धूप भी की। दिल्ली स्थित एक संस्था को कुछ समय के लिए अपनी सेवाएं भी दीं लेकिन स्वाभिमानी प्रकृति व हरफन मौला अन्दाज के चलते यह नौकरी उन्हें रास नहीं आयी। दिल्ली की भागम-भाग जिन्दगी और नौकरी के बंधन के सापेक्ष उन्हें पुश्तैनी किसानी का कार्य कहीं अधिक श्रेयकर व सम्मानजनक लगने लगा सो वापिस गौलापार लौट आये और सामान्य तरीके से घरवालों के साथ में खेती में हाथ बंटाने लगे। खेती-किसानी के जरिये अपनी परिवार की जीविका चलाने के साथ ही वे अन्य किसानों की बेहतरी के लिए भी कुछ करने की जुगत में जुटने लगे। खेती-किसानी से हरदम सीखने की ललक उन्हें तरह-तरह के प्रयोगों की ओर प्रेरित करती रही। हर नयी फसल में उपज की मात्रा, रोगप्रतिरोधक क्षमता, गुणवत्ता व उसमें आयी लागत से प्राप्त आंकलन और प्रत्यक्ष अनुभव को वे लोगों के सामनेे रखने का प्रयास करते रहे। उन्नत खेती के टिकाऊ तौर-तरीकों को खुद अपनाकर अन्य किसानों को प्रोत्साहित करना उनकी खासियत रही है। कृषि विज्ञान की डिग्री के बगैर भी अपने व्यावहारिक व शोधपरक प्रयोगों चलते उनकी छवि कुछ ही समय में एक प्रगतिशील किसान व कृषि विज्ञानी के तौर पर प्रतिष्ठित होने लगी। खेती में सफल प्रयोग करने तथा टिकाऊ व जैविक खेती को बढ़ावा देने जैसे कामों को देखते हुए देश-प्रदेश की कई संस्थाओं ने उनके काम को महत्व भी दिया है।गेहंू की फसल से जु्ड़े अपने व्यावहारिक प्रयोग के संदर्भ में उन्होंने बताया कि साल 2009 में उन्होंने स्वंय के खेत में गेहूं की फसल बोयी थी, फसल तैयार होने के समय जब एक दिन वे गेहूं की फसल का अवलोकन कर रहे थे तो सहसा उनकी नजर एक अलग तरह की बाली पर गयी जो अन्य बालियों से अलग थी जिसे बीज के तौर पर संभालने के बाद उसे अगली फसल में बो दिया। हैरान करने वाली बात यह रही कि उस बीज की पैदावार सामान्य प्रजातियों की तुलना में बहुत अधिक थी। मेहरा आगे बताते हैं कि अपने नाम पर उन्होंने इसे नरेंद्र 09 नाम से प्रचलित कर दिया। इस प्रजाति को सैकड़ों किसान आजमा भी चुके हैं और उसकी उपज से लाभ भी कमा चुके हैं। नरेंद्र 09 प्रजाति के गेंहू के पेटेन्ट कराने की प्रक्रिया और उसके अनन्तिम वैज्ञानिक परीक्षण हेतु पंतनगर स्थित गोविंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय ,कृषि विज्ञान केंद्र ग्वालदम तथा मझेड़ा, नैलीताल के कृषि अनुसंधान केंद्र में कार्य भी चल रहा है। परीक्षण के प्रारम्भ में यह बात भी सामने आयी है कि इस प्रजाति के गेहंू को पहाड़ व मैदान दोनों इलाकों में समान रुप से बोया जा सकता है। दो-एक वर्ष पूर्व नरेन्द्र मेहरा ने बिना पानी की सिंचाई से पैदा होने वाले धान की खेती का भी प्रयोग किया जिसमें उन्हें काफी हद तक सफलता मिली। धान की खेती में अत्यधिक पानी की जरुरत पड़ने की समस्या देखते हुए नरेंद्र मेहरा ने जो पद्धति विकसित की वह गोंद कतीरा पद्धति है। इसके तहत धान की सीधी बुआई की जाती है, इसके लिए सिर्फ बारिस के पानी की आवश्यकता होती है और लागत भी कम आती है। नरेंद्र के अनुसार इस पद्वति से की जाने वाली धान की खेती में बहुत ज्यादा जुताई, सिचाईं, मिट्टी पलटनेे हेतु ट्रैक्टर और रोपाई में कामगारों की आवश्यकता नहीं होती है। उनके व्यक्तिगत आंकलन के अनुसार यदि 15 बीघा खेती में यदि पानी वाली पद्धति से धान की खेती की जाती तो अनुमानित 32 लाख रुपए की लागत आती, जबकि गोंद कतीरा पद्धति से उन्हांेने केवल 6-7 हजार रुपए की लागत में ही धान की फसल पैदा कर ली। कृषि विज्ञानी डॉ. वीरेंद्र सिंह लाठर के मार्गदर्शन में पानी के बगैर न्यून लागत पर धान पैदा कर मेहरा ने यहां के किसानों के लिए एक माॅडल प्रस्तुत किया है। यह पद्धति पहाड़ के किसानों के लिए बेहतरीन साबित हो रही है। इस नई पद्धति से धान की उपज लेने वाले वे नरेन्द्र मेहरा उत्तराखंड पहले किसान बन गये हैं।धान की खेती से जुड़ी नरेंद्र मेहरा की एक और उल्लेखनीय उपलब्धि सफलतापूर्वक काला धान यानि ब्लैक राइस कोउगाने को लेकर है। जिसे उत्तराखण्ड की कृषि में एक नया अध्याय माना जा सकता है।मुख्यतः यह काला धान उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर और असम में उगाया जाता है जिसे वहां ‘चाको हाओ’ के नाम से जाना जाता है। भाबर के इस प्रगतिशील किसान ने स्व-प्रयासों से सुदूर छत्तीसगढ़ से 1500 रुपये प्रति किलो की दर से ब्लैक राइस का बीज मंगाकर इसे उगाने में कामयाबी हासिल की है। नरेंद्र मेहरा कहते हैं कि एक एकड़ में 18 से 20 क्विंटल तक इसकी पैदावार आसानी से की जा सकती है साथ ही इसके लिए अधिक पानी की जरूरत भी नहीं होती और फसल भी मात्र साढ़े चार माह में तैयार हो जाती है। मेहरा का मानना है कि काले धान की पैदावार से किसानों की आमदनी में इजाफा होने की उम्मीद जग रही है क्योंकि औषधीय गुणों से भरपूर इस चावल की देश-विदेश में बहुत अधिक मांग रहती है। केवल भारत में ही इसका बाजार भाव 250 से 500 रुपए प्रति किलो तक जाता है। उल्लेखनीय है कि काले धान में कार्बोहाईड्रेट की मात्रा न्यून होने से जहां यह मधुमेह रोग में उपयोगी माना जाता है वहीं हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, आर्थराइटिस, कोलेस्ट्रॉल और एलर्जी में भी ब्लैक राइस का सेवन लाभदायक माना जाता है।आज के दौर में फसलों को उगाने और कीटों से उन्हें सुरक्षित रखने में जिस कदर रासायनिक खादों और तरह-तरह के पेस्टीसाइडोें का उपयोग किया जा रहा है वह मानव के स्वास्थ्य के लिए चिन्ता का सबब बनते जा रहा है क्योंकि आज हर आदमी के भोजन की थाली रसायनों व पेस्टीसाइडोें के अत्यधिक प्रयोग से विषाक्त बनती जा रही है और लोग तमाम किस्म की बीमारियों से ग्रसित हो रहे हंै। इसी बात को ध्यान रखकर नरेंद्र सिंह मेहरा हाल के कुछ सालों से जैविक व मिश्रित खेती को भी बढ़ावा देने के लिए किसानों को लगातार जागरुक करने का कार्य कर रहे हैं। जैविक खेती के बारे में उनका साफ मानना है कि आने वाले समय में यह एक बड़ी आवश्यकता होगी। लोगों को शुद्ध प्राकृतिक अनाज आसानी से मुहैया हो सके इसकेे लिए वे जैविक खेती की दिशा में क्रांतिकारी कदम बढ़ाने की जरुरत बताते हैं।जल संरक्षण की महत्ता को देखते हुए नरेन्द्र सिंह मेहरा ने प्रर्दशन के तौर पर हौज व टैंक का निर्माण भी किया है। यही नहीं जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए वर्मी कम्पोस्ट और बे-मौसमी सब्जियों के उत्पादन के लिए पाॅली हाउसों का निर्माण भी किया है। उन्नत नस्ल की गाय भैंसों द्वारा वे कई सालों से निरन्तर दुग्ध उत्पादन भी कर रहे हैं। स्थानीय क्षेत्र में की जाने वाली बागवानी यथा आम, केला, लीची, पपीता और अमरुद के व्यावसायिक उत्पादन व उनके विपणन की दिशा में भी वे सक्रियता से काम कर रहे हैं। अरबी का पेड़ लगाया है. जो लोगों में कौतूहल का विषय बन गया है. यह पौधा सिर्फ अपनी ऊंचाई के कारण ही नहीं बल्कि स्वादिष्ट अरबी के लिए भी चर्चा में है. किसान नरेंद्र मेहरा ने बताया कि उन्होंने जैविक खाद देकर पौधों की ऊंचाई को इतना बढ़ाया है. लंबे समय से जैविक खेती के लिए मशहूर किसान नरेंद्र मेहरा तकनीक के प्रयोग के साथ ही हल्दी, ऑर्गेनिक आलू और अदरक की भी खेती कर चुके हैं.किसान को उनकी मेहनत और उपज का पर्याप्त मूल्य मिल सके इसके लिए भी मेहरा निरन्तर सक्रिय हैं किसान हितों के लिए वे समय-समय पर सरकार और किसान संगठनों के साथ ही तमाम गोष्ठियों व सेमिनारों में अपनी बात रखते रहे हैं।गौलापार भाबर का यह प्रगतिशील किसान समय-समय पर स्थानीय पर्यावरण, खेती-किसानी व पशुपालन से जुड़े तमाम सामयिक व महत्वपूर्ण मुद्दों पर गोष्ठी, सेमिनार, परिचर्चा और वार्ताओं के माध्यम से भी सक्रिय रहता है। दूरदर्शन, टी.वी. चैनलों, रेडियो, अखबार व पत्रिकाओं के जरिये उनके विचार किसान भाईयों के बीच पहुंचते रहते हैं।प्रगतिशील किसान नरेंद्र मेहरा कृषि के क्षेत्र में कई मुकाम हासिल कर चुके हैं. जैविक खेती के लिए पूरे उत्तराखंड में अपनी पहचान रखते हैं. इसी के तहत किसान नरेंद्र मेहरा जैविक खेती में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. जहां आमतौर पर फसल काटने के बाद खेतों में फसल अवशेष रह जाती हैं, उन्हें कई किसान आग के हवाले कर देते हैं. जिससे खेतों के सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं और पर्यावरण भी प्रदूषित होता है. लोगों को भी खेतों के खरपतवार से जैविक खाद्य तैयार करने के सलाह दे रहे हैं.किसान नरेंद्र सिंह मेहरा द्वारा इसमें बारीकी से प्रयोग किया तो उन्होंने पाया कि पूसा डीकंपोजर खेती के लिए एक वरदान है. यदि फसल कटाई के बाद जो अवशेष खेतों में बच जाते हैं 200 लीटर पूसा डीकंपोजर से खेत की सिंचाई करने के बाद खरपतवारों में नियंत्रण देखा गया. इसको बनाने के लिए दो सौ लीटर पानी में दो किलो गुड़ मिलाकर तैयार किया जाता है. जिससे यह अपशिष्ट मात्र 55 से 60 दिनों में पूर्ण रूप से डीकंपोज होकर बायो मैन्योर में बदल जाता है. जो खेतों में कार्बन की मात्रा बढ़ाने के साथ ही सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि करता है, इससे किसान की इनपुट लागत घटने के साथ ही मृदा स्वस्थ्य बनी रहती है. उनके इस कार्य में आईसीएआर भी मदद करता है. उन्होंने बताया कि अपने खेतों के अपशिष्ट पदार्थ को इधर-उधर फेंकने और आग लगाने से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है. उन्होंने आगे कहा कि अपशिष्ट पदार्थ को खेत में ही डीकंपोज किया जाए तो किसान जैविक खाद के माध्यम से अपने खेतों में उन्नत फसल तैयार कर सकते हैं. इससे पर्यावरण को किसी तरह का कोई नुकसान भी नहीं होगा. नरेंद्र मेहरा की यह पहल न केवल जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है, बल्कि किसानों को सशक्त बनाकर उन्हें पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक भी कर रही है। उनका यह प्रयास अन्य किसानों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया है। जैविक उत्पादों की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन, ग्रामीण आंचलों में किसान जैविक खेती कैसे करें, इसके लिए किसानों तक जरूरी जानकारियों नहीं पहुंच पा रही है। इको फ्रेंडली होने के साथ-साथ जैविक खेती से तैयार फसलें, फल व सब्जियों की मांग देश-विदेश में साल दर साल बढ़ रही है. इको फ्रेंडली कृषि उत्पादों के लिए किसानों को बेहतर मुनाफा भी मिल रहा है. इस कारण बड़ी संख्या में किसान जैविक खेती को अपना रहे हैं. एक तरह से कहें तो जैविक खेती के क्षेत्र में क्रांति हो रही है. भारतीय उपभोक्ताओं के स्वस्थ जीवनशैली विकल्पों के प्रति जागरूक होने के साथ, खाद्य पदार्थों का पोषक मूल्य उनकी प्राथमिक चिंता के रूप में उभर रहा है. नतीजतन, कीटनाशकों, कृत्रिम विकास हार्मोन और अन्य हानिकारक रसायनों का उपयोग करके पारंपरिक रूप से उगाए गए भोजन के एक व्यवहार्य विकल्प के रूप में जैविक खेती देश भर में लोकप्रियता हासिल कर रही है।कृषि क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्यों को देखते हुए नरेन्द्र सिंह मेहरा को समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं से सम्मान भी दिया जा चुका है। विकासखंड स्तर पर ’किसान श्री सम्मान’ जी.बी.पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर द्वारा ’प्रगतिशील कृषक सम्मान’, भारतीय कृषि खाद्य परिषद द्वारा ’फाॅर्मरर्स लीडरशिप अवार्ड’ तथा रे फाउंडेशन मलेशिया की ओर से ’उत्तराखंड प्राइड अवार्ड’ जैसे कई सम्मानों से वे नवाजे जा चुके हंै। मेहरा को राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का ’इनोवेटिव फार्मर्स अवार्ड’ मिला है। अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं तथा विभिन्न मंचों से भी उन्हें सम्मानित किया गया है। लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।