डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत के लिए एक बड़ी ही मशहूर कहावत है, कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी, यानी भारत में हर चार कोस पर भाषा बदल जाती है, इससे आप अंदाजा लगा सकते है। प्रत्येक वर्ष की भांति 21 फरवरी 2020 को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता रहा है। भारतीय गृह मंत्रालय भी देश की भाषाई विविधता को उजागर करने के लिए 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस मनाया। यूनेस्को द्वारा दुनिया भर के विभिन्न देशों में उपयोग की जाने वाली पढ़ी, लिखी और बोली जाने वाली 7000 से अधिक भाषाओं की पहचान की गई है। इसी बहुभाषीवाद को मनाने के लिए 21 फरवरी का दिन चुना गया। भारत में 2001 की जनगणना के अनुसार आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त 22 भाषाएँ, 1635 तर्कसंगत मातृभाषाएँ, 234 पहचान योग्य मातृभाषाएँ मौजूद हैं।
यह भारतीय संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस को विशेष रूप से महत्वपूर्ण बनाती है। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार 43 करोड़ हिंदी भाषी लोगों में से 12 प्रतिशत लोग द्विभाषी हैं। इसका मतलब है कि वे लोग दो भाषाएं बोल सकते हैं। उनकी दूसरी भाषा अंग्रेजी है। इसी प्रकार बांग्ला भाषा के 9.7 करोड़ लोगों में 18 प्रतिशत लोग दो भाषाएं बोल सकते हैं। यूनेस्को ने पहली बार 17 नवंबर, 1999 को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा की थी। औपचारिक रूप से 2008 में संयुक्त राष्ट्र महासभा यूएनजीए ने अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस को मान्यता दी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने सदस्य राष्ट्रों से दुनिया भर के लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली सभी भाषाओं के संरक्षण को बढ़ावा देने का आह्वान किया है।
निज भाषा उन्नति, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल। प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की यह पंक्तियां निश्चित रूप से यह बोध कराने के लिए पर्याप्त हैं कि अपनी भाषा के माध्यम से हम किसी भी समस्या का समाधान खोज सकते हैं। यह सर्वकालिक सत्य है कि कोई भी देश अपनी भाषा में ही अपने मूल स्वत्व को प्रकट कर सकता है। किसी भी देश की आत्मा उसका स्वत्व होती है, बिना स्वत्व के कोई भी देश अपने आधार पर जीवित नहीं रह सकता। हिंदी भी एक ऐसा आधार है, जिसे हम भारत का स्वत्व कहते है। वह हमारे भारत का निजत्व है, निजी भाषा है। निज भाषा देश की उन्नति का मूल होता है। निज भाषा को नकारना अपनी संस्कृति को विस्मरण करना है। जिसे अपनी भाषा पर गौरव का बोध नहीं होता, वह निश्चित ही अपनी जड़ों से कट जाता है और जो जड़ों से कट गया उसका अंत हो जाता है। भारत का परिवेश निसंदेह हिंदी से भी जुड़ा है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि हिंदी भारत का प्राण है, हिंदी भारत का स्वाभिमान है, हिंदी भारत का गौरवगान है। भारत के अस्तित्व का भान कराने वाले प्रमुख बिंदुओं में हिंदी का भी स्थान है। हिंदी भारत का अस्तित्व है। संपूर्ण विश्व मिलकर सांस्कृतिक व भाषिक विविधताओं को पोषित करें, जिससे विश्व में बहुभाषिकता और बहुसांस्कृतिकता संवर्धित हो।
किसी भी व्यक्ति की अभिव्यक्ति भाषाहीन नहीं होती, इसलिए सभी की मातृभाषा एकसमान महत्व रखती है। संस्कृति और भाषा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक भाषा को समाप्त करना बेशकीमती विरासत को खोने जैसा है। हम इसे होने नहीं दे सकते हैं। हमारी विविधता भरी संस्कृति की खूबसूरती को सिर्फ मातृभाषाओं को प्रोत्साहन देकर ही बचाया जा सकता है। मातृभाषा जीवन की आत्मा है। उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सांसदों को अपने क्षेत्र में कार्यक्रम आयोजित करने को कहा हैण् अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर धाद उत्तराखंड में वर्ष 2008 से कार्यक्रम का आयोजन करती आ रही है।
उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में गढवाली, कुमाऊनी, जौनसारी, भोटिया, लोकभाषा को बोलने वाले लोगो का प्रतिशत गिर गया है, इसको लेकर भी चिंतन करने की आवश्यकता है, इन्हें बचाना समाज का कर्तव्य है। आज उत्तराखंड में अपनी बोली.भाषा को बचाने के लिए बड़ी कोशिशें की जा रही हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या सच में उत्तराखंड के लोग अपनी बोली और भाषा को लेकर इतने जागरूक हैं। हाल ही में जनगणना के आंकड़ों के ताजा विश्लेषण के बाद इसे लेकर कुछ बड़ी बातें सामने आई हैं। भारत के महापंजीयक व जनगणना आयुक्त कार्यालय द्वारा इस रिपोर्ट को जारी किया गया है। ये आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में कुल मिलाकर 99 बोलियां और भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से सबसे ज्यादा हिंदी, गढ़वाली, कुमाऊंनी बोलने वाले लोग हैं। ये रिपोर्ट कहती है कि उत्तराखंड में 43.36 फीसद लोगों की मातृ भाषा हिंदी है। इसके बाद दूसरे नंबर पर 23.02 फीसद लोग गढ़वाली बोलने वाले हैं। तीसरे स्थान पर कुमाऊंनी बोलने वाले लोग हैं, जिनका 19.94 प्रतिशत है। जौनसारी बोलने वालों की संख्या 1,35,698 है। हालांकि उत्तराखंड के 13 जिलों में से 10 जिलों में गढ़वाली और कुमाऊंनी का बोलबाला है। बाकी बचे तीन जिलों में हिंदी भाषा बोली जाती है। पौड़ी, टिहरी, चमोली, उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जिलों में लोगों की मातृभाषा गढ़वाली बोली जाती है। दूसरी ओर नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ और चंपावत में कुमाऊंनी भाषा का बोलबाला है। सिर्फ तीन जिलों में हिंदी भाषा बोली जाती है और वो हैं, हरिद्वार, देहरादून और ऊधमसिंहनगर। लेकिन बात ये है कि इन जिलों में ही उत्तराखंड की ज्यादातर जनसंख्या रह रही है। कुल मिलाकर ये आंकड़े कहते हैं कि उत्तराखंड में हिंदी भाषी लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि उत्तराखंड में गढ़वाली और कुंमाउंनी का प्रसार सबसे ज्य़ादा है। यानी अब लोग धीरे.धीरे जागरूक हो रहे हैं।