• About Us
  • Privacy Policy
  • Cookie Policy
  • Terms & Conditions
  • Refund Policy
  • Disclaimer
  • DMCA
  • Contact
Uttarakhand Samachar
  • Home
  • संपादकीय
  • उत्तराखंड
    • अल्मोड़ा
    • उत्तरकाशी
    • उधमसिंह नगर
    • देहरादून
    • चमोली
    • चम्पावत
    • टिहरी
    • नैनीताल
    • पिथौरागढ़
    • पौड़ी गढ़वाल
    • बागेश्वर
    • रुद्रप्रयाग
    • हरिद्वार
  • संस्कृति
  • पर्यटन
    • यात्रा
  • दुनिया
  • वीडियो
    • मनोरंजन
  • साक्षात्कार
  • साहित्य
  • हेल्थ
  • क्राइम
  • जॉब
  • खेल
No Result
View All Result
  • Home
  • संपादकीय
  • उत्तराखंड
    • अल्मोड़ा
    • उत्तरकाशी
    • उधमसिंह नगर
    • देहरादून
    • चमोली
    • चम्पावत
    • टिहरी
    • नैनीताल
    • पिथौरागढ़
    • पौड़ी गढ़वाल
    • बागेश्वर
    • रुद्रप्रयाग
    • हरिद्वार
  • संस्कृति
  • पर्यटन
    • यात्रा
  • दुनिया
  • वीडियो
    • मनोरंजन
  • साक्षात्कार
  • साहित्य
  • हेल्थ
  • क्राइम
  • जॉब
  • खेल
No Result
View All Result
Uttarakhand Samachar
No Result
View All Result

सेहत के लिए वरदान से कम नहीं हैं जौ के उत्पाद

03/01/20
in उत्तराखंड, हेल्थ
Reading Time: 1min read
264
SHARES
330
VIEWS
Share on FacebookShare on WhatsAppShare on Twitter
https://uttarakhandsamachar.com/wp-content/uploads/2025/11/Video-60-sec-UKRajat-jayanti.mp4

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड की संस्कृति एवं परंपराओं ही नहीं, यहां के खान.पान में भी विविधता का समावेश है। पौष्टिक तत्वों से जौ पृथ्वी पर सबसे प्राचीनकाल से कृषि किये जाने वाले अनाजों में से एक है। इसका उपयोग प्राचीन काल से धार्मिक संस्कारों में होता रहा है। संस्कृत में इसे यव कहते हैं। रूस, यूक्रेन, अमरीका, जर्मनी, कनाडा और भारत में यह मुख्यतः पैदा होता है। जौ होरडियम डिस्टिन जिसकी उत्पत्ति मध्य अफ्रीका और होरडियम वलगेयर जो यूरोप में पैदा हुआ, इसकी दो मुख्य जातियाँ हैं। इनमें द्वितीय अधिक प्रचलित है। इसे समशीतोष्ण जलवायु चाहिए। यह समुद्रतल से 14,000 फुट की ऊँचाई तक पैदा होता है। यह गेहूँ के मुकाबले अधिक सहनशील पौधा है। इसे विभिन्न प्रकार की भूमियों में बोया जा सकता है, पर मध्यम, दोमट भूमि अधिक उपयुक्त है। खेत समतल और जलनिकास योग्य होना चाहिए। प्रति एकड़ इसे 40 पाउंड नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, जो हरी खाद देने से पूर्ण हो जाती है। अन्यथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा कार्बनिक खाद, गोवर की खाद, कंपोस्ट तथा खली और आधी अकार्बनिक खाद ऐमोनियम सल्फेट और सोडियम नाइट्रेट के रूप में क्रमशः बोने के एक मास पूर्व और प्रथम सिंचाई पर देनी चाहिए। असिंचित भूमि में खाद की मात्रा कम दी जाती है।
आवश्यकतानुसार फॉस्फोरस भी दिया जा सकता है। एक एकड़ बोने के लिये 30-40 सेर बीज की आवश्यकता होता है। बीज बीजवपित्र से या हल के पीछे कूड़ में नौ नौ इंच की समान दूरी की पंक्तियों में अक्टूबर नवंबर में बोया जाता है। पहली सिंचाई तीन चार सप्ताह बाद और दूसरी जब फसल दूधिया अवस्था में हो तब की जाती है। पहली सिंचाई के बाद निराई गुड़ाई करनी चाहिए। जब पौधों का डंठल बिलकुल सूख जाए और झुकाने पर आसानी से टूट जाए, जो मार्च अप्रैल में पकी हुई फसल को काटना चाहिए। फिर गट्ठरों में बाँधकर शीघ्र मड़ाई कर लेनी चाहिए, क्योंकि इन दिनों तूफान एवं वर्षा का अधिक डर रहता है। जौ, जई एवं उनसे बने कुछ उत्पाद बीज का संचय बड़ी बड़ी बालियाँ छाँटकर करना चाहिए तथा बीज को खूब सुखाकर घड़ोँ में बंद करके भूसे में रख दें। एक एकड़ में ८-१० क्विंटल उपज होती है। भारत की साधारण उपज 705 पाउंड और इंग्लैंड की 1990 पाउंड है। शस्यचक्र की फसलें मुख्यतः चरी, मक्का, कपास एवं बाजरा हैं। उन्नतिशील जातियाँ, सी एन 294 हैं। सन २००७ में विश्व भर में लगभग १०० देशों में जौ की खेती हुई। १९७४ में पूरे विश्व में जौ का उत्पादन लगभग 148,818,870 टन था, उसके बाद उत्पादन में कुछ कमी आयी है। 2011 के आंकडों के अनुसार यूक्रेन विश्व में सर्वाधिक जौ निर्यातक देश था, भारतीय संस्कृति में त्यौहारों और शादी-ब्याह में अनाज के साथ पूजन की पौराणिक परंपरा है। हिंदू धर्म में जौ का बड़ा महत्व है।
धार्मिक अनुष्ठानों, शादी-ब्याह होली में लगने वाले नव भारतीय संवत् में नवा अन्न खाने की परंपरा बिना जौ के पूरी नहीं की जा सकती। इसी के चलते लोग होलिका की आग से निकलने वाली हल्की लपटों में जौ की हरी कच्ची बाली को आंच दिखाकर रंग खेलने के बाद भोजन करने से पहले दही के साथ जौ को खाकर नवा नए अन्न की शुरुआत होने की परंपरा का निर्वहन करते हैं। जौ का उपयोग बेटियाें के विवाह के समय होने वाले द्वाराचार में भी होता है। घर की महिलाएं वर पक्ष के लोगों पर अपनी चौखट पर मंगल गीत गाते हुए दूल्हे सहित अन्य लोगा पर इसकी बौछार करना शुभ मानती हैं। मृत्यु के बाद होने वाले कर्मकांड तो बिना जौ के पूरे नहीं हो सकते। ऐसा शास्त्रों में भी लिखा है।
जौ का दाना लावा, सत्तू, आटा, माल्ट और शराब बनाने के काम में आता है। भूसा जानवरों को खिलाया जाता है।जौ के पौधों में कंड्डी आवृत कालिका का प्रकोप अधिक होता है, इसलिये ग्रसित पौधों को खेत से निकाल देना चाहिए। किंतु बोने के पूर्व यदि बीजों का उपचार ऐग्रोसन जी एन द्वारा कर लिया जाय तो अधिक अच्छा होगा। गिरवी की बीमारी की रोक थाम तथा उपचार अगैती बोवाई से हो सकता है। भारत में जौ की खेती का इतिहास बहुत पुराना है वैदिक लोगो के लिए जौ की खेती ही मुख्य थी।
हाल ही में वैज्ञानिकों ने 6000 वर्ष पुराने जौ के दानों के जीन्स का अनुक्रमण करने में सफलता प्राप्त की, इसका अर्थ यह है की जौ की खेती का इतिहास 6000 से 7000 साल पुराना है जो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चूका है। जौ एक ऐसा अनाज है, जो एक साथ स्वास्थ्य से जुड़े कई फायदे पहुंचाता है और सेहत की समस्याओं में बचाए रखता है यह कई बिमारियों से छुटकारा दिला सकता है या उस बीमारी की समस्याओ को कम कर सकता है जैसे मधुमेह, शरीर में सूजन, कब्ज की दिक्कत, गठिया आदि यह एक स्वादिष्ट और सेहतमंद अनाज है इसमें कई पोषक तत्व जैसे विटामिन बी.कॉम्प्लेक्स, आयरन, कैल्शियम, मैग्नीशियम, बीटा और ग्लूकेन, मैगनीज, प्रोटीन, अमीनो एसिड, डायट्री फाइबर्स और कई तरह के एंटी.ऑक्सीडेंट और लेक्टिक एसिड पाए जाते हैं। यह पेट के लिए काफी लाभदायक है और पाचन में बेहद सहायक। जौ को भाप द्वारा पकाकर खाने से ज्यादा फायदेमंद माना जाता है और जौ का पानी स्वास्थ्य के लिए सबसे अधिक फायदेमंद होता है। जौ की तासीर सम होती है ना गर्म ना ठंडी। जौ उपयोग कई तरह की दवाओं और बीयर बनाने में भी किया जाता है। यह फाइबर प्राप्त करने का कुदरती बेहतरीन खजाना है। इसके गुण और प्रकृति इसबगोल से मिलती जुलती है जौ और आटे से बने फेसपैक में भी किया जाता है।
टिहरी में बीज बचाओ आंदोलन के लिए पहचाने जाने वाले किसान विजय जड़धारी ने यह सफल प्रयोग किया है। उन्होंने अपने खेतों में खर.पतवार और पराल का इस्तेमाल कर गेहूं और जौ की अच्छी फ़सल तैयार की है। ख़ास बात यह भी है कि यह फ़सल समय से पहले तैयार हो गई है और इसमें न बहुत ज़्यादा श्रम लगा है, न ही पैसा। पहाड़ों में संसाधनों के अभाव में खेती छोड़ रहे किसानों के लिए यह एक शानदार उदाहरण है। जड़धारी कहते हैं कि पहले लोग उन्हें पागल समझ रहे थे लेकिन उन्हें विश्वास था और उनका मानना है प्रकृति में सभी चीजें विद्यमान है, ज़रूरत है तो उसे समझने की और सही उपयोग में लाने की। वह पूछते हैं कि जंगलों में कौन हल लगा रहा है, कौन खाद डाल रहा है। जंगल खुद ही अपना पोषण करते हैं। आदमी ने चीज़ें मुश्किल बना दी हैं। प्रकृति को समझ कर काम आसान हो सकते हैं। इस प्रयोग से जहां एक तरफ फसल अन्य लोगों की फसल से पहले तैयार हो गई वहीं खेत और हल लगाने के बाद होने वाली फसल से डेढ़ गुना अधिक इस बार उत्पादन हुआ। पांच छोटे खेतों में जड़धारी करीब डेढ़ कुंतल गेहूं और करीब 25 किलो जौ की फसल का उत्पादन करने में सफल रहे। उनकी इस पहल से जहां एक तरफ लागत ज़ीरो हो गई वहीं फसल भी अधिक पैदा हुई है।
कुमाऊं के पर्वतीय इलाकों में माघ पंचमी अर्थात वसंत पंचमी को रक्षाबंधन व हरेला पर्व की तरह मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस दिन हर आवासीय मकान या गौशाला की चौखट पर गोबर और जौ का श्रृंगार किया जाता है। पर्वतीय गांवों में मनाए जाने वाले लोक पर्व प्रकृति के साथ लगाव व रिश्तों की महत्ता व पवित्रता का संदेश देते हैं। माघ मास में बसंत पंचमी का लोकपर्व भी इनमें एक है। इस पर्व पर सुबह महिलाएं गोबर.मिट्टी से घर.आंगन, ओखल लीपने के बाद चौखट पर गोबर व जौ लगाती हैं। जौ को देवी देवता को चढ़ाने के बाद बहन.बेटियों द्वारा सिर पूजन किया जाता है। दशकों पहले तक विवाहित बेटियां इस पर्व पर मायके जरूर आती थीं, मगर आधुनिकता के दौर में अब यह परंपरा चंद गांवों तक सिमट गई है।
संस्कृतिकर्मी बृजमोहन जोशी बताते हैं कि वसंत पंचमी प्रकृति प्रेम दर्शाता है। इस दिन से कुमाऊं में बैठकी होली का दूसरा चरण शुरू होता है। आयो नवल वसंत, सखी ऋतु राज कहायो… जैसे होली राग फिजां में गूंजते हैं। मकर संक्रांति को आरंभ बैठकी होली वसंत पंचमी के बाद श्रृंगार पर आधारित गाई जाती हैं। जोशी बताते हैं कि यह पर्व अन्न के महत्व को समझने का भी है। गांव से तेजी से हो रहे पलायन तथा जंगली जानवरों के बढ़ते आतंक का असर लोक पर्वों पर भी पड़ा है। बंजर होती खेती की वजह से अब जौ की खेती नाम मात्र होती है। सैकड़ों गांवों में अब धान, गेहूं, मडुवा, बाजरा, कूंण, चौलाई, मादिरा के साथ जौ की खेती बंद हो चुकी है। इस वजह से वसंत पंचमी पर गांवों में अब मुख्य द्वार पर जौए गोबर लगाने की परंपरा ही बंद हो गई है। बृजमोहन जोशी कहते हैं कि पहाड़ के लोगों को जड़ों की ओर लौटना ही होगा। यहां की परंपराएं, मान्यताओं का संरक्षण नहीं होगा तो इसका समाज पर नकारात्मक असर पडऩा तय है। बीज बचाओ आंदोलन के लिए पहचाने जाने वाले किसान विजय जड़धारी किसानों के लिए यह एक शानदार उदाहरण है।
विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने वर्तमान में उत्तर पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्रों में लगभग 59 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में वर्षा आधारित जौ की खेती की जाती है। संस्थान के वैज्ञानिक ने जौ की यह नई किस्म वीएल जौ.118 विकसित की है। हाल ही में स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विवि के कृषि शोध केंद्र दुर्गापुर, जयपुर में हुई 51वीं अखिल भारतीय गेहूं तथा जौ अनुसंधानकर्ताओं की गोष्ठी में वीएल जौ.118 की पहचान की गई। उन्होंने बताया कि वीएल जौ.118 की बुवाई के लिए 15 अक्तूबर से नवंबर के प्रथम सप्ताह का समय उपयुक्त है। 160 से 170 दिन में पकने वाली यह किस्म काफी उपयोगी है। पर्वतीय भाग में इस अवधि में जौ की औसत उपज 12.23 क्विंटल प्रति हैक्टेयर हैए जबकि वीएल जौ.118 में पौने तीन गुनी अधिक 34.9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देने की क्षमता है। संस्थान के वैज्ञानिक ने बताया कि रबी के सीजन में कम वर्षा होने के उपरांत भी इस किस्म ने अच्छी पैदावार दी है। उन्होंने बताया कि परीक्षण में पिछले तीन वर्षों में इस प्रजाति ने उत्तराखंड तथा हिमाचल के वर्षा आधारित क्षेत्रों में 90.84 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की औसत से पैदावार दी है। परीक्षणों में इस प्रजाति ने वर्षा आधारित क्षेत्र में 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक नत्रजन के प्रति अच्छे परिणाम दिए हैं। यह प्रजाति पीली, भूरी तथा गेरुई रोग के लिए भी प्रतिरोधी है। इस प्रजाति में लगभग दस फीसदी प्रोटीन पाया जाता है। पौधे की ऊंचाई 75.80 सेमी होती है। उन्होंने बताया कि छिल्के सहित मोटे दाने वाली इस किस्म के उत्पादन से उत्तर पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्रों में जौ की उत्पादकता में वृद्धि होगी। उत्तराखंड में कृषि के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हिमालयन एक्शन रिसर्च सेंटर हार्क के मुख्य कार्यकारी अधिकारी महेंद्र सिंह कुंवर ने बताया कि पहाड़ में खेती उत्पादन कम हो रहा है। इसकी कई वजह हैं। सरकार और स्थानीय लोगों को मिलकर इसके उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए काम करने की जरूरत है। मार्केट में इनकी मांग अधिक है, लेकिन इस हिसाब से उत्पादन काफी कम है। बताया कि संस्था की ओर से चमोली, उत्तरकाशी, देहरादून, बागेश्वर आदि जिलों में पहाड़ी अनाजों की खेती और उत्पाद तैयार करने का काम किया जा रहा है। संस्था के अंतर्गत 38 संगठन काम कर रहे हैं और करीब 45 हजार लोग इस रोजगार जुड़े हुए हैं।

Share106SendTweet66
Previous Post

उत्तराखंड के किसानों ने अपनाया किवी, न्यूजीलैंड, इटली को पीछे छोड़ा

Next Post

2024 औलंपिक में उत्तराखंड के खिलाड़ी देश के लिए पदक जीतने को रहें तैयारः मुख्यमंत्री

Related Posts

अल्मोड़ा

सामाजिक कार्यकर्ता मोहन चन्द्र कांडपाल को राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया गया छठा राष्ट्रीय जल संरक्षण सम्मान 2024

December 13, 2025
8
उत्तराखंड

मुख्यमंत्री ने उत्तराखण्ड महक क्रांति नीति-2026-36 का किया शुभारम्भ

December 13, 2025
7
उत्तराखंड

पहाड़ का लाल चावल विलुप्ति की कगार पर

December 13, 2025
7
उत्तराखंड

तीन दिवसीय रोटरी स्वर्ण जयन्ती नव वर्ष मेले की तैयारियों पर की गई चर्चा

December 13, 2025
5
उत्तराखंड

संगठन को मजबूती प्रदान करने के लिए जिला एवं ब्लॉक स्तर पर कार्यकारिणी का गठन होगा : विकास नेगी

December 13, 2025
6
उत्तराखंड

संरक्षक राकेश गर्ग व अध्यक्ष सुबोध गर्ग ने अग्र चेतना मोटर साइकिल रैली को झंडी दिखाकर किया रवाना

December 13, 2025
7

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Popular Stories

  • चार जिलों के जिलाधिकारी बदले गए

    67546 shares
    Share 27018 Tweet 16887
  • डोईवाला : पुलिस,पीएसी व आईआरबी के जवानों का आपदा प्रबंधन प्रशिक्षण सम्पन्न

    45762 shares
    Share 18305 Tweet 11441
  • ऑपरेशन कामधेनु को सफल बनाये हेतु जनपद के अन्य विभागों से मांगा गया सहयोग

    38038 shares
    Share 15215 Tweet 9510
  •  ढहते घर, गिरती दीवारें, दिलों में खौफ… जोशीमठ ही नहीं

    37427 shares
    Share 14971 Tweet 9357
  • विकासखंड देवाल क्षेत्र की होनहार छात्रा ज्योति बिष्ट ने किया उत्तराखंड का नाम रोशन

    37310 shares
    Share 14924 Tweet 9328

Stay Connected

संपादक- शंकर सिंह भाटिया

पता- ग्राम एवं पोस्ट आफिस- नागल ज्वालापुर, डोईवाला, जनपद-देहरादून, पिन-248140

फ़ोन- 9837887384

ईमेल- shankar.bhatia25@gmail.com

 

Uttarakhand Samachar

उत्तराखंड समाचार डाॅट काम वेबसाइड 2015 से खासकर हिमालय क्षेत्र के समाचारों, सरोकारों को समर्पित एक समाचार पोर्टल है। इस पोर्टल के माध्यम से हम मध्य हिमालय क्षेत्र के गांवों, गाड़, गधेरों, शहरों, कस्बों और पर्यावरण की खबरों पर फोकस करते हैं। हमारी कोशिश है कि आपको इस वंचित क्षेत्र की छिपी हुई सूचनाएं पहुंचा सकें।
संपादक

Browse by Category

  • Bitcoin News
  • Education
  • अल्मोड़ा
  • अवर्गीकृत
  • उत्तरकाशी
  • उत्तराखंड
  • उधमसिंह नगर
  • ऋषिकेश
  • कालसी
  • केदारनाथ
  • कोटद्वार
  • क्राइम
  • खेल
  • चकराता
  • चमोली
  • चम्पावत
  • जॉब
  • जोशीमठ
  • जौनसार
  • टिहरी
  • डोईवाला
  • दुनिया
  • देहरादून
  • नैनीताल
  • पर्यटन
  • पिथौरागढ़
  • पौड़ी गढ़वाल
  • बद्रीनाथ
  • बागेश्वर
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • राजनीति
  • रुद्रप्रयाग
  • रुद्रप्रयाग
  • विकासनगर
  • वीडियो
  • संपादकीय
  • संस्कृति
  • साक्षात्कार
  • साहित्य
  • साहिया
  • हरिद्वार
  • हेल्थ

Recent News

सामाजिक कार्यकर्ता मोहन चन्द्र कांडपाल को राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया गया छठा राष्ट्रीय जल संरक्षण सम्मान 2024

December 13, 2025

मुख्यमंत्री ने उत्तराखण्ड महक क्रांति नीति-2026-36 का किया शुभारम्भ

December 13, 2025
  • About Us
  • Privacy Policy
  • Cookie Policy
  • Terms & Conditions
  • Refund Policy
  • Disclaimer
  • DMCA
  • Contact

© 2015-21 Uttarakhand Samachar - All Rights Reserved.

No Result
View All Result
  • Home
  • संपादकीय
  • उत्तराखंड
    • अल्मोड़ा
    • उत्तरकाशी
    • उधमसिंह नगर
    • देहरादून
    • चमोली
    • चम्पावत
    • टिहरी
    • नैनीताल
    • पिथौरागढ़
    • पौड़ी गढ़वाल
    • बागेश्वर
    • रुद्रप्रयाग
    • हरिद्वार
  • संस्कृति
  • पर्यटन
    • यात्रा
  • दुनिया
  • वीडियो
    • मनोरंजन
  • साक्षात्कार
  • साहित्य
  • हेल्थ
  • क्राइम
  • जॉब
  • खेल

© 2015-21 Uttarakhand Samachar - All Rights Reserved.