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काफल उत्तराखंड में बहुत लोकप्रिय फल है

19/05/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के पारंपरिक खानपान में जितनी विविधता एवं विशिष्टता है, उतनी ही यहां के
फल-फूलों में भी। खासकर जंगली फलों का तो यहां समृद्ध संसार है। यह फल कभी मुसाफिरों और चरवाहों
की क्षुधा शांत किया करते थे, लेकिन धीरे-धीरे लोगों को इनका महत्व समझ में आया तो लोक जीवन का
हिस्सा बन गए। औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना
बना देता है। उत्तराखंड के हरे-भरे पहाड़ जितने खूबसूरत हैं उतनी ही खूबसूरत पहाड़ की संस्कृति भी है।
इन दिनों यहां के पहाड़ों में काफल की बहार आई हुई है। काफल उत्तराखंड की पहाड़ियों पर उगने वाला
जंगली फल है लेकिन अपने खट्टे-मीठे स्वाद के कारण यह पहाड़ों पर फलों के राजा के रूप में पहचाना जाता
है। ‘काफल (मिरिका एस्कुलेंटा) का स्वाद नहीं लिया तो समझिए यात्रा अधूरी रह गई। समुद्रतल से 1300
से 2100 मीटर की ऊंचाई पर मध्य हिमालय के जंगलों में अपने आप उगने वाला काफल एंटी-ऑक्सीडेंट
गुणों के कारण हमारे शरीर के लिए बेहद लाभकारी है। इसका छोटा-सा गुठलीयुक्त बेरी जैसा फल गुच्छों में
आता है और पकने पर बेहद लाल हो जाता है। तभी इसे खाया जाता है। इसका खट्ठा-मीठा स्वाद मनभावन
और उदर-विकारों में अत्यंत लाभकारी होता है। काफल अनेक औषधीय गुणों से भरपूर है। इसकी छाल का
उपयोग जहां चर्मशोधन (टैनिंग) में किया जाता है, वहीं इसे भूख और मधुमेह की अचूक दवा भी माना गया
है। फलों में एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होने के कारण कैंसर व स्ट्रोक के होने की आशंका भी कम हो जाती है।
काफल ज्यादा देर तक नहीं रखा जा सकता। यही वजह है उत्तराखंड के अन्य फल जहां आसानी से दूसरे
राज्यों में भेजे जाते हैं, वहीं काफल खाने के लिए लोगों को देवभूमि ही आना पड़ता है। काफल के पेड़ काफी
बड़े और ठंडे छायादार स्थानों में होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में मजबूत अर्थतंत्र दे सकने की क्षमता रखने वाले
काफल को आयुर्वेद में 'कायफल' नाम से जाना जाता है। इसकी छाल में मायरीसीटीन, माइरीसीट्रिन व
ग्लाइकोसाइड पाया जाता है। इसके फलों में पाए जाने वाले फाइटोकेमिकल पॉलीफेनोल सूजन कम करने
सहित जीवाणु एवं विषाणुरोधी प्रभाव के लिए जाने जाते हैं। काफल’ सिर्फ फल ही नहीं बल्कि उत्तराखंड
की संस्कृति का हिस्सा भी है। काफल औषधि युक्त जंगली फल है, जिसे जंगली जैविक फल भी कहा जाता
है। यह फल अनेक रोगों में लाभकारी होते हैं। यह जंगली पशुओं और पक्षियों का एक भोजन भी है। छोटा
गुठली युक्त बेरी जैसा फल ‘काफल’ गुच्छों में लगता है। काफल का फल जमीन से 4000 फीट से 6000 फीट
की उंचाई में उगता है। ये फल उत्तराखंड के अलावा हिमाचल और नेपाल के कुछ हिस्सों में भी होता है। इस
फल का स्वाद मीठा व खट्टा और कसैले होता है।  इस फल का वैज्ञानिक नाम “मिरिका एस्कुलेंटाकहा जाता
है एवं इसे बॉक्स मर्टल और बेबेरी भी कहा जाता है। उत्तराखंड के हरे-भरे पहाड़ जितने खूबसूरत हैं उतनी
ही खूबसूरत पहाड़ की संस्कृति भी है। इन दिनों यहां के पहाड़ों में काफल की बहार आई हुई है। काफल
उत्तराखंड की पहाड़ियों पर उगने वाला जंगली फल है लेकिन अपने खट्टे-मीठे स्वाद के कारण यह पहाड़ों
पर फलों के राजा के रूप में पहचाना जाता है। ‘काफल’ सिर्फ फल ही नहीं बल्कि उत्तराखंड की संस्कृति का
हिस्सा भी है। काफल औषधि युक्त जंगली फल है, जिसे जंगली जैविक फल भी कहा जाता है। हिमालय में
पाए जाने वाले इस जंगली फल का सीजन शुरू हो गया है. साल में एक बार पकने वाला ये फल पहाड़ों में
काफी फेमस है. पहाड़ों में होने वाले इस जंगली फल की पहचान आज पूरे देश और विदेशों तक फैल चुकी
है. ये फल न केवल स्वाद से भरा होता है, बल्कि सेहत के लिए भी फायदेमंद है. मंडी में रहने वाले
चिकित्सक के अनुसार, काफल का फल प्राकृतिक वरदान है, जो शरीर की कई कमियों को पूरा करता है.
काफल पर रिसर्च चल रही है. डॉक्टर इससे कैंसर की दवा बनाने की उम्मीद लगा रहे हैं. वादियों में हर
साल गर्मियों की शुरुआत के साथ ही यहां के लोगों को एक खास पहाड़ी फल काफल का इंतजार रहता है.
इस बार बाजारों में सीजन का पहला काफल पहुंच चुका है. इसकी खट्टे-मीठे स्वाद वाली छोटी-छोटी लाल

फलों की टोकरी लोगों को खूब लुभा रही है. काफल हिमालयी क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से उगने वाला एक
जंगली फल है. ये ज्यादातर 1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई पर पाए जाने वाले घने जंगलों में उगता है.
इसे तोड़ने के लिए स्थानीय ग्रामीण और महिलाएं जंगलों में घंटों मेहनत करते हैं. फिर इसे बाजारों तक
पहुंचाते हैं. इस बार नैनीताल में सीजन की पहली खेप पहुंच चुकी है. लोग इसे हाथों-हाथ खरीद रहे हैं.
काफल फल में कई तरह के प्राकृतिक तत्व पाए जाते हैं। जैसे माइरिकेटिन, मैरिकिट्रिन और ग्लाइकोसाइड्स
इसके अलावा इसकी पत्तियों में फ्लावेन-4, हाइड्रोक्सी-3 पाया जाता है। इस फल को खाने से पेट से
सम्बंधित कई बीमारियां दूर हो जाती हैं जैसे कि कब्ज या एसिडिटी।इसका उपयोग मोमबत्तियां, साबुन
तथा पॉलिश बनाने में भी किया जाता है। काफल फल के पेड़ की छाल से निकलने वाले सार को दालचीनी
और अदरक के साथ मिलाकर सेवन करने से पेचिस, बुखार, फेफड़ों की बीमारी, अस्थमा और डायरिया
आदि रोगों से आसानी से बच सकते हैं अपितु यही नहीं इसकी छाल को सूघने से आंखों के रोग व सिर का
दर्द भी ठीक हो जाता है। इसके पेड़ की छाल का पाउडर जुकाम, आंख की बीमारी तथा सरदर्द में सूघने के
रूप में प्रयोग में लाया जाता है। काफल के पेड़ की छाल या इसके फूल से बने तेल की कुछ मात्रा कान में
डालने से कान का दर्द दूर हो जाता है। इस फल से लकवा रोग ठीक हो सकता है और फल के प्रयोग से आप
नेलपॉलिश के अलावा मोमबत्तियां व साबुन आदि भी बना सकते हैं।पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत ऊंचाई पर पाया
जाता है। पहाड़ों की चोटी पर स्थित इन क्षेत्रों में तापमान कम होता है, जिससे ये निचले इलाकों (घाटियों
या पहाड़ों के निचले हिस्से) की तुलना में अपेक्षाकृत ठंडे होते हैं। चूँकि काफल ठंडे क्षेत्रों में उगता है, जो
आम के लिए अनुकूल नहीं है, इसलिए आम और काफल एक ही क्षेत्र में नहीं उगते हैं।काफल फल एक
मौसमी आनंद है, जो वसंत के अंत और गर्मियों के शुरुआती महीनों में पकता है, खासकर अप्रैल से जून तक।
इस दौरान, स्थानीय लोग उत्साहपूर्वक फल की कटाई करते हैं, और इसे बदलते मौसम और प्रकृति की
उदारता के संकेत के रूप में मनाते हैं।अपने स्वादिष्ट स्वाद के अलावा, काफल फल में कई स्वास्थ्य लाभ भी
होते हैं, जो इसे स्थानीय आहार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाते हैं। विटामिन, एंटीऑक्सीडेंट और आहार
फाइबर से भरपूर यह फल पाचन में सहायता करने और प्रतिरक्षा को बढ़ावा देने की अपनी क्षमता के लिए
जाना जाता है। इसमें सूजन-रोधी गुण भी होते हैं और माना जाता है कि यह श्वसन संबंधी समस्याओं से
राहत देता है। उत्तराखंड में, काफल फल को आमतौर पर ताजा खाया जाता है या पारंपरिक जैम, जेली
और पेय पदार्थ तैयार करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो स्थानीय रीति-रिवाजों और पाक प्रथाओं
में इस फल के सांस्कृतिक महत्व को दर्शाता है। इसकी मौसमी कटाई सामुदायिक बंधन को बढ़ावा देती है,
क्योंकि परिवार और दोस्त अपने समृद्ध प्राकृतिक वातावरण की अनूठी पेशकशों का आनंद लेने और जश्न
मनाने के लिए एक साथ आते हैं। उत्तराखंड में, काफल को मुख्य रूप से ताजा खाया जाता है, लेकिन इसका
उपयोग जूस और स्थानीय पेय बनाने के लिए भी किया जाता है। हालाँकि इसका उपयोग आमतौर पर
विस्तृत व्यंजनों में नहीं किया जाता है, लेकिन फल का विशिष्ट स्वाद इसे एक लोकप्रिय नाश्ता बनाता है,
खासकर बच्चों के लिए। इसका सांस्कृतिक महत्व स्थानीय लोककथाओं और गीतों में स्पष्ट है, जहाँ काफल
को अक्सर प्रचुरता और प्राकृतिक सुंदरता के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। उत्तराखंड के पहाड़ी और
ऊंचाई वाले क्षेत्रो में गर्मी के मौसम में हर साल उगने वाला फल काफल इस साल भी हरे भरे काफल के
पेड़ो में उग आये हैं ये फल पहाड़ी क्षेत्रो के सुंदरता में चार चाँद तो लगा ही रहा है साथ ही लोग भी इस
फल को खाने के लिए काफी बेताब नजर आते हैं फल खाने में मीठा होता है जो की ये फल 4000 से 6000
फ़ीट की ऊंचाई वाले क्षेत्रो में मार्च माह में काफल के पेड़ में उग आते हैं लेकिन इस वक्त ये फल हरा और
खट्टा होता है लेकिन एक माह बीते जाने के बाद ये फल लाल हो जाता है जिसका स्वाद भी मीठा होता है
इस फल का वैज्ञानिक नाम “मिरिका एस्कुलेंटा” है जिसे भूख बढ़ाने के औषधि के तौर पर भी लिया जाता है
उत्तराखण्ड राज्य के साथ ही ये स्वादिष्ट और फल नेपाल और हिमांचल में भी पाया जाता है काफल फल के
पौधे को कही भी उगाया नहीं जा सकता हैं बेरी फल की तरह दिखने वाला काफल पहाड़ों पर पाया जाता
है। यह जंगली फल है जो पहाड़ी इलाकों में उगता है और सिर्फ़ इसी मौसम में मिलता है। 'बेबेरी' के नाम से
मशहूर इस फल को उत्तराखंड के सीएम ने प्रधानमंत्री को फलों की टोकरी में भेंट किया। छोटे आकार और

हल्के खट्टे स्वाद वाला यह फल पीएम मोदी का भी पसंदीदा बन गया है। इस फल के स्वास्थ्य लाभों के
कारण यह बहुत महंगा हो गया है। इसकी कीमत अभी 600 रुपये प्रति किलोग्राम है और पर्यटक भी इसका
लुत्फ़ उठा रहे हैं। काफल उत्तराखंड की संस्कृति में भी रचा बसा है। इसका उल्लेख विभिन्न रूपों में यहां के
लोकगीतों में भी पाया जाता है। उत्तराखंड जाएं और वहां मिलने वाले विभिन्न प्रकार के पहाड़ी फलों का
स्वाद ना लें, तो यात्रा अधूरी लगती है। गर्मियों के मौसम में पक कर तैयार होने वाले काफल राज्य में आने
वाले पर्यटकों में भी खासे लोकप्रिय हैं इसके लिये एक मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति एवं सामाजिक
संकल्प जरुरी है. हिमालय की विविध भूस्थलाकृतिक विशेषताओं के कारण यहंा वानस्पतिक संसाधनों का
विशाल एवं स्थायी भंडार चिर काल से उपलब्ध रहा है। जहां एक ओर विभिन्न औषधीय गुणो की वजह से
समूचे विश्व में आधुनिक औषधि निर्माण एवं न्यूट्रास्यूटिकल कम्पनियों मंे इन औषघीय पौधांै की माॅग
दिनों दिन बढ रही है वही लोगों तथा सरकार द्वारा इनके आर्थिक महत्व पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा
रहा है। यदि इन वहुउद्ेशीय पादपों के आर्थिक महत्व पर गहनता से कार्य किया जाता है तो पहाड़ो से
पलायन जैसी समस्या से काफी हद तक निजात पाया जा सकता है स्थानीय स्तर पर उपलब्ध प्रकृतिक
संसाधनों का संरक्षित सदुपयोग, आधुनिक तकनीकों के प्रयोग से कृशि आधारित व्यवसायिक व ओद्योगिक
समृद्धिकारण के माध्यम से पर्वतीय क्षेत्र के युवाओं के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर उपलब्ध
कराना है, ताकि पर्वतीय क्षेत्र से ग्रामीण युवाओं के पालायन को रोका जा सके और पर्वतीय जनों की जीवन
षैली में आवष्यक बदलाव लाया जा सके.. *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय*
*में कार्यरत हैं* ।

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