डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
प्राचीन काल से ही लौह इस्पात के लिए मशहूर उत्तराखंड के लोहाघाट की लोहे की चमक वहां की
महिलाओं के लिए एक बड़ा रोजगार देने का काम कर रहा है. यहां कि महिलाएं कच्चे लोहे से बर्तन बनाकर
खुद को आत्मनिर्भर बना रही हैं. साथ ही, पूरे भारत में अपने लोहे के बर्तन बेचकर आज लाखों की कमाई
कर रही हैं, दिल्ली के प्रगति मैदान में अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेला लगा था, जहां भारत के सभी राज्य की कई
चीजें इस मेले में मिल रही थी. वहीं यह मेला बहुत सी महिलाओं के लिए उनके अपने व्यापार को आगे
बढ़ाने के लिए एक अच्छा प्लेटफार्म साबित हुआ. वहीं इस मेले में उत्तराखंड के लोहाघाट की महिलाओं का
भी एक स्टाल लगा था, जहां बहुत सुंदर और अलग प्रकार के लोहे के बर्तन बिक रहे थे और इन्हें खरीदने के
लिए लोगों की काफी भीड़ भी लगी थी. इस बीच समूह की एक महिला नारायणी देवी ने लोकल 18 की
टीम से बात करते हुए बताया कि उनके समूह का नाम पूर्णागिरि है, जिसमें 40 महिलाएं मिलकर अपने घर
से ही लोहे का बर्तन बनाने का काम करती हैं, फिर इन बर्तनों को अलग-अलग एग्जिबिशन और सरकारी
स्कूल मे ले जाकर बचती हैं, जिससे वह सालाना लाखों की कमाई कर रही हैं. बता दें कि लोहे का बर्तन
बनाने का ये काम इनका पुश्तैनी चला आ रहा है, जहां से इन्होंने इस कला को सीखा है. लोहे के बर्तन की
खासियत के बारे में बताया कि इनका बर्तन पीआर लोहे से बना होता है. इसमें खाना बनाकर खाने से
शरीर में आयरन की कमी पूरी होती है और सेहत भी ठीक रहता है. उन्होंने आगे बताया कि वह लोहे से
कढ़ाई, फ्राई पैन, तवा, कुल्हाड़ी, बसूला, पलटे, डाड़ू, चिमटे, दराती, छलनी, सग्गड़ जैसी चीजें बनाती हैं,
जिसका लोगों के बीच में काफी डिमांड है. वहीं इनके बर्तनों की कीमत की बात करें तो ₹300 किलो के
हिसाब से बर्तन मिलते हैं. इन महिलाओं को अपनी कला की वजह से वहां के सीएम और उत्तराखंड के
राज्यपाल द्वारा अवार्ड से सम्मानित भी किया जा चुका है. लोहावती नदी के किनारे बसे लोहाघाट के लोहे
से बने बर्तन की खास खूबी को दिल्ली का व्यापार महोत्सव नई पहचान दे रहा है। परंपरा और आधुनिकता
के मिलेजुले रूप वाली कढाई और अन्य लोहे के बर्तन टिकाऊ होने के साथ खूबसूरत भी हैं। उत्तराखंड में
अपना लोहा मनवा रहा है। लोहाघाट ग्रोथ सेंटर के लोहे से बने कृषि उपकरण अब पूरे प्रदेश में खेती में
मददगार होंगे। प्रदेश शासन के निर्देश के बाद उत्तराखंड के कृषि निदेशक ने सभी जिलों के कृषि
अधिकारियों को लोहाघाट के कृषि उपकरण खरीदने के दिए आदेश दिए हैं। इससे न केवल यहां की ग्रामीण
महिलाओं को काम मिलेगा बल्कि वोकल फॉर लोकल के नारे को भी बढ़ावा मिल सकेगा।
लोहाघाट का स्वयं सहायता समूह प्रगति ग्राम संगठन भी हाथों और मशीनों से लोहे के बर्तन बनवा रहा है
चम्पावत के लोहाघाट में पारम्परिक रूप से बनी कढ़ाई बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्हें अच्छी गुणवत्ता के लोहे से
बनाया जाता है। आधुनिक युग में जहां सब कुछ आधुनिक हो गया। लेकिन आज भी पुरानी परंपराओं और
प्राचीन वस्तुओं का अपना ही अलग महत्व है चंपावत जिले में लोहावती नदी के किनारे स्थित है और यह
मंदिरों के लिए खासा मशहूर है। इस जगह से जुड़ी कुछ धार्मिक और ऐतिहासिक मान्यताएं हैं एक चीनी
व्यापारी ने इस शहर के बारे में कहा था कि धरती पर स्वर्ग कश्मीर में नहीं बल्कि लोहाघाट में बसता है।
लोहावती नदी के किनारे बसा लोहाघाट एक ऐतिहासिक शहर है। वक्त के बदलाव ने पहाड़ की संस्कृति के
साथ ही यहां के रहन-सहन और खान-पान पर विपरीत असर डाला है। चूल्हे व बड़ी रसोई में भोजन बनाने
के लिए प्रयुक्त होने वाले बर्तन हाशिये पर चले गए हैं।पर्वतीय समाज में लोक संस्कृति के साथ ही खानपान
की परंपरा पूरी तरह बदल गई है। भोजन में लोहे, तांबे और कांसे का मिश्रण बना रहे इसके लिए संबंधित
धातुओं के बने बर्तनों में भोजन बनाया जाता था। अब यह परंपरा स्टील तथा नॉनस्टिक बर्तनों के आने से
पूरी तरह हाशिये पर चली गई है। पहले पीतल व कांसे की तौली का इस्तेमाल विशेषकर रोजमर्रा के
खानपान में दाल भात बनाने के लिए किया जाता था। दाल तैयार करने के लिए खासकर कांसे से बने भड्डू
का इस्तेमाल होता था। लोहे की कढ़ाइयों में सूखी सब्जी बनती थी। पानी हमेशा तांबे से बने घड़े में रखा
जाता था ताकि उसकी पौष्टिकता व शुद्धता बनी रही। आटा गूंथने के लिए तांबे व पीतल की परातें
इस्तेमाल में आती थीं। लकड़ी से बनीं ठेकी दूध रखने, दही जमाने और मट्ठा बनाने के काम आती थी। दही
को गजेठी से मथकर छांछ तैयार होती थी। वर्तमान में मक्खन और छांछ भी स्टील के पतीले में मोटर के
सहारे मथकर तैयार की जा रही है। खाना बनाने से पूर्व खाद्यान्न की माप करने के लिए लकड़ी से बनी
नाली और माणे का उपयोग होता था। इन बर्तनों में खाने वाले लोगों की संख्या के आधार पर खाद्यान्न की
मात्रा डाली जाती थी जिससे भोजन के बर्बाद होने की संभावना नहीं रहती थी। अमित के मुताबिक, लोहे
के बर्तनों की विशेषता यह है कि इन्हें जितना इस्तेमाल करते हैं, वे उतना चांदी की तरह सफेद होते जाते हैं.
यह लोहाघाट के लोहे की खासियत है. इसके साथ कुमाऊं द्वार महोत्सव में लोहे के बर्तन लेने आए एमबी
पांडे का कहना है कि लोहे के बर्तन में खाना खाने से आयरन मिलता है और साथ ही यह हमें कई बीमारी से
भी बचाता है लोहाघाट के बर्तन और कृषि यंत्र भी हिलांस ब्रांड से राज्य के ग्रोथ सेंटर्स में रखे जा रहे हैं।
ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट पर भी ये मौजूद हैं। अमित कुमार कहते हैं कि हमारे पास चेन्नई से लेकर देश
के दूसरे हिस्सों से ऑर्डर आए। लेकिन पैकेजिंग से जुड़ी मुश्किल आ रही है। लोहे के उत्पाद भारी होते हैं।
हमें पैकेजिंग के लिए अभी और काम करना होगा।महिला सामाख्या कार्यक्रम की निदेशक रह चुकी गीता
गैरोला कहती हैं कि महिला स्वयं सहायता समूह तेजी से बनाए जा रहे हैं लेकिन इनकी मॉनीटरिंग नहीं की
जा रही है। बहुत से ऐसे समूह हैं जिनके पास उनके उत्पादों को बेचने के लिए बाजार नहीं है।
महिलाएं शहद, मसाले, मशरूम, स्वेटर सबकुछ बना रही हैं लेकिन वे उन्हें बेचे कहां। सरकार ने महिलाओं
को इतनी सिलाई मशीनें बांटीं लेकिन पहाड़ में महिला दर्जी नहीं मिलती। समूहों को लेकर सरकार दशकों
से कार्य कर रही है। इस लिहाज से देश की औरतों को अपने पैरों पर खड़े हो जाना चाहिए था। लेकिन वे
औरतें कहां हैं? गीता कहती हैं कि स्वयं सहायता समूहों की प्रगति से जुड़ा अध्ययन कराने की जरूरत है
ताकि हमें सही स्थिति का पता लग सके।एसएचजी मतलब वोटबैंक
उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य कर रही सामाजिक कार्यकर्ता दीपा कौशलम कहती हैं कि राज्य में बड़ी
संख्या में स्वयं सहायता समूह तैयार तो किए गए लेकिन ये अब भी संगठित और मजबूत नहीं दिखाई देते।
समूह से जुड़ी महिलाएं छोटे-छोटे फैसलों के लिए ग्राम प्रधान, ब्लॉक प्रमुख या अधिकारियों पर ही निर्भर
करती हैं।ज्यादातर स्वयं सहायता समूह सरकारी आयोजनों और मेलों की उम्मीद में काम करते हैं। यदि
समूह स्वयं से बड़े प्लेटफॉर्म का उदाहरण दे पाएं तो स्थिति और बेहतर हो सकती है।दीपा कहती हैं कि
एनएरआलएम या एसआरएलएम सरकारी सिस्टम को सपोर्ट करते हैं तो सरकार का नियंत्रण भी समूहों
पर कहीं न कहीं रहता है। ग्राम, ब्लॉक स्तर के कार्यक्रमों से लेकर मंत्रियों के दौरों और राजनीतिक कार्यक्रमों
में भी समूह की महिलाओं को जाना ही पड़ता है। उनके पास विकल्प नहीं होता। इसलिए सत्ता में मौजूद
पार्टी इन्हें राजनीतिक तौर पर प्रभावित करती ही है।दीपा का आकलन है कि एसएचजी के जरिये स्थानीय
समुदाय का विकास भी 15-20 प्रतिशत ही हो सका है। वही समूह आगे बढ़ने में सफल हुए हैं जिन्होंने स्वयं
व्यक्तिगत तौर पर पहल की है।उत्तराखंड के एसएचजी को लेकर इंटरनेशनल जर्नल ऑफ बेसिक एंड
अप्लाइड एग्रीकल्चरल रिसर्च में वर्ष 2017 में लिखे गए एक शोधपत्र के मुताबिक राज्य में बड़ी संख्या में
समूह निष्क्रिय पाए गए। अध्ययन के मुताबिक 11.70 फीसदी समूहों ने 1-3 वर्ष तक काम किया, 33.75
फीसदी समूहों ने 3-5 वर्ष तक काम किया जबकि सिर्फ 16.50 फीसदी समूहों ने 5 से अधिक वर्ष तक काम
किया। 37.75 फीसदी समूह काम करते रहेअध्ययन के मुताबिक गठन के बाद समूहों को प्रोत्साहित नहीं
किया गया न ही इनके कार्यों की मॉनीटरिंग की गई और ज्यादातर समूह निष्क्रिय होते चले गए। डीएम
बताते हैं कि ग्रोथ सेंटर से लोहे के परंपरागत हुनर को नया मुकाम मिलने के साथ रोजगार भी बढ़ा है
लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।